किसान आंदोलन: 'भगत सिंह की याद में पीले कपड़े' पहन कर आईं ये औरतें

    • Author, चिंकी सिन्हा
    • पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए

वे एक बार फिर वहां डट गई थीं. वहीं बीच रास्ते में. रोहतक फ्लाईओवर पर उनका जत्था आकर रुका था. यह बठिंडा से आया हुआ महिलाओं का एक हुजूम था, जो ट्रैक्टर ट्रॉली पर बैठ कर सरकार के कृषि क़ानूनों का विरोध करने चला आया था. इन महिलाओं के लिए ये काले क़ानून हैं. और ये महिलाएं 'दिल्ली चलो' का नारा सुन कर इन कानूनों पर विरोध दर्ज कराने निकल आई थीं.

रोहतक फ्लाईओवर पर सरकार के ख़िलाफ़ आ बैठे इस हुजूम में नौ महिलाएं थीं. इनमें सबसे उम्रदराज 72 साल की थीं और सबसे छोटी 20 साल की. एक छोटा बच्चा भी था.

ये लोग बठिंडा के चक राम सिंह वाला से थे. दो पुराने दल के ही थे. अन्य, तीन उन लोगों की जगह लेने आई थीं, जो अब लौट चुकी हैं. 28 दिसंबर को गांव से और महिलाएं यहां आएंगीं. इसी तरह से बारी-बारी से वे यहां आ कर धरने पर बैठ रही हैं. इन लोगों ने इसी तरह से प्रदर्शन में शामिल होने की योजना बनाई है.

यहां आने के लिए ट्रैक्टर पर सहारा लेना पड़ा. पहले टिकरी बॉर्डर पार किया. फिर ट्रैक्टर, ट्रॉलियों और ट्रकों से होकर चलती रही. दो किसानों ने अपने ट्रैक्टर पर बिठा लिया. रोहतक फ्लाईओवर के खत्म होते ही एक युवा किसान ने पीला कपड़ा लहराया. यह रुकने का संकेत था.

हमने पूछा, महिलाएं कहां हैं? उसने कहा, वहां बैठी हैं? ये नौ महिलाएं, कृषि क़ानूनों का विरोध कर रही हज़ारों प्रदर्शनकारियों का हिस्सा थीं.

पीले कपड़े में विरोध-प्रदर्शन

मजबूत कद-काठी की 48 साल की सुखजीत कौर. चेहरा धूप में तपा हुआ. आंखें गहरीं धंसी हुईं. उन्होंने एक स्टोव की ओर इशारा किया. वहां कुछ बर्तन पड़े हुए थे. ट्रॉली के किनारे-किनारे लकड़ियों के गट्ठर करीने से लगा कर रखे गए थे. वह काफी दिनों से यहां जमी हुई हैं.

सुखजीत कहती हैं, ''हरियाणा में हमारा सामना इन बैरिकेड्स से हुआ था. उन्होंने हम पर पानी की बौछार की थी. हमें यहां प्रदर्शन करते हुए 90 दिन हो गए."

यह जगह मानों अब उनके लिए घर हो गई है.

ये नौ महिलाएं यहां 26 नवंबर से ही धरने पर बैठी हुई हैं. वे अपने गांव वालों के साथ यहां आई थीं. इनमें से कुछ अपने पतियों के साथ आई थीं. यहां वे उनके साथ नहीं अलग-अलग ट्रॉलियों में रह रही हैं. विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने का यह उनका अपना तरीका है.

गांव में सुखजीत कौर के पास दस एकड़ जमीन थी. उनके बेटे और बहू ही खेतों को देखते हैं. वह केंद्र के कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रही 25 हज़ार महिलाओं में शामिल हैं. ये महिलाएं भारतीय किसान यूनियन (एकता उगराहां) से जुड़ी हैं.

सुखजीत कहती हैं, "हम भगत सिंह की याद में पीले कपड़े पहनते हैं. मैं 20 साल पहले यूनियन से जुड़ी थी."

वहां तीन बुजुर्ग महिलाएं भी थीं. वे लोहे की सीढ़ियों पर धीरे-धीरे चढ़ते हुए ट्रॉलियों में घुस गईं. युवा महिलाओं ने उनका हाथ थाम रखा था.

ट्रॉलियां पीले तिरपाल से ढकी थीं ताकि कड़कड़ाती ठंड से बचा जा सके. ट्रॉलियों के अंदर कंबल तह कर एक ओर रखे हुए थे. अंदर बांस का एक छोटा खंभा था, जिससे बल्ब लटका दिया गया था. एक और बांस के खंभे पर कपड़े लटके हुए थे. दूसरी ओर एक छोटी तख्ती थी और इस पर थे शैंपू के पाउच, डिटर्जेंट और कुछ दूसरे सामान. एक छोटा सा आईना भी था. गद्दे भी थे. एक पर चेक कवर था और दूसरे कवर पर फूल-पत्तियां बनी थीं. दोनों साफ किए जा चुके थे. ट्रॉली के नजदीक ही उन्होंने सांझा चूल्हा बना रखा था. जगह को साफ-सुथरा रखने के लिए बरतन ट्रॉलियों के नीचे सरका दिए गए थे.

'ज़िंदा कैसे रहेंगें'

जसवीर कौर 70 साल की हैं. वहां बैठी महिलाओं सबसे गठीली लग रही हैं. चेहरा भरा हुआ. ट्रॉली में बैठी 70 साल की चार महिलाओं में वह भी शामिल थीं.

उन्होंने कहा, " हमने आंदोलन का साथ देने के लिए यहां आने का फैसला किया. हम किसान हैं."

2006 में एक आंदोलन में शरीक होने की वजह से वह जेल में रह चुकी हैं. गांव की महिलाएं उनके साहस का सम्मान करती हैं. ठंड हो या बैरिकेड या वाटर कैनन से पड़ने वाली पानी की बौछारें, कुछ भी उन्हें डरा नहीं सकती.

वह कहती हैं, ' वे हमें हल्के में ले रहे हैं".

महिलाओं के इस पूरे दल का दसवां सदस्य एक छोटा लड़का था. वह अपनी मां के साथ यहां आया था. लड़के ने बताया कि अपने स्कूल का काम उसने यहीं बैठ कर किया. बच्चे ने कहा, "खेत तो हमारी विरासत हैं. अगर उन्होंने हमारे खेत ही ले लिए तो हम खाएंगे क्या. ज़िंदा कैसे रहेंगे".

बेटियों को ज़मीन में हिस्सा

इन महिलाओं में शामिल 20 साल की अमनप्रीत ने कहा कि उन्होंने एमए किया हुआ है. लेकिन अब तक नौकरी नहीं लगी है. वह अपने भाई के साथ टिकरी बॉर्डर तक आईं. अमनप्रीत ने कहा, पहले उन्होंने एमए किया और फिर बीएड. लेकिन नौकरी नहीं मिली.

वह कहती हैं, "उन्होंने तीन कानून बनाए हैं लेकिन वे हमारे लिए ठीक नहीं है. अगर हमारे पास अपनी जमीन ही नहीं होगी तो हम क्या करेंगे."

अमनप्रीत ने बताया कि उनकी गांव में बेटियों को भी ज़मीन में हिस्सा मिलता है. अब ज़माना भी बदल गया है. औरतें अब पर्दा नहीं करतीं.

अमनप्रीत ने लाल नेल पॉलिश लगाया हुआ था. पीले रंग की चुन्नी ओढ़ रखी थी. अमनप्रीत के माता-पिता ने उन्हें यहां भेजा है. उन्होंने कहा कि वह यहां छह महीने तक रहने के लिए तैयार होकर आई हैं. प्रदर्शन में शामिल इन महिलाओं में कुछ आपसे में दूर की रिश्तेदार थीं तो कुछ सहेलियां.

पंजाब के किसानों ने दिल्ली चलो अभियान के तहत खुद को गोलबंद कर लिया है और वे अब राजधानी की ओर लगातार कूच कर रहे हैं. उनके साथ महिलाओं के दल में बुजुर्ग महिलाएं भी हैं. वे केयरटेकर की भूमिका भी निभा रही हैं और यह भी सुनिश्चित कर रही हैं कि सब कुछ शांतिपूर्वक चले.

सुखजीत कौर ने कहा कि गांव की कई महिलाएं किसान संगठनों की सदस्य हैं. ये महिलाएं पिछले कई महीनों से कृषि कानूनों का विरोध कर रही हैं.

पारंपरिक नारीवादी दृष्टिकोण से संघर्ष

विरोध प्रदर्शन में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी उनकी पहचान के दावों को बखूबी जता रही हैं लेकिन इसका संघर्ष पारंपरिक नारीवादी के उस दृष्टिकोण से भी हो रहा है, जिसके तहत महिलाओं की पहली और सबसे अहम पहचान एक महिला होने की है.

ये महिलाएं खुद को किसान कहती हैं और इसलिए अपनी पहचान कई मिलीजुली पहचान के तौर पर पेश करती हैं. इसमें वे किसान के रूप में भी मौजूद हैं. यूनियन के साथ भी उनका नाता है. वे अपने समुदाय और धर्म से भी जुड़ी हैं और अपनी जमीन की भी नुमाइंदगी कर रही हैं. इस तरह उनकी एक पहचान दूसरी को छू रही है और वो एक साथ कई मुद्दों की लड़ाई को मान्यता देने की अहमियत पर जोर डाल रही हैं.

देखा जाए तो पिछले साल हुए कई प्रदर्शनों में एक साफ पैटर्न दिखा है और वह यह कि ये कई मुददों को समेटे हुए थे. ये किसी एक मुद्दे पर किए जाने वाले प्रदर्शन से सीधे अलग थे.

महिलाओं के इस प्रदर्शन पर सुखजीत ने कहा, "लोग अब सजग हो गए हैं. अब महिलाएं पढ़ी-लिखी हैं और अपने अधिकार जानती हैं. हर महिला दूससे से प्रेरित है. हम ऐसे ही सीखते हैं."

अमनप्रीत को इस बात का एहसास जल्दी हो गया है. उनके लिए संघर्ष भी शिक्षा की तरह अहम है. वह जसबीर कौर की ओर इशारा करती हैं और कहती हैं उन्होंने उनसे से यह सब सीखा. पति के गुजर जाने के बाद जसबीर ने ही खेतों की देखरेख की.

जसबीर ने बताया, "मैं खेतों में पति के साथ ही काम करती थी. मैं घर देखती थी. खेतों में खाना पहुंचाती थी. बोआई और सिंचाई में मदद करती थी."

उन्होंने कहा कि औरतों का इन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ लड़ना जरूरी है क्योंकि बदलावों का असर उन पर सबसे ज्यादा पड़ेगा. उन्होंने कहा, "यह हमारी ज़मीन बचाने की लड़ाई है."

सिर्फ़ खेती का सहारा

कृषि क़ानूनों का विरोध करने के लिए कुछ महिलाएं तो प्रदर्शन स्थल पर डटी हुई हैं वहीं कुछ घरों में रुकी हुई हैं. वे अपने-अपने गांवो में इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ रैलियां कर रही हैं. लोगों को जागरूक कर रही हैं. राशन जमा कर प्रदर्शन स्थल पर भेज रही हैं.

इन नौ महिलाओं के दल के साथ 12 साल का जो लड़का आया था, उसका नाम था गुरजीत सिंह. वह पीले रंग का टी-शर्ट पहने था. उसके दाहिने ओर छाती पर यूनियन का बैज लगा था. उसने कहा, मैं किसान का बेटा हूं.

ट्रॉलियों में डेरा डाले ये महिलाओं बड़े जोत वाले घरों की नहीं थीं. इनमें से कुछ महिलाएं जैसे जसवीर कौर और 12 साल के बच्चे की मां अमनदीप कौर (35) के पति नहीं हैं.

अमनप्रीत कौर ने कहा कि उनके परिवार के पास सिर्फ तीन एकड़ जमीन है. अमनदीप कौर ने बताया कि उनके पास सिर्फ पांच एकड़ जमीन है. जब आंदोलन शुरू हुआ तो उनकी सास ने उन्हें इसमें शामिल होने को कहा. उन्होंने कहा, "अगर हम अमीर होते तो यहां आकर इस धरने में क्यों बैठते." उन्होंने कहा कि पति के गुजरने के बाद वही खेतों में काम कर रही हैं."

अमनदीप ने कहा, "ऐसा नहीं है कि खेती हमें राजा बना रही हो. इसमें तो हमें घाटा ही खाना पड़ता है. लेकिन यही एक चीज है जो हमारे पास है. और हम इसे बचाने के लिए लड़ेंगे."

अमनदीप और अमनप्रीत जैसी युवा महिलाएं यहां कपड़े-बरतन धोने और खाना बनाने का काम कर रही हैं वहीं मनजीत कौर ( 72) और गुरदीप कौर (60) जैसी बुजुर्ग महिलाएं रसोई का काम कर रही हैं.

मनजीत कौर के पति जगजीत सिंह गांव के प्रधान हैं. उनके पास गांव में 20 एकड़ ज़मीन है. दो लड़के हैं जो उनकी गैर मौजूदगी में खेती संभाल रहे हैं.

यहां अब इन महिलाओं ने साथ रहते हुए एक छोटा परिवार बना लिया है. इनमें से कुछ महिलाएं वापस जाएंगी और कुछ आएंगी. बसंती दुपट्टा ओढ़े हुए ये महिलाएं गा रही थीं- 'रंग दे बसंती चोला.' इसके जरिये वे भगत सिंह को याद कर रही थीं. जसबीर कौर ने कहा, पीला हमारा रंग है."

हंसते हुए दिक्कतों का सामना

इन महिलाओं ने कहा कि शौचालय जाने जैसी छोटी-मोटी दिक्कतें हैं लेकिन आसपास की फैक्टरियों ने उन्हें अपने यहां के शौचालयों के इस्तेमाल की इजाज़त दे दी है. वे हर दूसरे दिन नहाती हैं. इस चिल्ला जाड़े में बाहर रहना आसान नहीं हैं. लेकिन वे हंस रही थीं. और साथ-साथ गाना गाते हुए मार्च कर रही थीं.

ये महिलाए लंगर तैयार करती हैं और बारी-बारी से सारा काम करती हैं.

सुखजीत कौर ने कहा, "सरकार जब तक इन क़ानूनों को वापस नहीं लेती तब तक हम यही डटी रहेंगी. हम लोहड़ी भी यहीं मनाएंगे. हम अपने पीले स्कार्फ पहन कर यहां आग जलाएंगे."

तो यह है आंदोलन का पूरा नजारा. दिल्ली की सीमाओं पर मौजूद ट्रॉलियों में महिलाओं का हुजूम है. कुछ अपने ट्रैक्टर लेकर यहां आई हैं तो कुछ यहां प्रदर्शकारी पुरुषों की ट्रैक्टर ट्रॉलियों में आई हैं. इनमें एक ट्रॉली वो भी थी, जिसमें नौ महिला प्रदर्शनकारी महिलाएं जमी हुई थीं. नौ महिलाएं, एक छोटा बच्चा एक और ढेर सारा साहस. एक पीली ट्रॉली. वे इसे अपनी सबसे चमकदार जगह कह रही थीं.

जसबीर कौर ने कहा, "देखो पीले तिरपाल से रोशनी कैसे छन कर आ रही है. यह कितनी खूबसूरत रोशनी है."

"आओ कभी हमारे साथ यहां रहने. हम तुम्हें रोटी खिलाएंगे और किस्से भी सुनाएंगे."

इस इसरार के साथ आप वहां से बाहर निकलते हैं. थोड़ी दूर जाने पर पीछे मुड़ कर देखते हैं तो वे पीले झंडे फहराते हुए नजर आती हैं.

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