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शुक्रवार, 05 अक्तूबर, 2007 को 15:38 GMT तक के समाचार
 
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जागृति आ ही गई...आख़िरकार!
 

 
 
महिलाएँ
महिलाएँ सामाजिक बंधनों से आज़ाद हो रही हैं लेकिन धीरे-धीरे
"आप सब स्वस्थ बच्चों की माँ बने, चाहे वो लड़की हो या लड़का". कुछ समय पहले मैने ये बात कुछ ग्रामीण महिलाओं से एक ख़ास मौके और ख़ास वजह से कही थी...वजह क्यों ख़ास थी ये बात आपको आगे का क़िस्सा सुनकर समझ में आएगी.

ख़ैर, मेरी टिप्पणी पर कुछ महिलाओं की प्रतिकिया कुछ यूँ थी, “हाँ, बशर्ते वो लड़की आपके जैसी हो.”

महिलाओं का ये जवाब और उस पर मेरी प्रतिक्रिया...इसने मुझे एक तरह से उकसाया कि मैं अपनी बात आपके साथ बाँटू.

जिन महिलाओं की बात मैं कर रही हूँ वो करीब 30 स्वयं सहायता समूहों से जुड़ी हुई थी जो एक मंच पर आई थीं. लगभग 300 से ज़्यादा की संख्या में आई ये महिलाएँ दिल्ली के आसपास के गाँवों से थीं.

मेरे ग़ैर सरकारी संगठन 'नवज्योति' और 'इंडिया विज़न फ़ाउंडेशन' पिछले तीन सालों से इनके साथ लगातार काम कर रहे हैं. और इस पूरी प्रकिया के दौरान बहुत सारी बातें उभर कर सामने आई हैं.

 ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि घर की चौखट से बाहर निकलने देने की बात से सब पुरुषों में असुरक्षा की भावना थी. जब ये महिलाएँ हमारे केंद्र पर प्रशिक्षण के लिए आती थीं, तो कई बार ये पुरुष सिर्फ़ ये देखने आया करते थे कि आख़िर उन्हें क्या सिखाया-बताया जा रहा है.
 

पिंजरे में क़ैद महिलाएँ

बात सबसे पहले उन पुरुषों से शुरू होती है- वो पुरुष जो बहुत हद तक इन स्त्रियों का जीवन नियंत्रित करते हैं जैसे ससुर, पति, भाई, बेटे..वे सब इस बात को लेकर आशंकित रहते हैं कि ये महिलाएँ यानी उनकी माँ,पत्नियाँ, बेटियाँ या बहनें न जाने ग़ैर सरकारी संगठनों में जाकर क्या सीख रही हैं.

ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि घर की चौखट से बाहर निकलने देने की बात से सब पुरुषों में असुरक्षा की भावना थी. जब ये महिलाएँ हमारे केंद्र पर प्रशिक्षण के लिए आती थीं, तो कई बार ये पुरुष सिर्फ़ ये देखने आया करते थे कि आख़िर उन्हें क्या सिखाया-बताया जा रहा है.

साफ़ था कि ये महिलाएँ पिंजरे में क़ैद पंछियों की तरह थी और पुरुषों को डर था कि कहीं ये पंछी उड़ न जाएँ या फिर कभी लौटकर अपने (तथाकथित) पिंजरे में न आएँ.

या फिर अगर वापस आ भी गईं तो क्या ये महिलाएँ ख़ुद को इस पिंजरे में क़ैद किए जाने पर सवाल तो नहीं उठाएँगी. और तब क्या होगा अगर इन्होंने पिंजरे के बाहर अपने लिए थोड़ी और जगह माँगनी शुरु कर दी?

किरण बेदी
लंबे समय से सामाजिक आंदोलनों से जुड़ी हैं किरण बेदी

या फिर महिलाओं ने बेतुके व्यावहार पर सवाल उठाने शुरू कर दिए..या घर पर होने वाले मनमाने बर्ताव पर ही विरोध जताने लगीं?

पुरुष नहीं चाहते थे कि उनके जीवन में जो महिलाएँ हैं उनपर पकड़ किसी भी तरह से कमज़ोर हो. आख़िर ये स्त्रियाँ उनकी जागीर जो हैं...लगभग.

और यहीं पर सार्थक काम करने वाले ग़ैर सरकारी संगठन बदलाव के बीज समाज में डाल रहे हैं, धीरे-धीरे ही सही.

बदलाव की बयार

पिछल तीन सालों में साक्षरता, पर्यावरण, स्वास्थ्य के मुद्दों, बैंकिंग और उद्यमशीलता में दिए गए प्रशिक्षण से बदलाव आ रहा है और उसने महिलाओं को एक साथ खड़ा किया है.

अब ये महिलाएँ इकट्ठा हुई थीं अपना ख़ुद का एक संगठन खड़ा करने के लिए, उसे नाम देने के लिए और संगठन के कार्यकर्ता चुनने के लिए-अध्यक्ष, सचिव, उपाध्यक्ष. ये देखना एक सुखद अनुभव था कि कैसे इन्हीं स्त्रियों में से कई नामांकन के लिए और वक्ता के तौर पर आगे आईं और फिर वोटिंग के लिए.

ये सब काम वही महिलाएँ कर रही थीं जो एक साल पहले तक अपने चेहरे से घूँघट तक नहीं उठाती थीं. और अब मंच पर माइक लेकर खड़ी हैं, भाषण दे रही हैं, वोटरों के उन सवालों का जवाब देने में लगी हैं कि उनमें ऐसी क्या ख़ासियत है जो उन्हें बेहतर उम्मीदवार बनाती हैं? तुरंत सवाल, तुरंत जवाब.

 मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था.
 

दर्शकों के बीच बैठे हुए एक दृश्य जो मैने देखा, उसे कभी नहीं भूल सकती. अध्यक्ष पद के लिए खड़ी हुई एक उम्मीदवार ने वोट माँगने के लिए अपना भाषण ख़त्म किया और फिर फ़ौरन अपने छोटे बच्चे को दूध पिलाने बैठ गई.

इन सब महिलाओं ने मिलकर अपने संगठन का नाम रखा है- जागृत नारी. और सच भी तो है. ये महिलाएँ कई मायनों में जागृत हुई हैं. और अब संगठित भी हो रही हैं ताकि आगे के लिए भी जागृत रह सकें और समाज-समुदाय को भी फ़ायदा हो.

बोझ या वरदान?

यहाँ सवाल उठता है कि क्या ये प्रशिक्षण महिलाओं को उन ज़िम्मेदारियों से दूर ले जा रहा है जो इन्होंने पहले से ख़ुद के लिए तय की हुई थीं. जवाब है नहीं. बल्कि इस प्रशिक्षण से दोहरा फ़ायदा हो रहा है.

ये महिलाएँ एक ऐसे पथ पर हैं जहाँ वे अपनी प्रतिभा को निखार-सँवार सकती हैं. समाज में अपनी वृहद भूमिका को लेकर ये जागृत हो रही हैं, वे अपने समय और अपने अस्तित्व की अहमियत समझ रही हैं.

यहाँ तक आते-आते इन महिलाओं ने अपने ही उस सवाल का जवाब दे दिया था कि 'वे बेटियों के जन्म का स्वागत करेंगी अगर वो बेटी मेरे जैसी हो'.

अब मैने उन तमाम स्त्रियों को समझाया कि जो चीज़ें उन्हें इतनी कोशिशों के बाद मिली हैं, मुझे वे सब मेरे माता-पिता ने जन्म से ही दिया था... इसलिए बेटियाँ वही बनती हैं जो उनके माता-पिता उन्हें बनाना चाहते हैं, और अगर उन महिलाओं के माता-पिता चाहते तो उन्हें भी ये सब मिल सकता था.

इस सब के बाद मैने उन महिलाओं से सवाल पूछा, "क्या एक जागृत महिला बोझ है या वरदान?" एक स्वर में जवाब आया, "वरदान".

मैने दोबारा पूछा, "अब के बाद आप किसके लिए दुआ करेंगी, लड़का या लड़की?" जवाब था, "एक स्वस्थ बच्चे के लिए, लड़का हो या लड़की".

 
 
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