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बिहार के किसान आंदोलन क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या वहाँ खेती में सब बढ़िया है?
- Author, नीरज प्रियदर्शी
- पदनाम, बीबीसी हिंदी के लिए, पटना ( बिहार) से
"दिल्ली के किसान आंदोलन में बिहार के किसान भी शामिल हों, क्योंकि इस क़ानून के तहत किसानों को एमसएपी कभी नहीं मिलेगा. इस क़ानून से सबसे अधिक बिहार के किसानों पर असर पड़ेगा. उन्हें बहुत नुकसान होने वाला है. इसलिए बिहार के किसानों से मेरी अपील है कि वे जागरूक हों, दिल्ली पहुंचें."
भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी ये बातें पटना के एक होटल में सोमवार को प्रेस कॉफ़्रेंस करके कह रहे थे.
भारत सरकार के तीन नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन में एक बात जो बार-बार कही जा रही है, वो ये कि बिहार के किसानों को इन क़ानूनों से कोई समस्या नहीं है, इसलिए यहाँ के किसान आंदोलन में भाग नहीं ले रहे हैं.
बिहार देश का वह राज्य है जहाँ सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ कुल आबादी का 77 फ़ीसदी हिस्सा कृषि पर आश्रित है, जो पंजाब और उत्तर प्रदेश की तुलना में कहीं अधिक है. पंजाब में कृषि पर निर्भर आबादी का प्रतिशत 75 है जबकि उत्तर प्रदेश में यह 65 फ़ीसद है.
बावजूद इसके किसान आंदोलन में बिहार के किसानों की उल्लेखनीय भागीदारी नहीं है. बिहार के किसानों को संगठित और जागरूक करने के लिए पंजाब के किसान नेता यहाँ आकर प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर रहे हैं.
आज़ादी से पहले कई किसान आंदोलनों के जनक रहे राज्य बिहार में बीते कई बरसों में न तो कोई किसान संगठन सक्रिय दिखता है और न ही यहाँ के किसानों का कोई नुमाइंदा नज़र आता है.
बीबीसी ने अपनी इस रिपोर्ट में ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की:
- आख़िर क्या वजह है कि जिस राज्य की तीन चौथाई से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है, वहाँ आज कोई किसान नेता नहीं है?
- क्या बिहार के किसानों को इसकी ज़रूरत नहीं है या यहाँ किसानी से जुड़ी कोई समस्या ही नहीं है?
- क्या बिहार के किसानों को नए कृषि क़ानूनों से कोई दिक्कत नहीं है?
क्या बिहार के किसानों को कोई परेशानी नहीं है?
वैशाली स्मॉल फ़ॉर्मर्स एसोसिएशन से जुड़े वैशाली के किसान यूके शर्मा कहते हैं, "बिहार की किसानी का पैटर्न बदल गया है. यहाँ की खेती बटाईदारी और मालगुजारी (लीज़) पर ज़्यादा आधारित हो गई है. ऐसी जोतें कम हैं जिनके मालिक ख़ुद खेती करते हों. महज़ पाँच-सात फ़ीसदी. इसलिए नए कृषि क़ानूनों का असर केवल उन्हीं पाँच-सात फ़ीसदी खेती करने वाले लोगों पर पड़ेगा."
यूके शर्मा कहते हैं, "यहाँ छोटे, मझोले और सीमांत किसानों की आबादी सबसे अधिक है, जो दो हेक्टेयर या उससे थोड़ी कम-ज़्यादा में खेती करते हैं. यह आबादी मुख्य रूप से खेती केवल इसलिए करती है ताकि परिवार के खाने भर का अनाज पैदा हो जाए. इसलिए इन्हें एमएसपी से कोई ख़ास मतलब वैसे भी नहीं है. और जिसे एमएसपी से मतलब है, उसके लिए यहाँ मंडी का सिस्टम ही नहीं है."
हालाँकि अपने 30 क्विंटल धान को बेचने लिए यूके शर्मा पैक्सों (प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों) से मिन्नतें करते रहे हैं. उनके क्षेत्र के पैक्स ने अभी तक धान की ख़रीद शुरू भी नहीं की है.
यूके शर्मा बताते हैं कि उनकी जानकारी के कई किसानों ने बाज़ार में मोल-भाव कर 1100-1200 रुपये की दर पर अपने धान बेच दिए हैं क्योंकि उनके पास उसके भंडारण की कोई सुविधा नहीं है और पैसों की ज़रूरत भी थी.
बिहार में सरकार के स्तर पर अनाज की ख़रीद-फरोख़्त के लिए साल 2005 के बाद से मंडी की व्यवस्था की जगह प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों की व्यवस्था है. ये समितियाँ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से गेहूँ-धान ख़रीदती हैं.
फिर भी बिहार के किसान आवाज़ क्यों नहीं उठा रहे हैं?
ऐसा नहीं है कि बिहार के किसान यहाँ की पैक्स की व्यवस्था का भरपूर लाभ उठा रहे हैं, सभी किसानों को अपना अनाज बेचने पर एमएसपी मिल जा रही है और उन्हें किसानी में कोई दिक्कत नहीं हो रही है.
सच्चाई तो यह है कि इस साल बिहार सरकार ने फ़रवरी तक 45 लाख टन धान ख़रीद का लक्ष्य रखा है. दिसंबर बीतने को है लेकिन अभी तक लगभग दो लाख टन धान की ख़रीद ही हो सकी है.
साथ ही बीते कई बरसों में ऐसा कभी नहीं हुआ कि सरकार की तरफ़ से पैक्सों के लिए धान-ख़रीद का जो लक्ष्य निर्धारित हुआ, उसका 30 फ़ीसद भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदा गया हो.
इसके अलावा भी यहाँ के किसानों को अलग-अलग तरह की समस्याएं हैं. मसलन, अभी भी क़रीब पाँच लाख हेक्टेयर से अधिक ज़मीन पर बाढ़ का पानी जमा है, जिससे वहां रबी की बुआई नहीं हो पा रही है. केवल 30 फ़ीसद खेतों तक ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है.
फिर भी बिहार के किसानों की तरफ़ से नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ और आंदोलनरत किसानों के समर्थन में आवाज़ें क्यों नहीं उठ रही हैं?
पूर्णिया के किसान गिरीन्द्र नाथ झा कहते हैं, "आवाज़ें तो तब उठतीं, जब यहाँ के किसान यहीं होते. सच्चाई यह है कि बिहार से सबसे अधिक किसानों का पलायन हुआ है. यहाँ अब किसान कम रह गए हैं. जो हैं, वो खेतिहर हैं. जोत को लीज़ पर लेकर या फसल की साझेदारी पर खेती करते हैं. जिसका खेत पर अधिकार नहीं है, वो खेती के लिए मिलने वाले अधिकारों की माँग करने में वैसे भी कम ही दिलचस्पी लेगा."
गिरीन्द्र नाथ झा के मुताबिक़ बिहार में 'गै़रहाज़िर किसानों' की संख्या ज़्यादा है. जिनका मतलब केवल अपने खेत से मिलने वाली मालगुजारी और फ़सल के शेयर पर होता है.
फ़सल कैसे उपज रही है, उसके लिए किन परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और सरकार की तरफ़ से क्या व्यवस्था की जा रही है, इन सब बातों से बिहार के तथाकथित किसानों (जिनकी जोत है) को फ़र्क नहीं पड़ता.
वो कहते हैं, "अगर बिहार को खेती में आगे ले जाना है सरकार को पहले उन ग़ैरहाज़िर किसानों को वापस बुलाना होगा, जो अपनी जोत छोड़कर दूसरे राज्यों में रह रहे हैं. जैसे कोई इंडस्ट्री लगाने के लिए सरकार उद्योगपतियों के समूह से वार्ता करती है, वैसे ही खेती के लिए उसे उन ग़ैरहाज़िर किसानों से बात करनी पड़ेगी, उन्हें भरोसे में लेना पड़ेगा."
कहाँ गए किसान संगठन? कहाँ गए किसानों के नेता?
बिहार में किसानों के आंदोलन की गौरवशाली विरासत रही है. स्वामी सहजानंद सरस्वती ने यहीं से अखिल भारतीय किसान महासभा की स्थापना कर पूरे देश में भूमि सुधारों के लिए आंदोलन का सूत्रपात किया था. महात्मा गाँधी ने भी आज़ादी की लड़ाई से किसानों को जोड़ने के लिए बिहार की ही धरती ही चुनी थी.
लेकिन, आज के समय में यहाँ किसानों का कोई नेता नहीं है. न ही किसानों का ऐसा कोई संगठन ज़मीन पर सक्रिय नज़र आता है. बिहार की राजनीति में भी, चाहे वह विधानसभा हो या संसद, कहीं भी बिहार के किसी किसान नेता की उल्लेखनीय मौजूदगी नहीं है.
वरिष्ठ पत्रकार पुष्यमित्र इसका कारण बताते हैं. वो कहते हैं, "यहां खेती-किसानी का मसला बाद में आता है. उससे पहले ज़मीन का विवाद हो जाता है. खेती-किसानी से उठकर आए नेता भी ज़मीन के झगड़े में उलझ जाते हैं. वहीं से उनकी राजनीति बदल जाती है."
पुष्यमित्र के मुताबिक, "बिहार में भूमि सुधार के लिए आंदोलन तो हुआ मगर सुधार हो नहीं पाया. यहाँ भूमि का असमान वितरण ऐसा है कि किसानों की आधी लड़ाई पहले उसके लिए है. आज़ादी के बाद से देखें तो किसानों के नाम पर जो भी संगठन बने उनका पहला उद्देश्य ज़मीन पर अधिकार का रहा. खेती-किसानी की समस्याओं को लेकर बात करने वाला कोई नहीं हुआ."
क्या कहते हैं किसानी करने वाले नेता?
बिहार में भले ही किसानों का कोई ऐसा संगठन नहीं है जो राजनीति से इतर हो और जिसकी प्रभावशाली भूमिका हो, मगर यहाँ की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों का यह दावा है कि वे किसानों के साथ हैं.
नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ इसी महीने आठ दिसंबर को भारत बंद के दौरान विपक्षी पार्टियों के कार्यकर्ता सड़क पर भी उतरे. हालाँकि, बंद का जैसा प्रभाव पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हुआ, वैसा बिहार में नहीं देखने को मिला. किसानी में लगे बहुत कम ही लोग बंद में शामिल हुए.
क्या यहाँ के किसानों को अपने नेता की कमी खल रही है? क्या यहाँ के किसानों की बात रखने वाला कोई नहीं है?
भाकपा (माले) से जुड़े अखिल भारतीय किसान समन्वय संघर्ष समिति के सदस्य और खुद खेती करने वाले बक्सर के रामदेव यादव कहते हैं, "आंदोलन यहाँ भी हो रहा है. हमारे संगठन के किसान भाई पूरे राज्य में सड़कों पर उतर रहे हैं. 29 मार्च को हमलोग राजभवन मार्च की तैयारी में हैं."
रामदेव यह भी कहते हैं, "पंजाब और हरियाणा में बड़े किसानों की संख्या जितनी है, हमारी ओर उस मुक़ाबले काफी कम है. बंटाइदार को सिर्फ़ अपनी खेती से मतलब है. लेकिन धीरे-धीरे यहाँ भी लोग जागरूक हो रहे हैं. हमारा आंदोलन तेज़ हो रहा है. जो लोग ये कह रहे हैं कि बिहार के किसानों को इन क़ानूनों से कोई दिक्कत नहीं है, दरअसल वो भाजपाई और पूंजीपति लोग हैं."
समस्तीपुर के रहने वाले रंजीत निर्गुणी जो भाजपा की तरफ से विधानसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं और खेती ही जिनका मुख्य पेशा है, कहते हैं, "असल समस्या यह है कि जिन्हें किसानी से कोई मतलब नहीं है और जो किसानी को समझते नहीं हैं, वो भी किसानों की बात कर रहे हैं. चाहे वह विपक्ष के लोग या हमारी पार्टी के ही क्यों न हों."
रंजीत कहते हैं, "नए क़ानूनों का चाहे जो हो, सरकार उनपर किसानों से तो बात कर ही रही है. मगर आज़ादी के बाद पहली बार देश में ऐसा हुआ कि संसद का कोई सत्र किसानों को समर्पित हुआ. पक्ष से लेकर विपक्ष किसानों के मुद्दों पर लड़ रहे हैं, एक तरफ विपक्ष के लोग सड़कों पर हैं वहीं दूसरी ओर पक्ष (भाजपा) की ओर से देशभर में किसान चौपालों का आयोजन हो रहा है. बिहार में सबसे अधिक किसान चौपाल हो रहे हैं. आने वाले दिनों में बिहार के किसानों को इसका सबसे अधिक फ़ायदा मिलेगा."
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