किसान आंदोलन: 'जब तक दम है, लड़ेंगे, मारे जाएंगे या जीत जाएंगे' -जोगिंदर सिंह उगराहां

    • Author, अरविंद छाबड़ा
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे किसान संगठनों और केंद्र के बीच आठ दौर की अब तक बातचीत हो चुकी है.

लेकिन अभी तक कोई ठोस नतीजा निकलता हुआ नहीं दिख रहा है.

शुक्रवार को हुई बैठक में बातचीत की अगली तारीख़ 15 जनवरी को तय हुई है.

हालांकि किसान संगठनों को इस बातचीत से कोई नतीजा निकलने की उम्मीद नहीं है.

बीबीसी ने 'भारतीय किसान यूनियन उगराहां' के प्रमुख जोगिंदर सिंह उगराहां से एक लाइव प्रोग्राम में किसानों की रणनीति को लेकर कई सवाल पूछे जिनका उन्होंने खुलकर जवाब दिया.

सवाल: आठ दौर की बातचीत हो चुकी है. क्या नतजा निकलते हुए देख रहे हैं?

जवाब: नतीजा तो नहीं निकला है लेकिन सरकार को ये तो बोलना पड़ गया कि इन क़ानूनों में कुछ न कुछ ग़लती तो हुई है. क़ानूनों में शोध करानी है, जितनी मर्ज़ी शोध करा लो.

सवाल: तो क्या किसान संगठन क़ानून में संशोधन पर बात मानने के लिए तैयार हैं?

जवाब: ये हमारी मांग ही नहीं है. जो नुक़्स चीज़ है, उसे ग्राहक क्यों खरीदेगा? आपकी चीज़ में नुक़्स है, आपने नुक़्स वाली चीज़ बनाई है. उसकी जिम्मेवारी आपकी है. इसे आप अपने पास रखें. हमें ये क़ानून नहीं चाहिए.

सवाल: सरकार अगर क़ानून में कमियों को दूर करने के तैयार है तो इसमें क्या दिक्कत है?

जवाब: आप ले लेंगे? आप दुकान में जाने पर क्या कट लगा हुआ सामान ले लेंगे? हम क्यों लेंगे नुक़्स वाली चीज़."

सवाल: सरकार ये कह रही है कि ये क़ानून किसानों की भलाई के लिए है. आप उनकी बात मानकर देंखें. सरकार इस तरह की बातें कह रही हैं.

जवाब: हमें इतना भी नहीं पता है कि किस बात में हमारी भलाई है और किस बात में हमारी बुराई? हम इतना तो जानते होंगे. हम अगर फसलों को उगा सकते हैं और जब हमें ये पता लग जाता है कि ये बीज पांच दिन में उगेगा और छह महीने में पकेगा और पंद्रह दिन बाद काटा जाएगा. जब हमें इतनी नॉलेज है तो क्या हमें इतना भी दिमाग नहीं है कि हमारे लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या है?

सवाल: सरकार ये कह रही है कि किसानों को बहलाया-फुसलाया गया है. किसान समझ नहीं पा रहे हैं, ये बहुत बढ़िया क़ानून है. उनका ये भी कहना है कि बहुत सारे लोग और किसान इन क़ानूनों का समर्थन कर रहे हैं.

जवाब: सरकार ने ये बात हरित क्रांति के समय भी कही थी. उस समय हम आधी ज़मीन में खेती करते थे. जब हम सारी ज़मीन पर खेती करने लगे तो सरकार उस समय कहती थी कि आप मालामाल हो जाएंगे. अनाज पैदा हो गया, गोदाम भर गए तो सिर पर कर्जे का पहाड़ खड़ा हो गया. किसान खुदकुशियां करने लगे. पानी ख़त्म हो गया. बीमारियां बढ़ गईं. पानी गंदा हो गया. हवा गंदी हो गई. क्या फ़ायदा हुआ हमारी हरित क्रांति का. सरकार उसे भी तो डेवलपमेंट कहती थी. ऐसी तरक्की हमें नहीं चाहिए.

सवाल: लेकिन इससे क्या होगा? आप किसानों के इतने बड़े नेता हैं. हज़ारों की संख्या में किसान आपके साथ खड़े हैं. कब तक ऐसा ही चलता रहेगा, कृषि क़ानून का विरोध कर रहे किसान कब तक दिल्ली बोर्डर पर बैठे रहेंगे?

जवाब: अगर डेढ़ महीने के धरने में लोग बढ़ रहे हैं तो कोई बात तो उन्हें अच्छी लगती होगी. तभी तो ये लोग हमारे पास आ रहे हैं. अगर इन्हें हमारे पर विश्वास है तभी तो ये लोग आते हैं. हिंदुस्तान में दो सौ राजनीतिक पार्टियां हैं. कोई पांच दिन सड़क पर बैठकर दिखाए.

सरकार और वे संगठन जो ये कहते हैं कि ये क़ानून अच्छे हैं तो वे लोग पांच दिनों तक कोई धरना लगाकर दिखाएं तो सही. चार तारीख को रात में बारिश हुई थी. कितने लोगों का सामान भीग गया. कपड़े भीग गए, राशन भीग गया. एक बुजुर्ग थर-थर कांप रहा था. नौजवानों ने रात को उसके कपड़े बदले. उसको आग में सेंकाया. खुद गीले रहे, उस बुजुर्ग को सूखे जगह पर रखा. कितने टेंट फट गए. रात कैसे कटी है, पता है? 70 बंदे इस आंदोलन में शहीद हो गए.

सवाल: आप बता रहे हैं कि 70 बंदों की जान जा चुकी है. ऐसे कब तक चलता रहेगा? क्यों अब ठंड तो बढ़ रही है.

जवाब: लड़ने वाले जब तक दम होता है, तब तक लड़ते हैं. लड़ते-लड़ते मारे जाएंगे या जीत जाएंगे.

सवाल: अभी क्या लग रहा है? क्या जीतने का कोई चांस है? नौवीं मीटिंग होने वाली है.

जवाब: हमारे पास हारने के लिए तो कुछ है ही नहीं. हम तो जितना लड़ेंगे, उतना जीतेंगे.

सवाल: अब क्या होगा? क्या 15 जनवरी को होने वाली बातचीत में आप हिस्सा लेंगे?

जवाब: देखेंगे कि अब क्या होता है. हम लोग मीटिंग में जाएंगे और खाली वापस लौट कर भी आएंगे. हमें पहले से ही पता है कि कुछ नहीं होने वाला है."

सवाल: फिर क्यों जा रहे हैं? जब सरकार पर भरोसे की इतनी कमी है तो...

जवाब: जाना तो पड़ेगा. हम नहीं जाएंगे तो फिर सवाल उठेगा कि आप क्यों नहीं गए. यही बात भगत सिंह से पूछा गया था कि जब आप इन अदालतों पर भरोसा नहीं करते हैं तो क्यों इसकी कार्रवाई में हिस्सा ले रहे हैं. तो भगत सिंह ने कहा था कि अदालत के बारे में तो हमें पता है. हम अदालत की पेशी के लिए नहीं आते हैं.

हम लोगों को अपनी बात बताने के लिए आते हैं. हमें मालूम है कि 15 तारीख को कोई नतीजा नहीं निकलेगा. हम तो इस सरकार का पर्दाफाश करने के लिए जाते हैं कि बार-बार बुलाती है लेकिन करती कुछ नहीं है. किसान वापस लौटते हैं तो ये बात अंतरराष्ट्रीय मीडिया तक जाती है. किसान पिछले डेढ़ महीने से सड़कों पर बैठे हैं.

70 किसान शहीद हो गए. हर बात मीडिया तक जाती है. अगर सरकार बातचीत के लिए बुलाती है और देती कुछ नहीं है तो इसमें सरकार की बदनामी है या हमारी बदनामी?

सवाल: सरकार तो ये कह रही है कि किसान संगठन ज़िद पर अड़े हुए हैं.

जवाब: क्या है हमारी ज़िद. आप बताइए. जब हम कह रहे हैं कि ये क़ानून हमारे काम की चीज़ नहीं है तो क्यों इसे क्यों हम पर थोपा जा रहा है. जिस क़ानून की हमें ज़रूरत ही नहीं है, वो हम पर थोपा जा रहा है. हमें सरकार पर भरोसा नहीं है. सरकार हमारी नहीं है, वो बड़े-बड़े लोगों की सरकार है."

सवाल: ऐसे आरोप लग रहे हैं कि लेफ़्ट के नेता किसानों को प्रभावित कर रहे हैं?

जवाब: लेफ़्ट क्या है? कौन सा लेफ़्ट है और कौन सा राइट. ये हमें नहीं मालूम. हम तो किसान हैं. ये सरकार को पता होगा. कभी वे हमें खलिस्तानी बता देते हैं. कभी हमें नक्सली कह दिया जाता है तो कभी लेफ्ट करार दे दिया जाता है. कभी किसानों को पाकिस्तान का एजेंट कह दिया जाता है तो कभी चीन का एजेंट कहा जाता है. कभी दलाल बोला जाता है, कभी बिचौलिया कहा जाता है. ये क्या है?"

सवाल: क्या इससे किसानों को मनोबल पर असर पड़ता है?

जवाब: अगर किसान खलिस्तानी होते तो यहां हरियाणा के किसान क्यों आते. राजस्थान का किसान यहां किसलिए आता है.

सवाल: 15 जनवरी की मीटिंग के लिए क्या रणनीति है?

जवाब: सरकार आंदोलन को नाकाम करना चाहती है. सरकार लोगों को ये बताना चाहती है कि वे कुछ देने वाली नहीं है. सरकार ये बताना चाहती है कि उसका फ़ैसला ही अंतिम है. लोकतंत्र में यही सिस्टम चल रहा है कि मोदी है तो मुमकिन है. हम यही भरम तोड़ना चाहते हैं कि मोदी है तो मुमकिन नहीं है.

(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूबपर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)