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'जो मैंने जिया वही मैंने लिखा' | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीबीसी हिंदी.कॉम ने उन महिलाओं से बातचीत का एक सिलसिला शुरु किया है जिन्होंने किसी क्षेत्र में अपनी पहचान क़ायम की है. इस श्रृंखला में हम उनके जीवन-संघर्ष की गाथा उन्ही की ज़ुबानी पेश कर रहे हैं. इस कड़ी में दूसरे व्यक्तित्व के रुप में लेखिका कृष्णा सोबती ने अपने जीवन-संघर्ष की गाथा सूफ़िया शानी से कुछ इस तरह बयान की: मैं एक पुरानी जन्म तारीख़ हूँ. जिस माहौल में मैंने होश सँभाला वो पाबंदियों से रचा-बसा था. आज़ादी पूरी थी लेकिन पाबंदियों के दायरे में. रात नौ बजे हम बच्चे अपने बिस्तरों पर होते थे. कमरे की बत्ती गुल और दूसरे कमरे से पिता ज़ोर-ज़ोर से कोई किताब पढ़ कर हमें सुना रहे होते थे. रात के अंधेरे में शब्दों का प्रभाव तिलिस्म की तरह होता था. फिर पता नहीं कब शब्दों की बाँह पकड़कर मैं रचना-संचार में दाख़िल हो गई. और जब मेरी पहली रचना आई तो न मुझे अचंभा हुआ और न ही घर में किसी को अचरज. सब कुछ सहज और सरल. मेरी पहली कहानी ‘लामा’ सन 1950 में छपी थी. दरअसल घर में लिखने की ट्रेनिंग मिल गई थी. हमसे कहा जाता था कि अपनी बीमारी के बारे में ठीक-ठीक लिख कर दो. यानी हम बीमारी को बढ़ा-चढ़ा कर लिखें तो दवा भी ज्यादा पीनी पड़े और बीमारी के बारे में ग़लत लिखें तो दवा भी ग़लत मिले. इस तरह लिखने के साथ व्यवहार में संतुलन रखने की भी आदत पड़ गई. मैं उस सदी की पैदावार हूँ जिसने बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ छीन लिया. यानी एक थी आज़ादी और एक था विभाजन. मेरा मानना है कि लेखक सिर्फ़ अपनी लड़ाई नहीं लड़ता और न ही सिर्फ़ अपने दुःख-दर्द और ख़ुशी का लेखा जोखा पेश करता है. लेखक को उगना होता है भिड़ना होता है हर मौसम और हर दौर से. नज़दीक और दूर होते रिश्तों के साथ, रिश्तों के गुणा और भाग के साथ. इतिहास के फ़ैसलों और फ़ासलों के साथ. मेरे आसपास की आबोहवा ने मेरे रचना संसार और उसकी भाषा को तय किया. जो मैने देखा जो मैने जिया वही मैंने लिखा. “ज़िंदगीनामा”, “दिलोदानिश”, “मित्रो मरजानी”, “समय सरगम”, “यारों के यार”. सभी कृतियों के रंग अलग हैं. कहीं दोहराव नहीं. “हम हशमत” में अपने समय के लेखकों के शब्द चित्र खींचने की कोशिश की हर मुमकिन बेबाकी के साथ. बिना ये सोचे कि वो पढ़ेंगे तो क्या कहेंगे. सोचती हूँ कि क्या मैंने कोई लड़ाई लड़ी है? तो पाती हूँ लड़ी भी और नहीं भी. लेखकों की दुनिया भी पुरूषों की दुनिया है. लेकिन जब मैंने लिखना शुरू किया तो छपा भी और पढ़ा भी गया. ये लड़ाई तो मैंने बिना लड़े ही जीत ली. कोई आंदोलन नहीं चलाया लेकिन संघर्षों की, संबंधों की, ख़ामोश भावनाओं की राख में दबी चिंगारियों को उभारा उन्हें हवा दी, ज़ुँबा दी. मेरे पसंदीदा पात्र “रज्जू” “मासूमा” और “बदरू” हैं, क्योंकि ये मुझे सभी ज़िंदगी के काफ़ी क़रीब लगते हैं. मेरी कोशिश रही है कि मेरे पात्र इंसानियत और प्रकृति के क़रीब रहें. मैने लेखन और लेखकों के बारे में अपने मशहूर किरदार हशमत के ज़रिए कहलवाया है. “दोस्तों ! हर लेखक है अपने किए लेखक है. वो अपने चाहने से लेखक है. अगर वो संघर्ष में जूझता है, हालात से टक्कर लेता है तो एहसान किसी दूसरे पर नहीं सिर्फ़ उसकी कलम पर है. कोई भी अच्छी कलम मूल्यों के लिए लिखती है. मूल्यों के दावेदार के लिए नहीं लिखती. अगर ऐसा नहीं तो लेखक और कलाकार शामियानों और विज्ञान भवनों की शोभा बन कर रह जाएँगे.” परिचय जन्म- 18 फरवरी, 1925, पंजाब के शहर गुजरात में (अब पाकिस्तान में) |
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