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सोनिया और मोदी के बीच है मुक़ाबला
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नरेंद्र मोदी कहने को 182 सीटों वाले गुजरात के मुख्यमंत्री हैं. लेकिन उनका क़द इतना बड़ा हो गया दिखता है कि उनके सामने कांग्रेस
को अपने सबसे कद्दावर नेता सोनिया गांधी को उतारना पड़ा है.
सोनिया गांधी सीधे नरेंद्र मोदी पर हमले करती हैं और नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में सोनिया गांधी से नीचे किसी की भी बात कम ही करते हैं. कांग्रेस ने सोनिया गांधी के अलावा अपनी प्रचार सामग्री में राहुल गांधी का भी भरपूर उपयोग किया है और कहीं-कहीं मनमोहन सिंह का भी. गुजरात कांग्रेस के नेताओं को बैनरों और पोस्टरों में कोई जगह ही नहीं मिल सकी है. दूसरी ओर भाजपा की प्रचार सामग्री देखें तो साफ़ दिखता है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात में ऐसी स्थिति बना दी है कि अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह तक हर कोई हाशिए पर चला गया है. ऐसा दिखता है कि गुजरात के ही गांधीनगर से संसद में पहुँचने वाले लालकृष्ण आडवाणी का भी कोई नामलेवा नहीं बचा है. और जो बात प्रचार सामग्री में दिख रही है वह चुनाव प्रचार में भी दिख रही है. कांग्रेस की उन्हीं रैलियों को तवज्जो मिल रही है जिसे सोनिया गांधी संबोधित कर रही हैं. उधर भाजपा को देखें तो नरेंद्र मोदी की सभा के अलावा किसी और की सभा में भीड़ जुटाना कठिन दिख रहा है. पिछले दिनों लालकृष्ण आडवाणी को पाँच सौ लोगों की एक सभा को संबोधित करना पड़ा था. तो गुजरात विधानसभा के चुनाव एक तरह से नरेंद्र मोदी और सोनिया गांधी के बीच लड़े जा रहे हैं. मोदी बनाम सोनिया नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ सोनिया गांधी को खड़ा करना कोई रणनीति थी या फिर कोई राजनीतिक मजबूरी? अहमदाबाद में इंडियन एक्सप्रेस के संपादक एनके सिंह कहते हैं कि इसके पीछे कांग्रेस की कमज़ोरी ज़्यादा है.
वे कहते हैं, “अगर इस चुनाव को शुरु से देखें तो पता चलता है कि इन चुनावों का एजेंडा नरेंद्र मोदी ने ही तय किया है. पहले उन्होंने विकास की बात की तो कांग्रेस भी विकास की बात करती रही फिर मोदी ने बहुत चतुराई से और अपनी सुविधा से इसे नरम हिंदुत्व की ओर मोड़ दिया.” लेकिन वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश शाह इसे रणनीतिक और राजनीतिक मजबूरी दोनों मानते हैं. वे कहते हैं, “जहाँ तक नरेंद्र मोदी का सवाल है तो उनका क़द ऐसा हो गया है कि वे अपनी पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं को एक तरह से बंधक बनाए हुए हैं. यहाँ तक कि प्रधानमंत्री बनने की आस लगाए आडवाणी भी मोदी के भरोसे हैं.” वे कहते हैं, “लेकिन कांग्रेस की दृष्टि से देखें तो यह रणनीति दिखाई देती है क्योंकि पिछले कुछ महीनों से गुजरात में सोनिया गांधी की रैलियाँ बहुत सफल हो रहीं थीं.” प्रकाश शाह मानते हैं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि कांग्रेस के सबसे बड़े नेता ने गुजरात में आकर इतना ज़ोर लगाया हो. वे याद
करते हैं, “1975 में जनता फ़्रंट के ज़माने में इंदिरा गांधी ने राज्य के चुनावों में गुजरात में 110 रैलियाँ की थीं.”
भाजपा के पास तो अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता थे, तो फिर क्यों मोदी को इतनी प्रभुता मिल गई, इस सवाल पर एनके सिंह कहते हैं, “यह भाजपा की रणनीति रही है कि नरेंद्र मोदी को सुपरनेता के रुप में प्रस्तुत किया जाए और उसने वही किया.” लेकिन प्रकाश शाह इसकी जड़ें 2002 के दंगों में देखते हैं और कहते हैं कि तब पार्टी के कद्दावर नेता भी उन पर लगाम नहीं कस पाए. उनका मानना है कि भाजपा अभी तक 2004 की हार से उबर नहीं सकी है, इसलिए नरेंद्र मोदी सर्वशक्तिमान बने हुए हैं. उनका कहना है कि अब तो इसमें कोई दो मत नहीं हो सकता कि नरेंद्र मोदी अब राष्ट्रीय नेता हैं. लेकिन मोदी के उभार को कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने दूसरी तरह से देखा है. पालनपुर शहर कांग्रेस के अध्यक्ष महेंद्र भाई जोशी कहते हैं, “गुजरात में तो मोदी ही भाजपा हैं और भाजपा का मतलब ही मोदी है.” हालांकि वे इस सवाल को टाल जाते हैं कि कांग्रेस और सोनिया गांधी के बीच तो पूरे देश में यही रिश्ता है? कांग्रेस के नेता उधर कांग्रेस ने प्रदेश कांग्रेस के नेताओं को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. हो सकता है कि इसके पीछे स्थानीय स्तर पर खींचतान हो, हालांकि इसे कोई स्वीकार नहीं करता. राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस की रणनीतिक भूल मानते हैं और कुछ लोग इसे बाद में आलाकमान की पसंद का मुख्यमंत्री थोपे जाने की योजना के रुप में देखते हैं. एनके सिंह कहते हैं कि जो कुछ कांग्रेस ने किया है वह मोदी के लिए तो अच्छा है कि उनका क़द बढ़ रहा है और वह सोनिया गांधी के सामने खड़े हैं लेकिन यह कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं है कि वह हर राज्य में सोनिया गांधी के भरोसे रहे. लेकिन प्रकाश शाह कहते हैं कि इससे राज्य के चुनाव पर ख़ास फ़र्क नहीं पड़ने वाला है कि कांग्रेस ने किसी स्थानीय नेता को भावी मुख्यमंत्री के रुप में पेश किया है या नहीं.
राजनीतिक विश्लेषक इस बात से सहमत हैं कि यदि मोदी ने चुनाव जीता तो मोदी का क़द और बढ़ जाएगा लेकिन वे मानते हैं कि यदि कांग्रेस नहीं भी जीत पाती है तो सोनिया गांधी के क़द पर इसका कोई असर होगा, जैसा कि एनके सिंह ने कहा, “सोनिया गांधी जैसी नेता की छवि को एक राज्य के चुनाव परिणाम से जोड़कर देखना उचित नहीं होगा.” अगर थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो समझ में आता है कि क्यों ये चुनाव कांग्रेस के लिए जीवन-मरण का सवाल बने हुए हैं. कांग्रेस गुजरात में पिछले 17 सालों से सत्ता से बाहर है, यदि एक और हार होती है तो सत्ता के बाहर कांग्रेस को 22 साल हो जाएँगे और यह स्थिति उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल की तरह ही हो जाएगी. कौन नहीं जानता कि कांग्रेस को उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल को देखकर कैसा लगता है. |
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