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केरल के किसान बनाम कोका कोला-1 | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
बीबीसी की अंग्रेज़ी प्रसारण सेवा की एक टीम ने क़रीब छह महीने पहले यह जानने के लिए केरल का दौरा किया था कि वहाँ स्थित कोका कोला प्लांट की वजह से लोगों को क्या परेशानियाँ हो रही हैं. दरअसल केरल के किसानों ने अपनी शिकायतों को लेकर कोका कोला के ख़िलाफ़ संघर्ष शुरू किया था और अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया था. केरल के लोगों का कहना है कि कोका कोला के प्लांट की वजह से क्षेत्र में पानी की दिक्क़त हो गई है और फ़सलों पर भी असर पड़ा है. उनका कहना है कि कोका कोला के प्लांट को पानी की बड़ी ज़रूरत होती है और इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए कंपनी ने ताक़तवर पंपों वाले कुँए बनाए हैं. नतीजा ये हुआ है कि आसपास के इलाक़े में कुँए सूखने लगे हैं और जो कुछ बचे हैं उनका पानी इस हद तक दूषित हो गया है कि पीने लायक़ ही नहीं बचा है. कचरा किसानों का कहना है कि प्लांट से जो कचरा निकलता है उसे पास के खेतों में डाल दिया जाता है जिससे फ़सलें चौपट हो गई हैं. जबकि कोका कोला इस कचरे को खाद बताती है और कहती है इसे किसानों के अनुरोध पर ही खेतों में डाला जाता है.
कोका कोला ने भारत में अपने दर्जनों प्लांट बनाने के लिए अरबों डॉलर लगाए हैं. कंपनी का कहना है कि वह प्लांटों के आसपास के पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए समर्पित है... इस बारे में कंपनी की नीति कहती है, "कोका कोला का सिद्धांत है कि वह जिसके भी संपर्क में आए उसे फ़ायदा पहुँचाए और उसे तरोताज़ा कर दे." "हमारा हमेशा मानना रहा है कि अच्छे कारोबार का मतलब है - हम पर्यावरण को बहुत सम्मान दें और यह सम्मान पानी और प्राकृतिक संसाधनों से ही शुरू हो जाता है." केरल के प्लैकिमादा इलाक़े में कोका कोला का प्लांट क़रीब 40 एकड़ इलाक़े में फैला हुआ है और अत्याधुनिक तकनीक का नमूना पेश करने वाले इस प्लांट में क़रीब 400 लोग काम करते हैं. यह अकेला प्लांट हज़ारों दुकानों को अपने विभिन्न उत्पादों की आपूर्ति करता है जिनमें कोक, मिरिन्डा, थम्स अप और पानी की बोतल किनली भी शामिल है. ज़ाहिर सी बात है कि इन उत्पादों के लिए भारी मात्रा में पानी की ज़रूरत होती है और इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए कंपनी ने बहुत ताक़तवर पंपों वाले कुँए बनाए हैं जो ज़मीन के अंदर सैकड़ों फुट नीचे से तेज़ी से भारी मात्रा में पानी खींचते हैं. एक पर्यावरण वैज्ञानिक प्रोफ़ेसर के स्त्रीथरन कहते हैं कि इस ताक़त से खींचे जाने से पानी की गुणवत्ता पर भारी असर पड़ता है. "जैसे-जैसे पानी तेज़ी से खींचा जाता है उससे उसमें ऐसे तत्व भी घुल जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं और इस तरह पानी की गुणवत्ता भी धीरे-धीरे खोने लगती है. नतीजा ये होता है कि पानी पीने लायक़ नहीं रह जाता है." बीबीसी टीम बीबीसी की एक टीम केरल के प्लेकिमादा में स्थिति का जायज़ा लेने के लिए हाल ही में फिर पहुँचा तो लोग कुछ डरे सहमे नज़र आए. इस टीम में बीबीसी रिपोर्टर जॉन वैट भी शामिल थे.
लोगों ने इस टीम को गाँव का एक कुँआ दिखाया जो गाँव के क़रीब अस्सी घरों में रहने वाले 600 लोगों का एक मात्र जल स्रोत रहा है. लेकिन इसके पानी का रंग और स्वाद बिल्कुल बदल चुका है. एक ग्रामीण का कहना था, "मेरी उम्र क़रीब 33 साल हो चुकी है और जब से होश संभाला है तब से पानी के साथ इस तरह की कोई समस्या नहीं देखी. जब से यह कंपनी आई है बस तभी से सारी समस्या शुरू हुई है." "हम नहीं समझते कि यह पानी ठीक है और केरल का स्वास्थ्य विभाग भी बता चुका है कि यह ठीक नहीं है. यह बिल्कुल भी पीने के लायक नहीं बचा है." बीबीसी रिपोर्टर जॉन वेट ने प्लांट के अंदर अधिकारियों से बात करनी चाही तो उन्हें अंदर नहीं जाने दिया गया. जॉन वेट ने किसी तरह कोका कोला इंडिया के उपाध्यक्ष सुनील गुप्ता का नंबर हासिल किया और पानी की इस हालत के बारे में सवाल किया तो उनका जवाब कुछ इस तरह था. "हमने राज्य के जल अधिकारियों और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से जाँच कराई हैं और पानी के बारे में ये आरोप किसी भी वैज्ञानिक जाँच से सच साबित नहीं होते हैं." बीबीसी रिपोर्टर जॉन वेट ने सुनील गुप्ता को पानी से भरी वह बोतल दिखाई जो प्लांट की दीवार से पाँच मीटर दूर स्थित एक कुँए से भरी गई थी. जॉन वेट ने जब सुनील गुप्ता से यह सवाल किया कि क्या वह ख़ुद इस पानी को पी सकते हैं तो सुनील गुप्ता ने उसे पीने से साफ़ इनकार कर दिया.
"साफ़ कहूँ तो नहीं. जैसा कि आप कह रहे हैं कि यह पानी प्लांट के पास से भरा गया है तो मैं इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं करुंगा. लेकिन वहाँ रहने वाले लोगों के आसपास के पानी की आमतौर पर हम जाँच करते रहते हैं और जाँच में पाया गया है कि वहाँ का पानी ठीक है और पीने लायक़ है." "आप इस पानी की जाँच करा लीजिए उसी के बाद हम बात कर सकते हैं." पानी में हुए इस बदलाव ने इलाक़े के वातावरण और खेतीबाड़ी को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है. बीबीसी की टीम को ऐसे बहुत से कुँए दिखाए गए जो हाल के वर्षों में धीरे-धीरे सूख चुके हैं जिससे बहुत से परिवारों की आजीविका पर ही ख़तरा मंडराने लगा है. बहुत से परिवारों की फ़सलों की सिंचाई सिर्फ़ इन्हीं कुँओं के ज़रिए होती थी. बहुत से ऐसे भी परिवार थे जिनकी आजीविका सिर्फ़ खेतीबाड़ी ही है. इतना ही नहीं पीने का पानी लाने के लिए भी अब इन लोगों को रोज़ाना मीलों दूर चलकर जाना पड़ता है. |
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