आम चुनाव में ये पाँच चीज़ें पहले कभी नहीं दिखीं

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- Author, सौतिक बिस्वास
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली
चंद घंटे में सोलहवीं लोकसभा की तस्वीर साफ़ हो जाएगी. सरकार जिसकी भी बने, जैसी भी बने इस बार के चुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं. इस बार के चुनावों ने भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कई नए रिकॉर्ड बनाए हैं और कई पुराने रिकॉर्डों को तोड़ा है.
इन चुनावों की पांच उल्लेखनीय बातों पर एक नज़र.
सबसे ज़्यादा मतदान
सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव मतदाताओं की सफ़लता का मौका है. करीब 54 करोड़ या 66.4 फ़ीसदी मतदाताओं ने अपने मतदान का प्रयोग किया है. 36 दिन और नौ चरणों में हुए चुनाव में आज तक के इतिहास में सबसे ज़्यादा वोट पड़े हैं.
इससे पहले 1984 में, पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनावों में, 64 फ़ीसदी मत पड़े थे.
इस बार 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 15 में अब तक का सर्वाधिक मतदान हुआ है. जबकि 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 2009 के चुनावों के मुकाबले ज़्यादा मतदान हुआ है.
और 35 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 16 में महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले ज़्यादा मत डाले हैं.

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भारत में लोग इतने उत्साह से मतदान क्यों करते हैं?
लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ाने वाली, राजनीति विज्ञानी मुकुलिका बैनर्जी कहती हैं कि गरीब लोग "नागरिकता के महत्व, अधिकार और कर्तव्य के साथ ही पहचान" से प्रेरित होकर बड़ी संख्या में मतदान करते हैं.
"सभ्रांत लोग, जो आमतौर पर सरकार बनाने में रुचि नहीं लेते और रोज़मर्रा के लिए इस पर निर्भर भी नहीं हैं, वह अपने नागरिक कर्तव्य की पूर्ति के लिए वोट देते हैं."
यकीनन, चुनाव आयोग को लगता है कि इस बार का रिकॉर्ड मतदान उनके आगे बढ़कर मतदाताओं को उनकी भूमिका के बारे में साफ़ करने की वजह से हुआ है.
लेकिन राजनीति विज्ञानी आपको बताएंगे कि ज़्यादा मतदान अक्सर सत्ता से भारी नाराज़गी और बदलाव की इच्छा से होता है.
सबसे ख़र्चीला
यह चुनाव भारत के इतिहास का सबसे महंगा चुनाव भी है. इससे भारत के राजकोष पर 34 अरब से ज़्यादा का बोझ पड़ा है जो 2009 के चुनावों में खर्च हुए करीब 14.75 अरब रुपये के मुकाबले 131 फ़ीसदी ज़्यादा है.
अगर आप सरकार, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों सबके ख़र्च को जोड़ दें तो भारत ने इन नौ चरण के चुनावों में करीब 3.14 ख़रब रुपये ख़र्च किए.

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ख़र्च बढ़ने की एक अन्य वजह यह है कि इस बार सरकार ने उम्मीदवार के चुनाव पर किए जाने वाले खर्च की सीमा को 40 लाख से बढ़ाकर 70 लाख रुपये कर दिया.
यह राशि 2012 के अमरीकी चुनाव में उम्मीदवारों और पार्टियों द्वारा खर्च किए गए करीब 4.14 खरब रुपये से थोड़ी ही गम है. कई लोगों का मानना है कि प्रचार के दौरान और भी बहुत ज़्यादा पैसा ख़र्च किया गया था, जिससे पैसे के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंता बढ़ गई है.
'राष्ट्रपति चुनाव' की तर्ज पर
बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने 2014 के चुनाव को खुद पर जनमत संग्रह बना दिया. यह एक ऐसी चीज़ है जो इंदिरा गांधी के ज़माने के बाद से नहीं दिखी है, जब पार्टी के वरिष्ठ नेता ने कह गया था, 'इंदिरा ही भारत हैं.'

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पिछले साल सितंबर में जब बीजेपी ने घोषणा की कि मोदी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, वह करीब 400 न्यूज़ चैनलों के ज़रिए एयरवेव पर छा गए. उनके समर्थकों ने मुखौटे, टोपियां, कागज़ के धूप के चश्में और उनकी तस्वीर वाले रुमाल पहने.
मोदी फ़्लैश ड़्राइव और फ़ोटो बुक भी आ गईं. 25 राज्यों में 400 से ज़्यादा सार्वजनिक सभाओं को संबोधित करते हुए वह खुद को किसी अन्य व्यक्ति के रूप में संबोधित करते थे.
'मोदी पंथ' (Modi cult) का निर्माण यकीकनन काफ़ी पहले शुरू हो गया था. उनके और उनके काम पर कई फ़िल्में बनाई गईं और उनके बारे में 120 से ज़्यादा किताबें लिखी गईं. इनमें से कई में उन्हें आधुनिक देश का वास्तुकार और 'मैन ऑफ़ द मूमेंट' जैसे नाम दिए गए.
गुजरात में प्रशंसकों के एक क्लब की बनाई एक फ़िल्म में मोदी को सुपरमैन-सरीखा दिखाया गया है जो 'पॉवर्टी बोर्ड' पर डार्ट फेंक रहे हैं और आतंकियों को पकड़ने के लिए झपटते हैं.
पिछले कुछ सालों से उनका चेहरा विज्ञापनों और बिलबोर्ड्स में दिखाई दे रहा है, खाने के पैकेटों में दिख रहा है, स्कूली बच्चों के लिए सस्ते खाने के पैकेटों के अलावा एड्स विरोधी प्रचार के लिए सरकार द्वारा बांटे जा रहे कंडोम के पैकेटों में भी दिख रहा है.
कठोर हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक मोदी को 'हिंदू हृदय सम्राट' और '56 इंच के सीने वाला' आदमी बताया जाता रहा है.
सोशल मीडिया के स्तंभित करने वाले आंकड़े बताते हैं कि कैसे नरेंद्र मोदी ने इन चुनावों को राष्ट्रपति चुनाव जैसा बना दिया है.

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बीजेपी के इस नेता ने चुनाव से संबंधित 5.60 करोड़ ट्वीट्स में से 20 फ़ीसदी खुद किए. यह उनकी पार्टी बीजेपी के 11 फ़ीसदी के मुकाबले करीब दोगुने हैं. कांग्रेस ने राहुल गांधी के दो फ़ीसदी के मुकाबले ढाई गुने- पांच फ़ीसदी, ट्वीट किए.
शुक्रवार को जब वोटों की गिनती होगी, तब हमें पता चलेगा कि प्रचार का व्यक्तिवादीकरण, जिसे उनके आलोचक 'किस्सा गढ़ना' कहते हैं, ने अपनी पार्टी को फ़ायदा पहुंचाया है या नहीं.
कटु प्रचार
2014 के चुनाव में हाल ही के वक्त का सबसे कटु प्रचार भी हुआ है. बहुत से लोग इसकी वजह बहुत लंबे- एक महीने से ज़्यादा- खिंचे मतदान को भी मानते हैं.
दोनों मुख्य दलों ने एक दूसरे पर निर्दयतापूर्वक हमला किया. राहुल गांधी ने बीजेपी पर आरोप लगाया कि वह देश को धार्मिक आधार पर बांटने की कोशिश कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी के एक उम्मीदवार को तब गिरफ़्तार कर लिया गया जब उन्होंने कहा कि वह मोदी के टुकड़े कर देंगे. एक बीजेपी नेता ने कहा कि वह सोनिया गांधी और उनके बेटे को नंगा कर 'वापस इटली भेज देंगे'.

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नरेंद्र मोदी के एक वरिष्ठ सहयोगी ने उत्तर प्रदेश के दंगा-प्रभावित क्षेत्र में कहा कि चुनाव 'बदला लेने' के लिए है. मोदी को उनके राजनीतिक विरोधी कई तरह से 'चायवाला' और गधा कह रहे थे.
इससे पहले कभी भी भाषण इस कदर गाली-गुफ़्तार और आवेश से भरे नहीं रहे थे.
सोशल मीडिया का पदार्पण
भारत में पहली बार राजनीतिक दलों ने मतदाताओं को सोशल मीडिया पर प्रभावित करने की कोशिश की. अप्रैल 2013 में प्रकाशित एंटरनेट और मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया (आईएएमएआई) की एक रिपोर्ट और मुंबई के आइरिस नॉलेज फ़ाउंडेशन के अनुसार फ़ेसबुक इस्तेमाल करने वालों का 543 में से 160 सीटों के चुनावों में 'बेहद जबरदस्त प्रभाव रहेगा'.
यह एक ऐसी जानकारी है जिस पर मुख्य राजनीतिक दलों ने ध्यान दिया है. आईएएमएआई और मुंबई के बाज़ार शोधकर्ता आईएमआरबी इंटरनेशनल के अक्टूबर, 2013 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार सत्ताधारी कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी अपने चुनाव खर्च का 2-5 फ़ीसदी सोशल मीडिया के लिए निर्धारित किया है.

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2009 के पिछले आम चुनाव के वक्त भारत में सोशल मीडिया का बहुत छोटा था. लेकिन आज, 9.30 करोड़ फ़ेसबुक के यूज़र्स हैं और ट्विटर के करीब 3.3 करोड़ अकाउंट्स हैं. इसके परिणामस्वरूप बहुत से राजनीतिक दलों ने अपनी ऑनलाइन उपस्थिति बढ़ा दी है.
एक बार फिर, मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी सफल हो गई है. उदाहरण के लिए ट्विटर के आंकड़ों को देखें, नरेंद्र मोदी ने चुनाव से जुड़े 5.60 करोड़ ट्वीट्स में से 20 फ़ीसदी किए हैं.
मज़ेदार बात यह है कि आम आदमी पार्टी चुनाव से जुड़े 15 फ़ीसदी ट्वीट्स के साथ दूसरे स्थान पर है. कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कांग्रेस पार्टी तीसरी स्थिति में है, जिसके चुनाव संबंधी सिर्फ़ पांच फ़ीसदी ट्वीट हैं.
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