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'उनके नाम पर सिर्फ़ मलाई खाई गई' | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मैं मानता हूँ कि समाज बदलता रहता है. प्रेमचंद का जो समाज था उसके बारे में रुपक में यदि कहें तो बहुत कुछ नहीं बदला है लेकिन ऊपरी तौर पर बहुत कुछ बदल गया है. बदल इस अर्थ गया है कि जो मासूमियत प्रेमचंद अपनी कहानियों में लाते हैं वह तब भी नहीं थी और अब भी नहीं है. यह हो नहीं सकता कि कोई किसान लगातार शोषित होता रहे. लेकिन वह मासूमियत प्रेमचंद का अस्त्र था कहानी में करुणा पैदा करने के लिए. मासूमियत पैदा करो ताकि अत्याचार भयानक दिखे और कहानी में करूणा पैदा हो. लेकिन यह भी आसानी से नहीं हो सकता. इस तरह की मासूमियत पैदा करने की जो क्षमता प्रेमचंद में थी वह और किसी कहानीकार में नहीं है. गाँव भी बहुत बदल गए हैं अब तो तमाम उपभोक्ता सामग्री गाँवों में जा रही है. गाँवों का समाज शुरु से बड़ा ऐंद्रिक समाज रहा है और उसमें सुख की इच्छा जीवन जीने की कामना शुरु से रही है. इस नज़र से प्रेमचंद का जो गाँव है, जो उनका ग्रामीण समाज है वह काफ़ी बदल गया है. एक छोटा सा उदाहरण यह है कि उस गाँव में तो अब कोई रहता ही नहीं है. लोग वहाँ से रोज़गार की तलाश में भाग गए हैं. प्रेमचंद ने जो विसंगतियाँ उस समय इंगित की थीं वह कमोबेश आज भी वैसी की वैसी हैं. वो बदली नहीं हैं बल्कि वे ज़्यादा भीषण पैमाने पर हैं लेकिन उनका तरीक़ा बदल गया है. उदारहण के तौर पर होरी ज़रा सा कर्ज़दार हो जाता है और जीवन भर वो उसे चुकाने की जुगत लगाता रहता है, एक गाय तक ख़रीदने के पैसे तक उसके पास नहीं होते लेकिन अब किसान मल्टीनेशनल का कर्ज़दार है. किसान के पास पैसे तो आज भी नहीं है लेकिन उसे गाय ख़रीदने की इच्छा नहीं है इसलिए अब वह कर्ज लेकर ट्रैक्टर ख़रीदता है और आँध्र प्रदेश में आत्महत्या कर लेता है. नाना प्रकार के बैंक उसे लोन दे रहे हैं और उसे चुका नहीं पाता. बदलाव यह है कि कुछ किसानों ने पैसा भी कमाया है और ख़ुश भी है. होरी कर्ज़ चुकाने के लिए मेहनत करके मर गया लेकिन अब किसान उसे चुकाने के लिए मेहनत करते हुए नहीं मरता क्योंकि वह प्रेमचंद का किसान नहीं है वह शरद जोशी का किसान है इसलिए एक सीमा तक वह उसे चुकाने का प्रयास करता है फिर आत्महत्या कर लेता है ताकि उसे वसूलने का चक्कर ही ख़त्म हो जाए. दलित और महिलाएँ महिलाओं और दलितों के मामले ऐसे हैं जिनके बारे में प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में संकेत दिए थे कि इनकी हालत बहुत ख़राब है. लेकिन हमारे समाज में ये दो सामाजिक संरचनाएँ जिस तरह उभर कर आई हैं उसके बीच प्रेमचंद के अनुभवों का संसार बदला हुआ दिखाई देता है. प्रेमचंद की रचनाओं की तरह ये सामाजिक संरचनाएँ कोई उदारतावादी व्यवहार नहीं करते बल्कि एक कट्टरपंथी राजनीति का रास्ता अपनाते हैं. और अगर उस तरह से देखें तो प्रेमचंद खासे प्रतिक्रियावादी नज़र आते हैं. जो लोग कहते हैं कि प्रेमचंद हमारे पथ प्रदर्शक हो सकते हैं उनके लिए तो मैं कहूंगा कि उनकी बात दस-बीस-चालीस साल तो प्रासंगिक हो सकती है लेकिन सवा सौ साल बाद को कहे कि वह आज की समस्याओं के लिए भी विकल्प हो सकता है तो वह सिर्फ़ आदर्श हो सकता है और मैं इसे मूर्खता के अलावा कुछ नहीं कहता. आज की मिट्टी, आज का पानी, आज की हवा और आज की समस्याएँ आज की हैं. सौ साल के पुराने के चक्कर में हमारी हिंदी में अतीत में सर गड़ाकर जीने की जो परंपरा है वह मार्क्सवादियों में भी है. प्रासंगिकता यह एक ग़लतफ़हमी पहले थी कि साहित्य सार्वकालिक हो सकता है. लेकिन ज्यों-ज्यों ज्ञान का और विमर्शों का विस्तार हुआ त्यों-त्यों यह समझ में आने लगा कि आ गया कि काल की अवधारणा राजनीति से तय होती है और किसी लेखक की अमरता भी सत्ता में जो आता है उससे तय होती है. जैसे प्रेमचंद को बीजेपी ने हटा दिया क्योंकि वे उनके लिए विषम से थे. वे सेक्युलर थे, वे प्रगतिशील थे और वे ऐसे राष्ट्रवादी थे जो इनके अंधराष्ट्रवाद को चुनौती दी. मान लीजिए कि ये सफल हो जाते और वे कुछ समय तक और इतिहास से छेड़छाड़ करते रहते तो बीस साल बाद आने वाले लोगों को पूरा मामला दूसरी तरह का दिखाई देता. इस तरह से शाश्वतता तो संदिग्ध हो गई है और इससे प्रेमचंद को कोई फ़र्क नहीं पड़ता. एक मोमबत्ती जलती है और वह अपने जलने तक प्रकाश करती है, उसके बाद प्रकाश के लिए दूसरी मोमबत्ती जलानी चाहिए. अब आप एक ही मोमबत्ती लेकर कहते रहें कि ये और उजाला दे तो यह नहीं हो सकता. यह हिंदी के स्वभाव की समस्या है वो ज़्यादातर सनातनी हैं और मार्क्सवादी बने फिरते हैं. हालांकि ये समस्या पश्चिम की भी है. मार्क्स ने ख़ुद कहा कि शेक्सपियर मुझे मुग्ध करता है. तो हो सकता है कि मार्क्स को शेक्सपियर मुग्ध करते होंगे लेकिन आज तो बच्चा तो शेक्सपियर के पात्रों ने नई पैरोडियाँ पैदा करता है. समस्या यह थी कि पहले कोई भी पात्र आकर एक ख़ास किस्म की कुर्बानी माँगने लगता था, लेकिन पूंजीवाद इसके विपरीत है. मार्क्स ने ख़ुद कहा था कि पूंजीवाद तमाम तरह की आर्थोडॉक्सी (रूढ़िवाद) को ख़त्म कर देगा. परंपरा यह एक गंभीर सवाल है कि क्या भारतीय समाज ने प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की? मैं मानता हूँ कि उन्होंने अपनी दूकान आगे बढ़ाई. प्रेमचंद तो एक नाम है, एक ब्रांड है और लोग इसे लेकर तरह-तरह के धंधे कर रहे हैं. प्रेमचंद की विरासत को आगे बढ़ाने वाला कौन सूरमा है इसे मैं आज भी समझना चाहता हूँ. ऐसा कौन है जिसने त्याग करते हुए इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश की है. प्रेमचंद के नाम पर मलाई बनती है, पैसे बनते हैं. कमेटियाँ बनते हैं, यात्रा भत्ते बनते हैं और किताबें लिखनी होती हैं. (एक मैं भी लिख रहा हूँ, मुझे भी दो चार पाँच हज़ार का धंधा मिल जाएगा) मेरी शिकायत यह है कि मुझे पाँच हज़ार और जो कुछ नहीं कर रहे हैं उन्हें पाँच लाख. यह मेरी ईर्ष्या है. जो लोग परंपरा को आगे बढ़ाने की बात करते हैं वे अपना एजेंडा ही तय नहीं कर पाए. जो एजेंडा तय कर लेगा वह प्रेमचंद के सार को ग्रहण कर लेगा. प्रेमचंद एक बहुत बड़ा कलाकार है. वह एक डिज़ाइनर कहानीकार है जो ऐसा क्राफ्ट रचता है जिसमें पहले वाक्य से आख़िरी वाक्य तक एक भी वाक्य अतिरिक्त नहीं होता. एक वाक्य हटा दें तो लगता है कि कहानी टूट जाएगी. वह भाषा का बड़ा मर्मज्ञ था और वह अपनी भाषा पर इतनी पकड़ रखता था कि उसे पता होता था कि क्या कहना है और क्या नहीं कहना है, वह कम्युनिकेशन का बड़ा मास्टर था और हिंदी-ऊर्दू में एक पुल की तरह काम करता था. बाद की कहानी को देख लें. उर्दू ग़ायब है, मुसलमान पात्रों का कोई ज़िक्र ही नहीं है और गाँव तो एकदम ग़ायब है. अब वे प्रेमचंद को याद करके अचानक बिरहा गाने लगते हैं कि हाय मेरा गाँव, हाय मेरा किसान.....तो ज़िंदगी भर तो आपने शहरों में मलाई खाई और अचानक सवा सौ साल पर आप प्रेमचंद-प्रेमचंद करने लगे. मुझे लगता है कि आप इस तरह ख़ुद अपना राजनीतिक संशोधन कर रहे हैं. प्रेमचंद ने अपनी बात कहने के लिए जिन प्रतीकों का उपयोग किया उस पर कोई काम नहीं हुआ और लोग उनके भजनानंदी बने हुए हैं. (विनोद वर्मा से बातचीत पर आधारित) |
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