|
घर के माहौल ने मुझे विद्रोही बनाया: चित्रा मुदगल | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
हम उन महिलाओं से बातचीत का एक सिलसिला शुरु कर रहे हैं जिन्होंने किसी न किसी क्षेत्र में नाम कमाया है. इस श्रृंखला में हम उनके जीवन-संघर्ष की गाथा उन्ही की ज़ुबानी पेश करेंगे. इस कड़ी में पहले व्यक्तित्व के रुप में लेखिका चित्रा मुदगल ने अपने जीवन-संघर्ष की गाथा सूफ़िया शानी से कुछ इस तरह बयान की : विद्रोह, संघर्ष और कायरता, मनुष्य को ये चीज़ें घर के वातावरण से ही मिलती हैं. मुझे भी घर के माहौल ने ही विद्रोही बनाया. मैंने ज़मींदारी के माहौल में आँखे खोली थीं. जहाँ पुरूष यानी पिता की सत्ता थी. घर के सारे लोग पिता के इशारे पर हरकत करते थे. यानी पिता के आदर्श, पिता की पसंद और पिता की ही नापसंद. अपनी पसंद से हम कुछ कर ही नहीं पाते थे. विरोध करने की किसी की हिम्मत ही नहीं थी. मैंने देखा कि मेरी माँ पर हर चीज़ थोपी जाती थी. पिता को खाना पसंद नहीं आता था तो थाली को खिड़की के बाहर फेंक देते थे. फिर भाई-बहनों में भेदभाव किया गया. भाई अँग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेजे गए. हम बहनों को मामूली से स्कूल में प्रवेश मिला. मुझे याद है एक बार स्कूल में, मुझसे जीवन की किसी घटना पर कहानी लिखने को कहा गया. मेरे मन में कई घटनाएँ घुमड़ रही थीं, समझ में नहीं आ रहा था कि किसको छोड़ूँ, किसको पकड़ूँ. अंत में मैंने स्त्री-पुरूष संबंधों पर कहानी लिखी जो 25 अक्टूबर, 1955 को नवभारत टाइम्स में छपी. उस कहानी को पढ़कर पिताजी ने माँ से कहा था, "इस बेवकूफ़ से कहो कि ऐसी कहानी न लिखे, फिर लिखने की ज़रूरत ही क्या है." घर के इसी माहौल ने मुझे विद्रोही बनाया और रचना संस्कार का रास्ता दिखाया. शादी मैंने तभी निर्णय कर लिया था कि मैं ऐसे व्यक्ति से शादी करूँगी जो मुझे समझे और मेरा साथ दे. और मैंने अपने पसंद के व्यक्ति से शादी की. घर के, पीड़ा और तनाव के माहौल ने ही मुझे औरतों के दर्द को शब्दों के ज़रिए उकेरने के लिए प्रेरित किया. मेरी कहानियों और उपन्यासों के ज़्यादातर पात्र महिलाएँ ही हैं जो विभिन्न वातावरण में अलग-अलग मुद्दों से जूझ रही होती हैं. मुझे अपना उपन्यास "आवाँ" बहुत पसंद है, उसी उपन्यास को व्यास सम्मान मिला. वैसे मैंने अनगिनत महिलाओं के चरित्र रचे हैं, लेकिन "आवाँ" की "नमीता" का चरित्र मुझे अपने दिल के बेहद क़रीब लगता है. "नमीता" मुझे संघर्ष की प्रतिमूर्ति लगती है. जब लिखना शुरू किया तब पहले दिन से मैं जानती थी कि लिखना आसान काम नहीं है, शायद फावड़ा चलाने जैसा कठिन काम, आसान होगा. लेकिन लोगों के अंतर्मन को टटोलना और शब्दों के माध्यम से उन्हें अपने भीतर जीना अगर मुश्किल नहीं है तो आसान भी नहीं है. लेकिन ये रास्ता मैंने ख़ुद चुना है क्योंकि ये भी एक संघर्ष है और मेरा जीवन शुरू से संघर्षमय रहा है. संघर्ष और चुनौतियाँ किसके जीवन में नहीं होती? मैं भी संघर्षों और चुनौतियों के बीच जीती हूँ. मेरा मानना है कि इन्हीं की वजह से जीवन और रचनात्मकता में निरंतरता बनी रहती है. परिचय 10 दिसंबर, 1944 को तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में जन्मीं और मुम्बई में शिक्षित चित्रा मुदगल के तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास और तीन बाल उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. चित्रा मुदगल समाज सेवा के क्षेत्र में भी सक्रिय रही हैं. वह मुम्बई और दिल्ली की कई स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर घरों में काम करनेवाली ग़रीब महिलाओं के उत्थान के लिए सक्रिय रहती हैं. उनको कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं. उन्हें अपने उपन्यास "आवाँ" के लिए "व्यास सम्मान" भी मिल चुका है. अन्य कई संस्थाओँ में सक्रिय चित्रा आजकल प्रसार भारती बोर्ड की सदस्य भी हैं. |
| ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||