मोदी को चाहने वाले भी क्यों हैं निराश?

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- Author, ज़ुबैर अहमद
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली
आप जब ये लेख पढ़ रहे होंगे तो ज़रा सोचिए कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस समय क्या कर रहे होंगे.
क्या वो देश की समस्याओं पर अपने सलाहकारों के साथ चिंतन कर रहे होंगे?
या फिर एक लीडर की हैसियत से अपनी गिरती साख को फिर से मज़बूत करने की योजना बना रहे होंगे?
या आने वाले बिहार विधान सभा चुनाव में जीत की कोशिश में जुटे होंगे.
या फिर दिल्ली से बाहर किसी यात्रा पर होंगे?
आप क्या चाहते हैं कि उन्हें किस मुद्दे पर अधिक समय देना चाहिए?
पढ़ें विस्तार से

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मेरे विचार में अगर आप उनके कट्टर समर्थक हैं तो आपको कोई अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ेगा कि वो इस समय क्या कर रहे होंगे.
अगर उनके आलोचक हैं तो भी आप को अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ेगा क्योंकि वो इस समय जो कुछ भी कर रहे होंगे आपकी इसमें शायद सहमति नहीं होगी.
लेकिन उन लोगों का क्या जो पिछले साल उनके बड़े समर्थक थे मगर अब उनसे मायूस होते जा रहे हैं?
मेरे विचार में इस श्रेणी के लोग चाहेंगे कि नरेंद्र मोदी कुछ ठोस और दबंग फैसले लेना शुरू कर दें.
राजनितिक विश्लेषक <link type="page"><caption> प्रताप भानु मेहता कहते</caption><url href="http://indianexpress.com/article/opinion/columns/loud-but-silent/#comments" platform="highweb"/></link> हैं, "प्रधानमंत्री मोदी गरजते हैं लेकिन बरसते नहीं हैं."
मोदी की खामोशी

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मोदी की ख़ामोशी प्रताप भानु मेहता को पसंद नहीं. उनका मतलब है मोदी बोलते ज़रूर हैं लेकिन अहम मुद्दों पर ख़ामोश रहते हैं.
प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ ये एक तरह से आम राय बनती जा रही है.
इन्हीं प्रताप भानु मेहता ने मोदी की चुनावी जीत के बाद <link type="page"><caption> कहा था</caption><url href="http://indianexpress.com/article/opinion/editorials/modis-moment-alone/" platform="highweb"/></link>, "उनकी जीत सियासी इतिहास की एक बेमिसाल घटना है और मोदी परिवर्तन की आवाज़ बन गए हैं."
उस समय उनकी तारीफ़ में मेहता ने कई लेख लिखे और सभी में उन्होंने 'मोदी फ़िनॉमेनन' को सराहा.
सदानंद धूमे वॉशिंगटन की एक संस्था से जुड़े हैं, जिनके मोदी पर लेख मैं दो साल से पढ़ रहा हूँ.
उन्होंने चुनाव से काफी पहले से ये कहना शुरू कर दिया था कि 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी अपनी पार्टी को भारी बहुमत से जिताएंगे.
आम चुनाव के कुछ महीनों बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की जीत के बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी का एक तरह से मृत्युलेख लिख दिया था.
वो मोदी की प्रशंसा करते नहीं थकते थे. लेकिन आज वो मोदी सरकार पर उस तरह का विश्वास नहीं जताते जैसा पहले जताते थे.
'कमज़ोर दिखने लगे हैं'

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<link type="page"><caption> </caption><url href="http://www.wsj.com/articles/how-modi-can-shine-again-1433352218" platform="highweb"/></link>
अब <link type="page"><caption> सदानंद धूमे</caption><url href="http://www.wsj.com/articles/how-modi-can-shine-again-1433352218" platform="highweb"/></link> का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनाव में ऐतिहासिक जीत के एक साल बाद अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों के बीच भारत की अर्थव्यवस्था के बारे में उत्साह लुप्त होता जा रहा है.
नरेंद्र मोदी इन दिनों उस पुराने हिंदी फ़िल्मी हीरो की तरह नज़र आने लगे हैं जिसके आस-पास कमज़ोर और अप्रभावी 'एक्सट्राज' घूमते रहते हैं, लेकिन हीरो असलियत से ज़्यादा बलवान, बुद्धिजीवी और बहुत सुंदर दिखता है.
मोदी विरोधी विश्लेषकों के अनुसार, अपनी सरकार में प्रतिभावान मंत्रियों के अभाव में वो अकेले कद्दावर नेता ज़रूर नज़र आते हैं, लेकिन अकेले पूरी सरकार कैसे चला सकते हैं.
नरेंद्र मोदी के पिछले साल तक समर्थक रहे लोग अब कहने लगे हैं कि वो जितना दबंग नेता पहले नज़र आते थे अब उतना ही कमज़ोर दिखाई देने लगे हैं.
विपक्ष के विरोध पर हर मुद्दे से वो अब पीछे हट जाते हैं.
साख़ का सवाल
भूमि अधिग्रहण बिल पर विपक्ष का विरोध हो या संसद में विपक्ष का हंगामा, मोदी सरकार ने कई अहम मुद्दों पर या तो रक्षात्मक रुख अपनाया है या वो पीछे हट गई.

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लेकिन मोदी सरकार के लिए ख़ुशख़बरी ये है कि समय इसके पास अब भी है.
पिछले साल विकास और अच्छी सरकार वाले चुनावी वादे हों या स्वतंत्रता दिवस पर लाल क़िले से दिए गए युवाओं को नौकरियों के वायदे, प्रधानमंत्री चाहें तो इन्हें पूरा करके अपनी गिरती साख़ को दोबारा बहाल कर सकते हैं.
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