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'स्वस्थ साहित्य किसी की नक़ल नहीं करता' | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मैं यह नहीं मानता की प्रेमचंद की परंपरा आगे नहीं बढ़ी, क्योंकि हमें मालूम है कि प्रेमचंद के बाद पूरा एक लेखक वर्ग है. 50-60 के दशक में रेणु, नागार्जुन उसके बाद श्रीप्रसाद सिंह ने ग्रामीण परिवेश की कहानियाँ लिखी हैं, वो एक तरह से प्रेमचंद के परंपरा के तारतम्य में आती हैं. यह ज़रूरी है और किसी भी स्वस्थ साहित्य में होना भी चाहिए कि वह प्रेमचंद की नक़ल में न लिखा जाए. सबसे बड़ी बात यह है कि प्रेमचंद का किसान जो औपनिवेशिक व्यवस्था के चक्की के नीचे पिस रहा था, स्वतंत्रता के बाद उसकी स्थिति बहुत बदल चुकी थी. रेणु का मैला आँचल, परती परिकथा पढ़ें तो लगेगा कि किसान के भीतर एक प्रफुल्लता, स्वतंत्रता का आभास, नई चीज़ उसके जिंदगी में आ रही है. ये चीज़ें प्रेमचंद के किसान में विपन्नता, उदासीनता, आर्थिक कठियाइयों के भीतर दिखना बहुत मुश्किल लगता है. ये प्रेमचंद की शक्ति भी है. भारतीय किसान का जो कठिन रूप है, इतना अधिक दयनीय, बमुश्किल दो वक्त का खाना जुटा पाने की समस्याएँ हैं, वो उसमें इतने ज़्यादा जुटे रहे कि किसान का जीवन कुछ और ही हो सकता है. लय, नृत्य, संगीत, दिन भर काम करने के बाद वो वसंत, बरसात, विभिन्न ऋतुओं के मौसम को इंगित करता हुआ नृत्य और गान कर सकता है, यह सब रेणु में दिखेगा, प्रेमचंद में नहीं. और यह अच्छी बात भी है. क्योंकि हम अपने पिछले लेखकों के प्रति तभी ज़िम्मेवारी निभा सकते हैं, उनके नकल करके नहीं, बल्कि उन्होंने जो खाली जगह छोड़ दी है उनके भरने के प्रयास में. मैं समझता हूँ कि एक तरह से जीवन के दो पक्ष हमारे सामने आते हैं एक औपनिवेशिक व्यवस्था में रहने वाला किसान जो प्रेमचंद का विषय है. स्वतंत्र भारत में रहने वाले किसान के लेखक हैं रेणु. तो परंपरा तो एक तरह से बनी ही रही. प्रासंगिकता हमारे प्रगतिशील मार्क्सवादी कहते हैं कि जब स्थितियाँ बदल जाती हैं तो कहानी, इतिहास, कविता को भी बदल जाना चाहिए. जैसे स्थितियों के मापदंड पर एक जर्नलिस्टिक रिपोर्ट की तरह कविता को आंकना पड़ता है, यह बिलकुल ही भ्रांत धारणा है. यह भ्रांति प्रेमचंद की कहानियाँ ही सबसे अधिक हमारे सामने प्रमाण प्रस्तुत करती है. आज प्रेमचंद का जीवन कहाँ है, बिलकुल बदल चुका है. न वह किसान है, न महंगाई है और न वह दयनीयता है और न आर्थिक संकट की हाहाकार है. लेकिन प्रेमचंद की कहानियाँ आज भी इसलिए प्रासंगिक बनती हैं क्योंकि उन्होंने भावी परिस्थितियों तो एक संदर्भ के रूप में लिया था. पंच बने परमेश्वर जैसी कहानी में पंच बना दिए गए हैं तो जिस व्यक्ति ने उसे धोखा दिया है, पंच को लगता है कि उसने कोई ग़लती नहीं की. उसकी आत्मा स्वीकार नहीं करती कि मैं इस व्यक्ति के ख़िलाफ़ अपना फ़ैसला इसलिए दे दूँ क्योंकि उस जमाने में इसने मेरे ख़िलाफ़ कोई साजिश की थी. भारतीय किसान आज भी वो किसान है जिसकी प्रकृति से गहरी अंतरंगता बनी हुई है. यह फ्रांस, अमरीका, रूस जैसा किसान नहीं है जिसको ज़मीन के मज़दूर की तरह वर्णित कर दिया गया है. जो काम तो करता है ज़मीन पर, मगर बन गया है मज़दूर. भारतीय किसान आज भी प्रकृति से साथ रहकर वहीं गाथाएँ, मिथक, स्मृतियाँ संजोता है जो प्रकृति और समाज को सुंदर बनाती हैं. प्रेमचंद से लेकर रेणु तक हमने जिस तरह से किसान संस्कृति को बचाकर रखा है, वह सचमुच प्रशंसनीय है. (आशुतोष चतुर्वेदी से बातचीत पर आधारित) |
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