‘राजनीति’ वापस आएगी इस ब्रेक के बाद

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- Author, प्रमोद जोशी
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.
मॉनसून सत्र का हंगामा
हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?

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शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.
मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार

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कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.
जवाब में सरकार ने कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की धोती खोल दी. यह साबित करने के लिए कि मेरा भ्रष्टाचार तेरे भ्रष्टाचार से कम है.
एक-दूसरे को नंगा साबित करना गांव-मुहल्लों की समझ है. राष्ट्रीय राजनीति की भी.
एक बौद्धिक तबक़ा कहता है कि राजनीति में शोर है तो उसे दिखाना और सुनाना भी चाहिए.
संसदीय लोकतंत्र भले ही हमने पश्चिम से ग्रहण किया है, पर इसमें हमारी मौलिकता शामिल है. सड़क पर शोर है तो संसद में क्यों नहीं?
उसे पश्चिमी कसौटियों पर न तौला जाए. पर यह संस्था तो पश्चिम से आई है. क्या इसे हमारे ऊपर जबरन थोपा गया है?
संजीदगी का लापता होना

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ब्रिटिश संसद की तरह हमारी संसद में लम्बे भाषण नहीं दिए जाते. उन्हें ख़ामोशी से सुना भी नहीं जाता.
शोर और हंगामे के पीछे हमारे व्यवस्थागत अंतर्विरोध भी है. क्या यह भी सच नहीं है कि राजनीतिक दलों के पास अच्छे वक्ता नहीं है. या अच्छे वक्ता तैयार नहीं किए गए हैं?
जो हैं उनके पास होमवर्क और अपने तर्कों से जनता का मन जीतने का कौशल नहीं है.
मीडिया में संसदीय कार्यवाही की ख़बरें सत्तर के दशक तक छपती थीं. उस ‘उबाऊ’ कवरेज की जगह चटपटी ख़बरों ने ले ली. शोर और हंगामा होने पर ही मीडिया ‘राजनीति’ पर ध्यान देता है.
यूं भी प्रतिनिधि सदन निर्धारित समय से कम समय तक चलते हैं. चलते भी हैं तो प्रश्नोत्तर काल जैसे काम सबसे पहले काटे जाते हैं.
गांधी-नेहरू और अम्बेडकर विदेश में पढ़कर आए थे. गांधी ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के आलोचक थे, पर उनके सपनों का सिस्टम यह तो नहीं था.
‘साधन और साध्य’ की एकता से जुड़ा उनका आग्रह अनुशासन पर ज़ोर देता था.
नई राजनीति?

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पिछले कुछ समय से दिल्ली सरकार विज्ञापन जारी कर रही है. इन्हें पढ़ने से लगता है कि केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार दो शत्रु देश हैं.
यह नई राजनीति है?
फ़रवरी 2014 में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दफ़ा 144 को तोड़कर धरने पर बैठे थे. उनके क़ानून मंत्री ने छापा मारकर कुछ विदेशी महिलाओं के व्यवहार को लेकर हंगामा किया था.
केजरीवाल की तरह आंध्र के मुख्यमंत्री किरण कुमार भी तेलंगाना के सवाल पर धरने पर बैठे थे.
पन्द्रहवीं लोकसभा के आख़िरी सत्र में किसी ने सदन में ‘पेपर-स्प्रे’ चलाया. किसी ने चाक़ू भी निकाला.
तेलंगाना बिल को लोकसभा से पास कराने के लिए टीवी ब्लैक आउट किया गया. इस ‘लोकतांत्रिक दृश्य’ को हमने जनता को दिखाने लायक़ भी नहीं समझा.

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सन 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा में खूंरेज़ी हुई थी. तब वह अपने क़िस्म की पहली घटना थी.
उसके बाद ऐसा कई जगह हुआ. इन तस्वीरों को पश्चिमी देशों में बड़े चाव से देखा जाता है. वे हमारे लोकतंत्र को समझना चाहते हैं.
उसके पहले हमें भी तो इसे समझना होगा. लाए तो हम इसे पश्चिम से ही हैं.
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