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पुलिस का हाथ बंटा सकती है जनता | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
देश के अलग-अलग हिस्सों में छिटपुट बम विस्फोट, जिनमें आम आदमी निशाना बन रहा है, क्या ये सवाल नहीं खड़ा करते कि हम ही लोगों को, यानी 'आम जनता' को ही, इसका मिलजुल कर मुक़ाबला करना चाहिए? क्या अब यह सवाल पूछने का वक़्त नहीं आ गया है? जब भी इस तरह के हमले होते हैं, हम सुनते हैं कि मुआवज़ा दे दिया गया या अति विशिष्ट व्यक्ति अस्पताल जा कर मुआयना कर आए, या फिर यह बयान कि 'आतंकवादी गुटों की कारस्तानी लगती है', चाहे वे देश में हों या सीमा पार. यह बातें भी होती हैं कि यह अस्थिर करने की चाल है, सांप्रदायिक तनाव फैलाने की कोशिश और अर्थव्यवस्था को कमज़ोर फैलाने के लिए उठाया गया क़दम है. रेड अलर्ट का एलान होता है. जैसे पहले से ही रेड अलर्ट लागू नहीं है. किसी को भी याद नहीं होता कि पिछली बार जब रेड अलर्ट लगा था तो हटा कब था? अमरीका की तरह नहीं जहाँ रेड अलर्ट की घोषणा अख़बारों की सुर्ख़ियों का विषय हो जाती है और टेलीविज़न पर उसको लेकर गर्मागर्म बहस शुरू हो जाती है. वहाँ रेड अलर्ट लगता है तो जगह-जगह सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी नज़र आने लगती है. तलाशी ली जाने लगती है जिसे हर व्यक्ति बिना किसी हीलहुज्जत के आसानी से स्वीकार भी कर लेता है और उसमें सहयोग भी देता है. लोगों को यह एहसास होता है कि पुलिस वाले अपनी निहायत ही मुश्किल ड्यूटी बड़ी कार्यकुशलता से निभा रहे हैं. हमारे लिए सीख तो इसमें हमारे लिए क्या सबक़ है? हमारे सभी राज्य इस मामले में संवेदनशील हैं और त्योहारों का समय ख़ासतौर पर नाज़ुक होता है. तो सवाल यह है हम लोग यानी 'आम जनता' ऐसे समय में ख़ुद को सामूहिक सुरक्षा प्रदान कराने के लिए क्या क़दम उठाते हैं? हम तेज़ी से बढ़ते सतर्कता के माहौल में अपना क्या योगदान दे रहे हैं? चाहे वह सिनेमा हॉल हो, बाज़ार हों, यात्रा हो, आध्यात्मिक जमावड़ा हो या तीज-त्योहार, आम आदमी कब यह सोचना छोड़ेगा कि सब कुछ ठीक ही होगा और अगर कुछ बुरा होता है तो वह किसी और के साथ ही होगा. क्या हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकता यह नहीं होनी चाहिए कि सतर्क जनता, सतर्क समुदाय, आत्मरक्षा और निगरानी सुनिश्चित करने के लिए एक देशव्यापी आंदोलन छेड़ा जाए? दूसरे शब्दों में, जनता के बीच से ही चुने गए लोगों के निगरानी दल क़ायम हों ताकि 'ख़ाकी वर्दी वालों' का कुछ बोझ कम हो सके? अगर ऐसे हो जाए तो 'ख़ाकी वर्दी वालों' का पूरा ध्यान जाँच और निगरानी के ज़रिए गंभीर ख़ुफ़िया जानकारी जुटाने पुलिस बल के लोगों के प्रशिक्षण पर लग सके. मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि पुलिस के सामान्य कामों में कटौती कर दी जाए. जिस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है वह यह है कि क्या सुरक्षा में बेहतरी और सुधार के लिए आम जनता अपनें कंधों पर कुछ ज़िम्मेदारी नहीं ले सकती है? प्रशिक्षित पुलिस कर्मचारियों की संख्या रातोंरात नहीं बढ़ाई जा सकती है लेकिन सामुदायिक निगरानी दलों की तो बढ़ ही सकती है. तो क्यों न ख़ुद इस काम के लिए आगे बढ़ा जाए या फिर स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद ली जाए? राष्ट्रीय सेवा योजना, असैनिक सुरक्षा, स्काउट एवं गाइड, सेवानिवृत्त सैनिक और पुलिस कर्मचारी, सेवानिवृत्त होमगार्ड, निवासी कल्याण संस्थाएँ, बाज़ार एसोसिएशन, सिनेमा के मालिक, सुरक्षा एजेंसियाँ, पंचायत, विशिष्ट पुलिस बल, नागरिक वार्डेन, लायसेंसशुदा हथियार धारक, सेवानिवृत्त अध्यापक, छात्र संगठन और महिला समूहों की मदद ली जा सकती है. इसके अलावा कॉलेजों के प्रिंसिपल युवा वर्ग को प्रेरित करने का काम कर सकते हैं. जागरूकता पैदा हो पंडित, पुजारी, मौलवी, इमाम और ग्रंथी, सभी अपने संदेशों और प्रवचनों के ज़रिए इस बारे में जागरूकता पैदा कर सकते हैं और आम सुरक्षा और नागिरकों की अपनी ज़ि्म्मेदारी के प्रति उन्हें सचेत कर सकते हैं. यह भी बहुत ज़रूरी है कि हर पुलिस थाना चाहे वह ज़िले में हो, नगर में या राज्य में, हर स्तर पर समाज के ज़िम्मेदार लोगों से संपर्क बना कर रखे और नियमित रूप से, बल्कि कम से कम महीने में एक बार उनसे मिले. विदेशों में पुलिस स्वयंसेवकों के लिए लगातार प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती आ रही है. यह सतर्क जनता हर अपराध को टाल तो नहीं सकती है लेकिन एक जागरूक माहौल ज़रूर पैदा कर सकती है और जो कुछ बस में है उससे तो बचा ही जा सकता है. वह कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि चरमपंथियों का काम दुश्वार बना दे और उनकी पहचान सरल हो जाए. यह स्पष्ट संदेश की पहुँचने की ज़रूत है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खाकी वर्दी वालों और आम जनता को मिल कर काम करना होगा. इसके साथ ही, पुलिस को भी इस बारे में प्रेरित करने की ज़रूरत है कि रातदिन चौकसी रहे, पुलिस कंट्रोल रूम में हर समय मौजूदगी हो ताकि चरमपंथी गतिविधियों की पूर्व सूचना और किसी भी तरह की जानकारी मिलती रहे. इस कक्ष की निगरानी का दायित्व समाज के ज़िम्मेदार सदस्यों या पूर्व सैनिकों को सौंपा जा सकता है. अगर हमें व्यापक तौर पर सुरक्षा सुनिश्चित करनी है तो अब समय आ गया है कि इसे प्राथमिकता के आधार पर लिया जाए. इस काम के लिए खाक़ी वर्दीधारियों और आम जनता को मिलजुल कर काम करना होगा ताकि चरमपंथी अलग-थलग पड़ जाएँ. |
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