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बुद्धि और भावना के साथ चाहिए लगन | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
एक छात्र के तौर पर मैंने आईक्यू, ईक्यू और एसक्यू की अवधारणाओं को जड़ें जमाते देखा है. अब एक और नई अवधारणा सामने आई है, पीक्यू यानी 'पैशन कोशिएंट'. यह अवधारणा एक नई किताब के साथ आई है जिसके विमोचन के कार्यक्रम में मैं मौजूद थी. इंटेलिजेंस, इमोशनल और स्प्रिचुअल (अध्यात्मिक) कोशिएंट से तो मैं परिचित हूँ लेकिन पैशन (लगन, उत्साह) कोशिएंट मेरे लिए बिल्कुल नया विचार था जिसे सामने रखा है वीरेंदर कपूर ने जो सिम्बायसिस स्कूल और मैनेजमेंट स्टडीज़ में पढ़ाते हैं. उम्मीद की किरण आईक्यू को एक कौशल माना जाता रहा है जिसे आप लगातार तार्किक पहेलियाँ सुलझाकर निखार सकते हैं, यह तार्किक बुद्धिमत्ता पर अधिक ज़ोर देता है. मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धिमत्ता को मापने के लिए टेस्ट तैयार किए और इस पूरी प्रक्रिया का नाम 'बुद्धिमत्ता का पैमाना' रखा इंटेलिजेंस कोशिएंट यानी बुद्धिमत्ता का पैमाना. बुद्धि को मापने की प्रक्रिया मुख्यतः मौखिक और गणितीय योग्यता पर केंद्रित थी. हॉवर्ड गार्डनर ने 1983 में एक किताब लिखी 'फ्रेम्स ऑफ़ माइंड' जिसने आईक्यू की संकीर्ण परिभाषा को नया विस्तार दिया, इसमें उन्होंने आकार-प्रकार की समझ, शारीरिक भंगिमाओं, संगीत की समझ और समाजिक स्तर पर व्यवहार को भी शामिल किया. जानकार मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जीवन में सफलता के मामले में आईक्यू की भूमिका सिर्फ़ 20 प्रतिशत है, इस तरह बाक़ी बचे 80 प्रतिशत वे सब चीज़ें आती हैं जिनका मानव जीवन पर असर होता है. हॉवर्ड गार्डनर ने तो यहाँ तक कहा था कि "समाज में किसी व्यक्ति की क्या जगह होगी इसे तय करने वाले ज्यादातर कारक आईक्यू से जुड़े नहीं हैं." इक्यू इस तरह इंटेलिजेंस कोशिएंट की जगह इमोशनल कोशिएंट की अवधारणा आई जिसे 1990 के दशक में मनोवैज्ञानिक डैनियल गोलमैन ने दुनिया के सामने रखा.
इक्यू के केंद्र में भावनाएँ थीं, आपकी अपनी और दूसरों की भी. मिसाल के तौर पर, 'दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे साथ करें.' आज हमारी ट्रेनिंग में जितनी तरह के परिष्कृत कौशल शामिल किए जा रहे हैं वे ईक्यू से ही जुड़े हैं. दूसरे शब्दों में यह एक व्यक्ति को न सिर्फ़ पेशेवर तौर पर बल्कि इंसान के तौर पर भी प्रशिक्षित करता है. लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती, इंसानी व्यवहार के बाक़ी पहलुओं को समझने की कोशिश में स्प्रिचुअल कोशिएंट की अवधारणा सामने आई. आईक्यू और ईक्यू को जीवन में सही तरीक़े से लागू करने का आधार तो एसक्यू ही है. विधि बनाने वाला अंतर्यामी विधाता है, उस पर चलने वाला और अपने व्यवहार की स्वयं निगरानी करने वाला इंसान है. यही तो सार है हमारी अनंतकाल से चली आ रही प्रार्थनाओं का. एक मामूली अंतर है कि इसी बात को अलग-अलग धर्मों, संस्कृतियों और नीतिशास्त्र की किताबों में अलग-अलग तरीक़े से समझाया गया है. बचपन आईक्यू, ईक्यू और एसक्यू की बात तो हो गई लेकिन पैशन कोशिएंट यानी पीक्यू कहाँ फिट होता है?
मुझे ख़याल आता है कि पीक्यू ने किस तरह मेरे मामले में काम किया जबकि मैं इससे परिचित भी नहीं थी. जब भी स्कूल या कॉलेज में हमारी टीचर हमारी क्लास में लड़कियों से पूछतीं कि तुम क्या बनना चाहती हो तो मैं हमेशा अकेली लड़की होती थी जो हाथ उठाकर कहती, "मैं बदलाव लाना चाहती हूँ." इस तरह बार-बार एक ही बात को दोहराने से वह पुख़्ता होती गई और ख़ुद ही मेरे मन में पलती-बढ़ती रही. छात्रों के भीतर छिपी जन्मजात शक्ति को समझने में मैंने उनकी मदद की, उनका योग्यता और उनकी स्वाभाविक प्रतिभा उनके अंदर ही होती है. जब वे एक बार इसे पहचान लेते हैं तो वे उन्हें और निखारने में जुट सकते हैं. इस जन्मजात शक्ति की पहचान जितनी जल्दी होगी व्यक्तित्व का विकास उतना ही जल्दी, अच्छा और गहरा होगा. व्यक्ति के अंदर लगन कभी भी पैदा की जा सकती है और वह अपनी छिपी हुई प्रतिभा को किसी भी उम्र में पहचाना जा सकता है. इसके ट्रिगर फैक्टर (शुरू होने के कारण) कई हो सकते हैं. जैसे जन्मजात प्रतिभा, अभ्यास से पाया गया कौशल, संयोगवश मिला अवसर वगैरह लेकिन पीक्यू तो स्पार्क (चिंगारी) है जो इंजन को चालू करता है, रोशनी देता है, दिशा देता है, बदलाव लाने के काम का आनंद देता है. |
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