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बुधवार, 06 जुलाई, 2005 को 17:43 GMT तक के समाचार
 
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'हँसी और मस्ती खो रहा है बनारस'
 

 
 
काशीनाथ सिंह
काशीनाथ सिंह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे हैं.
साहित्यकार काशीनाथ सिंह का मानना है कि बनारस अब अपनी स्वच्छंदता और मस्ती को खोता जा रहा है. वो बताते हैं कि इसकी वजह बाज़ारवाद है और इसके प्रभाव में एक शहर मर रहा है और नया शहर सामने आ रहा है.

काशीनाथ सिंह यूँ तो एक साहित्यिक परिवार से हैं और हिंदी की अपनी तमाम रचनाओं के लिए पाठकों के बीच चर्चित रहे हैं पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे काशीनाथ सबसे ज़्यादा जाने जाते हैं अपने प्रसिद्ध उपन्यास 'काशी का अस्सी' के लिए.

हिंदी साहित्य, बनारस की जीवंतता और विविधता पर अपनी ख़ास समझ रखनेवाले इस साहित्यकार से पिछले दिनों बनारस में ही भेंट हुई तो कुछ चर्चा भी चल निकली.

आइए पढ़ते हैं कुछ अंश-

बनारस के लोगों और उनके जिस चरित्र और स्वच्छंदता की चर्चा आपने अपने चर्चित उपन्यास, काशी का अस्सी में की है, उस स्वच्छंदावाद को आज कहाँ पा रहे हैं.

जब ‘काशी का अस्सी’ लिखा था तो दो राजनीतिक घटनाएं हुई थीं. एक तो मंडल आयोग लागू हुआ था और दूसरा उसके एक साल बाद बाबरी मस्जिद का विध्वंस. मेरी नज़र इस बात पर थी कि बनारस के जनजीवन को ये घटनाएं किस तरह से प्रभावित कर रही थीं.

मैंने पाया कि लोगों के सामने समस्याएं विकट थीं पर बनारस की मस्ती पर इन घटनाओं का कोई फ़र्क नहीं पड़ा था. अधिकांश लोग मंडल आयोग के समर्थक थे और बाबरी विध्वंस के विरोधी.

हां, एक परिवर्तन हुआ और वो हुआ बड़े पैमाने पर विदेशियों के आगमन के चलते. 90 के बाद कोई सितार, तबला तो कोई संस्कृत सीखने यहाँ आ रहे थे और इसका पहला असर यह हुआ कि घाटों के तमाम घर लॉजों में बदलने लगे. सारी चीज़ें जिस दिशा में जाती हुई दिखाई दीं, उसके केंद्र में बाज़ारवाद था.

इस बाज़ारवाद ने बनारस के जीवन को धीरे-धीरे अपनी गिरफ़्त में लेना शुरू किया और यह पाया जाने लगा कि हर आदमी धीरे-धीरे परेशान होने लगा. परिवर्तन सीधे-सीधे इस नगर में दिखाई देने लगा और मैंने इसी बात की ओर ‘काशी का अस्सी’ में संकेत दिया है कि वो हँसी इस शहर से धीरे-धीरे जा रही है.

पर बनारस ने विदेशियों को तो हमेशा ही आकर्षित किया है. दो-तीन दशकों पहले भी तमाम विदेशी पर्यटक आए. हिप्पी कल्चर के चलते भी कई लोग आए. ये असर तब क्यों नहीं पड़ा.

60 के दशक में गिल्सबर्ग आया था अपने कुछ दोस्तों के साथ. वो यहाँ के लेखकों से मिलते थे और या फिर भिखमंगों और जादू दिखानेवालों में उनकी दिलचस्पी होती थी. और भी लोग आए पर अब तो विदेशी बहुत बड़ी तादाद में आते हैं. वो यहाँ विश्वविद्यालय में दाखिला लेते हैं और फिर साल-दो साल के समय में यहाँ के जीवन का अध्ययन करते हैं.

80 के दशक में ध्रुपद मेले से यहाँ संगीत समारोहों का आयोजन बढ़ा और उसने भी इन्हें बड़ी तादाद में इस नगर की ओर आकर्षित किया.

लंबे समय तक यहाँ के पाँच सितारा होटलों में रहने के बजाय वे घाटों पर बने लॉजों और होटलों में रहना पसंद करते हैं क्योंकि यहाँ का मुख्य आकर्षण गंगा और उसके घाट हैं.

पिछले कुछ सालों में जिन एक-दो कमरों का किराया आसपास के ज़िलों से आए लोग महीने में तीन सौ रूपए तक देते थे, उसी के लिए विदेशियों ने पाँच सौ रूपए प्रतिदिन की दर से देना शुरू कर दिया. विदेशियों की सुविधा को देखते हुए घरों के मंदिर शौचालयों में बदलने लगे.

पर क्या ख़त्म होता स्वच्छंदावाद केवल बनारस के लिए ही चिंता का विषय है या फिर बनारस के बाहर, अन्य देशों और शहरों में भी ऐसा परिवर्तन हो रहा है. अगर हाँ तो आप इसे आप किस रूप में देख रहे हैं.

ये नगर मर रहा है और इसकी जगह पर एक दूसरा नगर पैदा हो रहा है. मैं समझता हूँ कि ऐसा केवल यहाँ ही नहीं है. बाकी महानगरों में भी ऐसा ही होता होगा.

मैंने बनारस में एक घर बनवाया है, आप दिल्ली में हैं. पता नहीं आपको ऐसा लगता है या नहीं पर मुझे कभी कभी लगता है कि मैं एक विस्थापित हूँ. मैंने अपना गाँव 50 साल पहले छोड़ा था. इस कॉलोनी में जितने लोग रहते हैं, उनके अपने-अपने गांव हैं. आज सबसे उनके गाँव छूट गए हैं. लोगों को यह नही मालूम कि जहाँ वो आकर बसे हैं, वहाँ कौन सा गाँव होता था.

लोग अपनी जड़ों की बातें तो ख़ूब करते हैं पर सबने स्वेच्छा और सुविधा के साथ अपनी जड़ें छोड़ी हैं. जो थोड़ा बहुत बचा है, वो इन जड़ों का संस्कार है. आनेवाली पीढ़ी को इससे कोई मतलब नहीं है.

हिंदी में आज का जो लेखन है, उसकी जड़ों को आप कहाँ पाते हैं, कहाँ हैं आज वो जड़ें, वो क्या खा रही हैं और उनपर क्या फल रहा है.

साहित्य में पढ़नेवालों का विस्तार हुआ है और लिखनेवालों का भी. इसके क्षेत्र भी काफ़ी विकसित हुए हैं. आज वे भी लिख रहे हैं जिनके बारे में हम लिखा करते थे या जो पढ़ना-लिखना नहीं जानते थे. एक खुलापन तो आया है.

ज़्यादातर लिखनेवाले सवर्ण होते थे लेकिन जिन्हें हम दलित या स्त्रियाँ या आदिवासी कहते हैं, आज उनमें भी लिखनेवालों की तादाद बढ़ रही है. ये लोग अपने जीवन के बीच से विषयों को उठा रहे हैं और लिख रहे हैं.

जड़ों से कटे हुए तमाम लोग भी हैं जो महानगरों में बैठकर लिख रहे हैं. जो एअरकंडीशनर में रह रहे हैं, अपने ड्राइंगरूम में बैठकर किताबें पढ़ते हैं, चिंतन करते हैं और तफ़रीहन अपने लेखन की लोकेशन देख आते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं. उनके पास सधी हुई ज़बान और भाषा है और वो लिख रहे हैं.

जिनके पास ताज़गी है, उनसे आशाएं की जा सकती हैं और मुझे संभावनाएं अनंत दिखाई दे रही हैं. जहाँ तक पाठकों का सवाल है, लोग रोना रोते हैं कि पाठक नहीं हैं पर जिन लोगों के पाठक कम हैं, उसके लिए दोषी केवल प्रकाशन नहीं हैं, वे ख़ुद भी हैं.

अंग्रेज़ी में लिखनेवालों को विदेशों में प्रकाशकों से अच्छा पैसा मिल रहा है पर क्या हिंदी के लेखकों को उतना मिल रहा है, जितना उन्हें मिलना चाहिए.

इस बात को कुछ इस तरह देखना चाहिए कि अचानक विश्वसुंदरियों के समारोहों के आयोजकों को भारत या अन्य अल्पविकसित या अर्धविकसित देशों में सुंदरता क्यों नज़र आने लगी है.

ये बाज़ारवाद के प्रभाव के चलते है. जिस दिन हमारे लिए बाज़ार महत्वपूर्ण होगा, शायद हमारे लेखन का तेवर बदल जाए.हम अपनी परंपरा की रौशनी में लिखते हैं और कलम उठाते हैं तो यह ध्यान रहता है कि सतुआ खाकर लिखनेवाले नागार्जुन और त्रिलोचन जैसे लोग हमारे पुरखे रहे हैं.

हमें मालूम है कि प्रकाशक हमारे लेखन के लिए सही अर्थों में कुछ नहीं देता लेकिन लिखने को हम एक दायित्व समझकर लिखते हैं.

पर यह दायित्वबोध कितने लेखकों में देखने को मिल रहा है.

देखिए, हिंदी का पाठक, निम्न-मध्यमवर्ग का है. तमाम लिखनेवाले इसे ध्यान नहीं रखते और अपना पाठकवर्ग लिखनेवाले के दिमाग में बहुत कम होता है. इसे ध्यान में रखकर लिखनेवाले आज कम हैं.

ऐसा लिखनेवालों में एक नाम हरिशंकर परसाई का है. इनके पाठकों की तादाद बहुत ज़्यादा थी. वो दो-दो पेज के अद्भुत व्यंग लिखते थे. सवाल तो हैं पर मैं निराश नहीं हूँ.

हिंदी साहित्य में आजकल विषयों का चयन और आलोचना, दोनों को आप कहाँ पा रहे हैं.

पहले तो नहीं पर अब विषयों के चयन पर ख़ासा ध्यान दिया जा रहा है. उन विषयों पर लिखा जा रहा है जो छूटे-छिटके हैं और जिनपर पहले बहुत ध्यान नहीं दिया गया है.

जहाँ तक आलोचना का सवाल है, जो स्थिति मैं देख रहा हूँ उसके हिसाब से शायद नामवर सिंह आलोचना के आख़िरी आचार्य हैं. इसके बाद आलोचक हैं पर आलोचना सर्वमान्य नहीं रही जो हजारी प्रसाद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे आलोचकों ने दी थी.

आज आलोचना का मतलब पुस्तक समीक्षा है. इनकी भाषा एक जैसी है. कहानी की किताब का शीर्षक हटा दें तो दो किताबों के लिए समझना मुश्किल हो जाता है कि कहना क्या चाहते हैं.

संतोष बस यह सोचकर होता है कि छायावाद में निराला, पंत, प्रसाद, महादेवी जैसे लोग लिख रहे थे. उस समय भी आलोचना छायावाद से पीछे थी. आलोचना, रचना के पीछे ही चलती है.

मैं आलोचना के विकास से संतुष्ट नहीं हूँ पर रचनाओं के विकास से संतुष्ट हूँ.

 
 
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