किसान आंदोलन: महाराष्ट्र की 'चारी किसान हड़ताल' जो क़रीब छह सालों तक चली थी

    • Author, नामदेव अंजाना
    • पदनाम, बीबीसी मराठी संवाददाता

दिल्ली में कड़ाके की ठंड पड़ रही है. तापमान 10 डिग्री सेल्सियस से भी नीचे जा चुका है लेकिन पंजाब और हरियाणा से आए किसान इसकी परवाह किए बिना दिल्ली और हरियाणा के बॉर्डर पर जमे हुए हैं.

किसान छह महीनों तक विरोध-प्रदर्शन करने की तैयारी के साथ आए हैं.

एक महीने तो उनके यहाँ पर विरोध-प्रदर्शन करते हुए हो गए और वो अब तक बिल्कुल भी पीछे नहीं हटते दिख रहे हैं.

केंद्र सरकार जब तक तीन नए कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती तब तक वो अपना विरोध जारी रखेंगे. यह उनका साफ तौर पर कहना है.

कई लोग किसानों के छह महीने तक आंदोलन जारी रखने को लेकर उत्सुकता से भरे हुए हैं.

'चारी किसान हड़ताल'

इसी तरह से कुछ लोगों को इस बात पर यकीन करना मुश्किल हो सकता है कि महाराष्ट्र में छह साल तक किसानों का एक आंदोलन चला था.

छह सालों से इसमें शामिल किसी किसान ने खेती नहीं की.

इसकी वजह से भुखमरी की नौबत तक आ चुकी थी लेकिन किसान अपने रुख पर कायम रहे. ये सुनकर आपको ताज्जुब हो सकता है लेकिन यह सच है.

महाराष्ट्र में ये किसान आंदोलन एक इतिहास बन चुका है. इसे 'चारी किसान हड़ताल' कहते हैं.

महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसानों का ये आंदोलन चला था.

महाराष्ट्र में बटाईदार क़ानून

ये हड़ताल पहली बार रायगड ज़िले के अलीबाग के नज़दीक चारी गांव में हुई थी. इसकी वजह से महाराष्ट्र में कृषि क्षेत्र में कई अहम बदलाव हुए थे.

बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने इस आंदोलन का समर्थन किया था. उनकी इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के बीज भी आप इस आंदोलन में देख सकते हैं.

किसानों और मजदूरों के नेता नारायण नागु पाटिल ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था और अंग्रेजों को घुटने पर आने पर मजबूर कर दिया था.

इस आंदोलन की वजह से महाराष्ट्र में बटाईदार क़ानून लागू हुआ.

हम किसानों के इस सबसे ज्यादा वक्त से चलने वाली हड़ताल के बारे में विस्तार से जानेंगे लेकिन उससे पहले हम संक्षिप्त में खोटी व्यवस्था को समझने की भी कोशिश करेंगे.

खोटी व्यवस्था क्या है?

खोट लोग बड़े जमींदार थे. पेशवा के वक्त से इन्हें मान्यता मिली हुई थी.

इनका मुख्य काम सरकार की ओर से किसानों से राजस्व वसूलना था और उसे सरकार तक पहुँचाना था. जहाँ खोट लोग रहते थे उन गांवों को खोटी गांव कहते थे.

कृषीवल अखबार के संपादक एसएम देशमुख ने चारी किसानों के हड़ताल पर गहराई से अध्ययन किया है.

वो कहते हैं, "खोट लोग खुद को सरकार समझते थे और गरीब किसानों को लूटते थे. ये किसान पूरे साल कड़ी मेहनत करते थे लेकिन आख़िर में सारे अनाज खोट के पास चले जाते थे. सिर्फ़ यही नहीं बल्कि खोट अपने निजी कामों के लिए भी उनका इस्तेमाल करते थे."

इन किसान मज़दूरों को कोल कहते थे. ये दूसरे की ज़मीन पर काम करते थे.

देशमुख बताते हैं, "खोट लोग किसानों को बरगला कर रखते थे क्योंकि वे लोग पढ़े-लिखे नहीं थे. खोट लोगों ने काबुलायत जैसी व्यवस्था शुरू की थी. इस व्यवस्था के अंदर 11 महीने के लिए खेत ठेके पर दिए जाते थे. खोट लोग एक एकड़ ज़मीन के बदले एक खांडी चावल की मांग करते थे. अगर कोई किसान नहीं दे पाता था तो उससे अगले साल इसका डेढ़ गुना लिया जाता था. इसलिए जी तोड़ मेहनत करके भी किसानों के हाथ कुछ नहीं आता था."

"बटाईदारी वाली खेती में अगर किसानों ने सब्जियाँ या फिर आम, नारियल या कटहल का पेड़ लगाया तो उस पेड़ के फलों पर खोट का अधिकार होता था. यह एक अलिखित समझौता था. हालांकि किराए पर दिए गए ज़मीन पर पूरे समुदाय का हक़ होता था लेकिन खोट इस पर अपना मालिकाना हक़ जताते थे. खोट किसानों और बटाईदारों को जबरदस्ती अपने निजी काम करने पर मजबूर करते थे. अपने खेतों में भी उनसे काम लेते थे."

देशमुख आगे बताते हैं, "अगर कोई बटाईदार पर्याप्त रूप से राजस्व नहीं दे पाता था तो उसके पूरे परिवार को गुलाम समझ लिया जाता था. कोंकण के क्षेत्र में यह अमानवीय व्यवस्था लागू थी."

19वीं सदी के अंत में खोटी व्यवस्था को कई जगहों पर चुनौती मिलनी शुरू हुई.

रत्नागिरी के खेड तहसील और रायगढ़ के पेन तहसील में इस तरह की कोशिशें शुरू हुई थीं लेकिन इन कोशिशों को नाकाम कर दिया गया.

1921 से 1923 के बीच रायगढ़ में खोट लोगों के ख़िलाफ़ अलग-अलग स्तरों पर आंदोलन हुए. लेकिन वो सभी आंदोलन कुचल दिए गए.

नारायण नागु पाटिल इन सभी घटनाक्रम को अपने सामने होते हुए देख रहे थे. उन्होंने खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का फैसला लिया.

इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने आस-पास के कई गांवों का दौरा किया.

तब शुरू हुई छह साल लंबी किसानों की हड़ताल

'कोंकण क्षेत्र किसान संघ' 1927 में खोट व्यवस्था के ख़िलाफ़ बना था. भाई अनंत चित्रे इस संघ के सचिव थे.

इस संघ ने खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ रत्नागिरी और रायगढ़ जिले में कई रैलियां निकालीं. रैलियों को नाकाम करने के कई प्रयास हुए.

कई बार नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे को रैली को संबोधित करने पर पाबंदी लगा दी गई. लेकिन किसानों का समर्थन बढ़ता रहा.

इन हड़तालों को लेकर पेन तहसील में 25 दिसंबर 1930 को एक अहम सम्मेलन आयोजित किया गया. इसे कोलाबा ज़िला सम्मेलन में कहा गया.

उस वक्त राजगढ़ जिला ही कोलाबा हुआ करता था. इस सम्मेलन की अगुवाई नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे ने की थी.

इस सम्मेलन में पारित हुए प्रस्ताव आगे चल कर आंदोलन के आधार बने.

इन प्रस्तावों में एक 28 सूत्री मांग भी थी जिसमें खोटी व्यवस्था को खत्म करने, उपजाने वाले को ही खेत का मालिकाना हक़ देने और ब्याज में कटौती जैसी मांगें शामिल थीं.

इसके अलावा काबुलायत की शर्तों में भी बदलाव की मांग की गई थी.

इस सम्मेलन के बाद नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे ने आक्रामक रुख अपनाते हुए सबी रैलियों को संबोधित करना शुरू किया और किसानों को जागरूक किया.

तब के कोबाला जिले में खेड, ताला, मनगांव, रोहा, और पेन जैसी जगहों पर हज़ारों किसानों ने रैलियाँ निकालीं.

इसका नतीजा यह निकला कि खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ 1933 में एक ऐतिहासिक आंदोलन हुआ.

…ऐतिहासिक आंदोलन की घोषणा

1931 और 1933 के बीच नारायण नागु पाटिल और भाई अनंत चित्रे की अगुवाई में हुए कई आंदोलनों को पाबंदियाँ झेलनी पड़ी थीं.

इसने आंदोलन को धीमा कर दिया था. लेकिन 1933 में पाबंदियों के हटने के बाद 25 गांवों की एक रैली चारी गांव के पास से शुरू हुई. इसकी वास्तविक तिथि 27 अक्टूबर 1933 थी.

अलीबाग-वडखाल सड़क पर चारी गांव स्थित है. इस आंदोलन की घोषणा इसी गांव में हुई. नारायण नागु पाटिल चारी में इस रैली के आयोजक थे.

इसमें ये घोषणा की गई कि किसानों को उपज में उनका वाजिब हक़ नहीं मिल रहा है.

वे इसके लिए हड़ताल पर जाएंगे और आज से हड़ताल शुरू होता है. यह फैसला लिया गया कि वे खेतों में फसल नहीं उपजाएंगे.

खोट लोगों ने जब किसानों पर हड़ताल खत्म करने का दबाव बनाया तो इसका डटकर किसानों ने सफलतापूर्वक मुकाबला किया. लेकिन भूख से वो कैसे लड़ते जब खेती-बाड़ी ही नहीं हो रही थी तब खाने के लिए अनाज कहाँ से आता?

भूखे रहने के बावजूद डटे रहे

खेती नहीं करने को लेकर ये हड़ताल 1933 से लेकर 1939 तक कुल छह सालों तक चली.

चारी के अलावा 25 और गांव इसमें शामिल थे. इन्हीं गांवों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा था.

हड़ताल के दौरान किसानों को बहुत बुरे हालात का सामना करना पड़ा. उन्हें जंगल से लकड़ी काट कर गुजारा करना पड़ा.

हालांकि वो अपनी मांग को लेकर डटे रहे और हड़ताल जारी रही.

कृषिवल अखबार की शुरुआत

कोलाबा समाचार जैसे अखबारों ने हड़ताल को लेकर सवाल खड़े किए.

एसएम देशमुख बताते हैं, "कोलाबा समाचार में संपादकीय छपा कि जमींदारों और बंटाईदारों में मतभेद पैदा करने की कोशिश की जा रही है. अखबार ने हड़ताल के पीछे के मकसद पर संदेह जाहिर किया."

जब कोलाबा समाचार जैसे स्थापित अखबार हड़ताल को लेकर सकारात्मक रुख नहीं रख रहे थे तब नारायण नागु पाटिल ने लोगों की मदद से अपना अखबार शुरू किया.

5 जुलाई 1937 को कृषिवल नाम से इस अखबार की शुरुआत हुई. इससे हड़ताल को लेकर लोगों तक अपनी बात पहुँचाने में मदद मिली.

आज की तारीख में यह अख़बार शेतकारी कामगार पार्टी का मुखपत्र है.

आंबेडकर का साथ

एसएम देशमुख ने इस पर विस्तार से लिखा कि कैसे आंबेडकर ने इस आंदोलन का समर्थन किया था.

वो बताते हैं, "जब किसानों की ये हड़ताल चल रही थी तब किसानों का एक और सम्मेलन हुआ था. आंबेडकर इस सम्मेलन की अध्यक्षता करने को बुलाया गया था. भाई अनंत चित्रे खुद उन्हें बुलाने मुंबई गए थे."

इस सम्मेलन में खोटशाही खत्म करो, सावकरशाही खत्म करो जैसे नारे लगाए गए थे. इसमें बाबा साहब भीम राव आंबेडकर ने फार्मर्स लेबर पार्टी की स्थापना की घोषणा की. शेतकारी कामगार पार्टी की जड़ें भी चारी में शुरू हुए आंदोलन से निकली थीं. शंकर राव ने इसकी स्थापना की थी.

सावकारों (साहूकार) के ख़िलाफ़ भाषण हुए. कोलाबा समाचार जो शुरू से हड़ताल का विरोध कर रहा था, उसने साहूकारों के खिलाफ 'साहूकारों को खत्म करो' शीर्षक से लेख लिखा.

लेकिन आंबेडकर के दौरे के बाद इस आंदोलन में और तेज़ी आ गई. 25 अगस्त 1935 को जिला कलेक्टर ने बटाईदार और जमींदारों के बीच बैठक करवाई. लेकिन यह बैठक बेनतीजा रही और हड़ताल जारी रही.

कुछ सालों के बाद आंबेडकर ने इंडिपेंडेंट पार्टी के 14 विधायकों के समर्थन से मुंबई के विधानसभा में खोटी व्यवस्था के ख़िलाफ़ प्रस्ताव रखा. सरकार ने तब सुनी और मोरारजी देसाई को हड़ताल पर बैठे किसानों से मिलने को भेजा.

तब के राजस्व मंत्री मोरारजी देसाई का दौरा

बाला साहब खेर उस वक्त मुंबई क्षेत्र के मुख्यमंत्री थे. उन्होंने मोरारजी देसाई से चारी जाकर स्थिति का जायजा लेने को कहा. उस वक्त नारायण नागु पाटिल ने मोरारजी देसाई की ओर से दिए गए आश्वासन पर यकीन किया और उन्हें मान लिया.

अपनी आत्मकथा 'कथा एका संघर्षशाची' में नारायण नागु पाटिल ने लिखा है, "मोरारजी भाई की मध्यस्थता मेरे उम्मीदों से कहीं अधिक निष्पक्ष और संतुलित थी. किसानों की कुछ मांगें मान ली गईं. किसानों की जीत हुई."

तब हड़ताल की वजह से पैदा हुए तनावपूर्ण माहौल में कमी आने लगी. किसानों को भी हड़ताल से परेशानी तो हो ही रही थी. उन्हें खाने को पर्याप्त खाना नहीं मिल पा रहा था और भी कई तरह की परेशानियाँ वो झेल रहे थे. हालांकि इसके बावजूद हड़ताल छह सालों तक जारी रही.

1939 में सरकार ने बंटाईदारों को सुरक्षा देने की घोषणा की और 27 अक्टूबर 1933 से शुरू हुई हड़ताल इस तरह से खत्म हो पाई.

बटाईदार कानून का अस्तित्व में आना

हड़ताल की वजह से महाराष्ट्र में बंटाईदारों को आधिकारिक तौर पर 1939 में संरक्षण प्राप्त हुआ.

जोतने वाले की ज़मीन होगी के सिद्धांत को मान्यता मिली. बटाईदारों को ज़मीन का मालिकाना हक़ दिया गया.

पहली बार बटाईदारों का नाम सात-बारा दस्तावेज में दर्ज किया गया.

1948 में बटाईदार कानून पारित हुआ और बटाईदारों को अधिक अधिकार हासिल हुए.

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