|
भाजपा से आरएसएस के रिश्ते | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नेतृत्व वर्ष 2005 को यादगार वर्ष बनाना चाहता था. यह संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर का जन्मशताब्दी वर्ष है. संघ नेतृत्व ने योजना बनाई थी कि संघ परिवार से जुड़े सभी संगठन इस वर्ष पूरी ताक़त और रफ़्तार से अपने काम और प्रभाव का विस्तार करेंगे. संघ परिवार की शब्दावली में कहें तो ‘‘राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में सशक्त उपस्थिति’’ का अहसास कराकर संघ परिवार इस वर्ष अपने द्वितीय सरसंघचालक को श्रद्धांजलि अर्पित करने वाला था. लेकिन यह मंसूबा धरा का धरा रह गया है. वर्ष 2005 संघ परिवार के लिए यादगार साबित तो ज़रूर हुआ है, लेकिन बिल्कुल विपरीत कारणों से. संघ के इतिहास में पहली बार मातृसंस्था और सहयोगी संगठनों के बीच शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर गंभीर मतभेद और तनाव सार्वजनिक रूप से उभर आए हैं और इतना विकट आकार ले लिया है कि उसके सामने गोलवलकर जन्मशताब्दी महज औपचारिकता बन कर रह गई है. इनमें सर्वाधिक चर्चित और दूरगामी प्रभाव डालने वाला है संघ नेतृत्व और भाजपा नेतृत्व, विशेष रूप से भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी से बीच उभरा तनाव. इस वर्ष के आरंभ में संघ के सरसंघचालक केसी सुदर्शन द्वारा एक साक्षात्कार में लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी को भाजपा का नेतृत्व नए युवा नेतृत्व को सौंप देने की सार्वजनिक सलाह से सोप ओपेरा शुरू हुआ था. और यह कभी मोहम्मद अली ज़िन्ना के मूल्यांकन पर मतभेद तो कभी संघ की शीर्ष बैठक में भाजपा की आलोचना और अल्टीमेटम के रूप में प्रकट होकर रह-रहकर संघ और भाजपा दोनों के अनुयायिओं के दिल की धड़कन बढ़ा जाता है. कोई इनकार नहीं करता कि संघ नेतृत्व और भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के बीच एक शीतयुद्ध चल रहा है जिसका फ़ैसला अभी नहीं हुआ है. यह शीतयुद्ध अपने आप में एक अनोखी घटना है. अभी साल-दो साल पहले तक आडवाणी संघ नेतृत्व के आँखों का तारा रहे हैं. सत्तर के दशक में जनता पार्टी के शासन के समय से ही, जिसमें आडवाणी एक मंत्री थे, संघ उनकी राजनीतिक बुद्धि और विवेक पर भरोसा करता रहा है. 1985 में भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद से तो वह राजनीतिक क्षेत्र में संघ के आँख, कान, दिमाग और हाथ के रूप में काम करते रहे हैं. क़रीबी रिश्ते 1990 में राम जन्मभूमि के सवाल पर रथयात्रा के ज़रिए उन्होंने न केवल भाजपा को, बल्कि संघ परिवार की विचारधारा को राष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित किया.
90 के दशक में हवाला कांड के बाद लोकसभा से इस्तीफ़ा देकर आडवाणी ने व्यक्तिगत और सार्वजनिक नैतिकता की कसौटी पर ख़ुद को खरा साबित किया. यह अकारण नहीं है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन शासन के उत्तरार्ध में आडवाणी को उपप्रधानमंत्री बनाने के लिए संघ ने ही पहल की थी. संघ नेतृत्व और आडवाणी के बीच भरोसे के रिश्ते का लंबा इतिहास है. भरोसे के इस रिश्ते में अचानक दरार कैसे पैदा हुई, यह अपने आप में एक रहस्य है. कुछ लोग इसके लिए व्यक्तिगत अहं तो कुछ लोग आडवाणी और संघ नेतृत्व के बीच पीढ़ियों के अंतर के कारण संवादहीनता को ज़िम्मेदार मानते हैं. संघ के प्रवक्ता विचारधारा से विचलन जैसे आरोप उछाल रहे हैं. लेकिन ये महत्वपूर्ण कारण नहीं हैं. तनाव के मूल में है राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का छह वर्ष का शासन जिसका नेतृत्व भाजपा कर रही थी. उन छह वर्षों में सत्ता की चकाचौंध में संघ नेतृत्व को अहसास ही नहीं हो सका कि राजग सरकार के क्रियाकलापों से जहाँ एक ओर भाजपा का जनाधार घट रहा है, वहीं समाज में संघ की विश्वसनीयता का भी क्षरण हो रहा है. 2004 में हुए लोकसभा चुनाव के बाद पैदा राजनीतिक परिस्थितियों ने संघ नेतृत्व को वास्तविकता से परिचित कराना शुरू किया. संघ के स्वयंसेवकों ने ही अपने प्रचारकों से राजग सरकार और भाजपा की कारगुजारियों का हवाला देकर संघ नेतृत्व की प्रभावकारिता पर भी प्रश्न-चिन्ह लगाना शुरू कर दिया. इससे परेशान संघ नेतृत्व अब आडवाणी की बलि चढ़ाकर अपने संकट से उद्धार पाना चाहता है. ठीक यही रास्ता संघ नेतृत्व ने 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद चुना था. तब अटल बिहारी वाजपेयी से भाजपा का नेतृत्व छीनकर लालकृष्ण आडवाणी को सौंप दिया गया था. उस बार से फ़र्क केवल एक है. वाजपेयी ने संघ नेतृत्व का निर्देश मानकर चुपचाप भाजपा का नेतृत्व छोड़ दिया था, दुखी चाहे वह जितने हुए हों. उनके विपरीत आडवाणी संघ-नेतृत्व के आकलन और निर्णय को चुनौती देते दीख रहे हैं. तनाव इसी कारण पैदा हुआ है. जब तक आडवाणी भाजपा का नेतृत्व नहीं छोड़ते, तब तक यह तनाव बना रहेगा और बढ़ता ही जाएगा. |
| ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||