'फ़ैसले लेने में तेज़ी नई सरकार की पहली चुनौती'

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16 मई के बाद जो भी सरकार सत्ता में आएगी, उसके सामने कई चुनौतियाँ होंगी.
क्या नई सरकार देश के विकास को रफ़्तार दे सकती है? अगर हां, तो उसे क्या करना होगा, किन चुनौतियों का सामना करना होगा?
अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया से बीबीसी संवाददाता विनीत खरे ने यही समझने की कोशिश की.
नई सरकार के सामने सबसे पहली क्या चुनौती होगी?
सबसे पहले तो बजट की चुनौती होगी, क्योंकि नई सरकार को छह हफ़्ते में बजट पेश करना होगा.
उसमें कई चुनौतियां होंगी मसलन -वस्तु और सेवा कर, प्रत्यक्ष कर ढांचा, ख़र्च किस तरह, किस दिशा में करना है? बहुत ज़्यादा बदलाव तो हो नहीं सकते क्योंकि समय कम है और वित्त वर्ष शुरू हो चुका है.
यह तो तात्कालिक बात है लेकिन इससे भी बड़ी चुनौती सरकार के लिए यह होगी कि फ़ैसले करने में जो गतिहीनता है, उसे ख़त्म करना.
उसमें दिक़्क़त यह है कि शीर्ष नौकरशाही में सचिव स्तर के अधिकारियों में बहुत हिचक है क्योंकि कई मामलों में ऐसे रिटायर्ड अधिकारियों पर भी चार्जशीट हुई है, जो बेहद ईमानदार माने जाते थे.
इसलिए नौकरशाही थम गई है. इसके चलते दो-एक फ़ीसदी विकास दर गिरी है. तो फ़ैसला करने की प्रक्रिया को रफ़्तार देनी पड़ेगी.
इसके अलावा, नई सरकार के लिए बैंकिंग की स्थिति भी एक चुनौती होगी, जो इस वक़्त कमज़ोर है. अभी नॉन परफॉर्मिंग असेट्स और री-स्ट्रक्चर को मिलाकर 10 फ़ीसदी लोन हैं. तो सरकार को फ़ैसला करना पड़ेगा कि या तो सभी का पूंजीकरण करें या बैंकों को अंश बढ़ाने की छूट दी जाए.
लेकिन कई मामले अदालत में भी हैं, उनमें जांच चल रही है?

मुझे लगता है कि अगर कार्यपालिका अपना काम ठीक से करना शुरू करती है, तो शायद न्यायपालिका में भी फ़र्क पड़ेगा. अभी अदालतें इतनी ज़्यादा सक्रिय इसलिए हो गई हैं क्योंकि कार्यपालिका अपना काम ठीक से नहीं कर पा रही थी.
लेकिन एक बार कार्यपालिका ठीक हो जाती है तो अदालतों पर भी फ़र्क पड़ेगा, हालांकि न्यायपालिका के लिए कार्यपालिका कुछ नहीं कर सकती.
लेकिन जहां तक राज्यों का सवाल है, तो राज्य भी आगे बढ़ना चाहते हैं. मुझे लगता है कि नई सरकार को विकेंद्रीकरण की दिशा में बढ़ना चाहिए.
केंद्र और राज्य साथ मिलकर काम करें, यह एक अच्छी संभावना है. लेकिन यह अब एक दीर्घकालिक योजना लगती है, जिसकी शुरुआत पहले साल में ही करनी होगी.
केंद्र को वित्तीय और विधायी दोनों तरह से राज्यों को ज़्यादा छूट देनी होगी. क्योंकि सुधारों के अगले दौर में श्रम क़ानून या भूमि अधिग्रहण को राज्यों के मार्फ़त लाना ज़्यादा ठीक रहेगा.

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यह ठीक है कि रास्ता इतना आसान नहीं है, लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं है. ध्यान रखिए कि अर्थव्यवस्था पिछले दस साल में आठ-नौ फ़ीसदी का विकास देख चुकी है. हमारी बचत की दर अब भी अच्छी चल रही है, हालांकि वो कुछ कम हुई हैं लेकिन फिर भी 30 फ़ीसदी या उससे कुछ ऊपर चल रही है. निवेश दर भी ठीक है.
हमारी अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की वजह से जो प्रतियोगिता आई थी, वह अभी कायम है. लेकिन पिछले दस साल में आर्थिक सुधार को आगे बढ़ाने का काम नहीं हो पाया है.
गुजरात मॉडल को आप कैसे देखते हैं?
ऐसा नहीं है कि गुजरात हमेशा से इतनी तेज़ी से विकास कर रहा था. साठ के दशक में गुजरात की विकास दर राष्ट्रीय औसत से कम थी. 70 के दशक में ऊपर आ गई थी, 80 के दशक में फिर गिर गई.
नब्बे और 2,000 के दशक में गुजरात की विकास दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर रही है. नब्बे के दशक में सुधार शुरू हो गए थे और 2000 के दशक में यह और बेहतर हुआ है.

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कुछ लोग कहते हैं कि गुजरात के लोग उद्यमी होते हैं. ऐसे तो मेरे राज्य राजस्थान में मारवाड़ी भी बहुत उद्यमी होते हैं.
तो उन मारवाड़ियों का क्या हुआ? वे आधे से ज़्यादा जाकर गुजरात में बैठे हैं, क्योंकि राजस्थान में प्रशासन बहुत कमज़ोर है. उद्योग-व्यापार विकास नहीं कर पाए हैं.
दूसरी बात यह है कि 2,000 के दशक में गुजरात की विकास दर नौ से दस फ़ीसदी रही है. कोई भी राज्य अगर नौ से दस फ़ीसदी की दर से विकास कर सके, स्थाई भाव से नौ-दस साल, तो यक़ीनन यह उपलब्धि है.
मैं यह नहीं कर रहा कि दूसरों ने ऐसा नहीं किया है, लेकिन सवाल यहां गुजरात का है- उसने प्रगति की है या नहीं. तो की है. ऐसा भी नहीं है कि किसी एक ही क्षेत्र में विकास हुआ हो. उद्योगों के साथ कृषि में भी तेज़ी आई है. तो विविध क्षेत्रों में विकास हुआ है.
ग़रीबी में कमी आई है. अगर आप देखें तो ग़रीबी में तेज़ी से कमी आई है और वह सभी तबक़ों में. अनुसूचित जाति में तो इतनी तेज़ी से ग़रीबी में कमी आई है कि सामान्य वर्ग और अनुसूचित जाति की ग़रीबी दर में डेढ़-दो फ़ीसदी का फ़र्क रह गया है.
मोदी ने ऐसा क्या किया है जो अन्य राज्यों में नहीं हुआ?
कृषि को ले लें. कपास गुजरात की मुख्य फ़सल है, उसमें तेज़ी से विकास हुआ है. बीटी कॉटन महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश ने भी उगाना शुरू किया है लेकिन प्रति हेक्टेयर उत्पादकता गुजरात में सबसे ज़्यादा है. इसमें सिंचाई का महत्वपूर्ण योगदान है.

इसके अलावा गुजरात में भूमिगत जल स्तर काफ़ी उठा है, ख़ासकर सौराष्ट्र में इसे काफ़ी ऊपर लाया जा सका है- हरियाणा और पंजाब के विपरीत जहां भूमिगत जलस्तर गिरा है.
नीति के स्तर पर विस्तार के लिए मुख्यमंत्री अतिरिक्त सक्रिय रहे हैं. वह एक कृषि मेला आयोजित करते हैं- जिसमें कृषि क्षेत्र के सभी विशेषज्ञों को लेकर किसानों के पास जाते हैं.
अमर्त्य सेन और आपकी सोच में फ़र्क क्या है?
उद्देश्यों पर तो अब उतना फ़र्क नहीं रह गया है. वह भी अब विकास को तवज्जो देने लगे हैं. पहले इतना नहीं था, लेकिन अब ध्यान देने लगे हैं. उनका मानना है कि शिक्षा पर ध्यान देंगे तो सब-कुछ हो जाएगा और शिक्षा पर ध्यान नहीं देंगे तो कुछ नहीं हो पाएगा- लेकिन ऐसा नहीं है.
शिक्षा का महत्व है- अर्थव्यवस्था के लिए भी अच्छा है. लेकिन जब तक अन्य प्रोत्साहन देने वाली आपकी नीतियां नहीं होंगी, तब तक शिक्षा का भी पूरा फ़ायदा नहीं उठा पाएंगे आप. जैसे पहले अपना लाइसेंस-परमिट राज हुआ करता था, आयात पर प्रतिबंध हुआ करता था- आप शिक्षा कितनी भी बढ़ा लें आपका विकास नहीं होगा.

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आप सोवियत संघ में देखें, क्यूबा में देखें- 60 के दशक के मध्य और अंत तक तो उनकी साक्षरता दर सौ फ़ीसदी के क़रीब थी, लेकिन विकास तो नहीं हुआ. सोवियत संघ में 70 के दशक में साक्षरता पूरी थी, निवेश बढ़ रहा था लेकिन विकास दर घट रही थी.
हमें लगता है कि अन्य नीतियों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. बाज़ार की सहयोगी नीतियां हों, बाह्य अनुकूलन हो, व्यापार, विदेश नीति, घरेलू बाज़ार में प्रतियोगिता की नीति हो, श्रम बाज़ार की नीतियां हों, लचक होनी चाहिए- भूमि अधिग्रहण में लचक होनी चाहिए.
अमर्त्य सेन तो इन नीतियों का समर्थन नहीं करते और यही फ़र्क है.
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