कश्मीरी पंडितों की घाटी में अपने घरों में वापसी कितनी आसान?

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- Author, मोहित कंधारी
- पदनाम, जम्मू से, बीबीसी हिन्दी के लिए
विस्थापित कश्मीरी पंडित रुबन जी सप्रू पिछले 10 सालों से कश्मीर घाटी में नौकरी कर रह रहे हैं लेकिन आज भी वो अपने घर से दूर कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच सरकार की ओर से चलाए जा रहे ट्रांज़िट कैंप में रह रहे हैं.
रुबन ऐसे अकेले विस्थापित कश्मीरी पंडित नहीं हैं जो पिछले 10 सालों से कश्मीर में रहते हुए भी अपने घर से दूर विस्थापन का दर्द झेल रहे हैं.
इस समय पूरे कश्मीर में करीब चार हज़ार विस्थापित कश्मीरी अलग-अलग ट्रांज़िट कैम्पों में रह रहे हैं और लगातार सरकार के सामने जम्मू स्थित 'घर वापसी' की मांग को दोहराते रहते हैं.
पिछले 30 सालों में उन्होंने तिनका-तिनका जोड़ कर अपना नया आशियाना जम्मू में या जम्मू से बाहर देश के अन्य राज्यों में बना लिया है अब फिर से यह सब छोड़ कर कश्मीर लौटना उनके लिए संभव नहीं है.
उनका मानना है 1990 में कश्मीर घाटी से विस्थापन के बाद 2010 में उन्हें एक बार फिर अपना घर परिवार छोड़ सरकार की ओर से दी गई नौकरियाँ करने के लिए कश्मीर घाटी का रुख़ करना पड़ा था.
2010 में प्रधानमंत्री राहत पैकेज के अंतर्गत 3000 कश्मीरी पंडितों को घाटी में नौकरियों दी गयी थी.
हालाँकि वो कहते हैं कि उनकी नौकरी के पैकेज को 'घर वापसी' से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए.

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रुबन जी सप्रू भी उन उम्मीदवारों में से एक थे जिन्हें सरकारी नौकरी मिली थी. वो इस समय श्रीनगर स्थित सरकारी हाई स्कूल में कार्यरत हैं. विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए दूसरे चरण में केंद्र सरकार ने 2015 में 3000 अतिरिक्त नौकरियों का ऐलान किया था.
लेकिन कश्मीर में इतना वक़्त बिताने के बाद भी इन कश्मीरी पंडितों को लगता है कि अभी कश्मीर में उनकी 'घर वापसी' संभव नहीं है और न ही कश्मीर के हालात इतने सुधरे हैं कि वो अपने परिवार के सदस्यों के साथ वहां आ कर बस जाएं.
घर नज़र नहीं आते अब...
इस बीच जब-जब रुबन जी ने अपने गांव वापस जाने की कोशिश की उन्हें ज़मीन पर कहीं अपना घर नज़र नहीं आया. उन्हें आज भी अपने गांव जा कर ऐसा लगता है कि जैसे वो किसी 'युद्ध क्षेत्र' में खड़े हों. रुबन जी सप्रू अनंतनाग जिले के सालिया गांव के रहने वाले हैं.
1989 -1990 के बीच कश्मीर घाटी में पैदा हुए हालात के चलते बड़ी संख्या में कश्मीरी हिन्दू परिवार अपना-अपना घर छोड़ कर वहां से सुरक्षित निकल आए थे. सबसे अधिक कश्मीरी पंडित 19 जनवरी, 1990 के दिन से वहां से विस्थापित हुए थे.
उन दिनों में चरमपंथी संगठन इश्तिहारों के ज़रिये कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए धमकाते थे. बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया, जिससे लोगों में डर पैदा हो गया था. कश्मीर से विस्थापन के बाद ये परिवार जम्मू और देश के अन्य शहरों में जाकर बस गए थे.
जम्मू से सटे बाहरी इलाके नगरोटा में 2011 में विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए जगती टाउनशिप का निर्माण किया गया था जहां लगभग 4000 विस्थापित परिवार रहते हैं. इसके अलावा पूरे जम्मू शहर और उस के आसपास के इलाकों में हजारों कश्मीरी पंडित परिवारों ने अपना घर बना लिया है.
तीन दशक बीत जाने के बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें कश्मीरी हिन्दुओं की घर वापसी सुनिश्चित नहीं कर पाई.
लेकिन जब से केंद्र सरकार ने धारा 370 और 35-A को हटाया है और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया है, तबसे यहां रहने वाले विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवारों की घर वापसी के सवाल पर एक गंभीर बहस छिड़ी हुई है.

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कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास कितना आसान?
कश्मीरी पंडित समुदाय की अगुवाई करने वाली संस्था पनुन कश्मीर के वरिष्ठ नेता डॉक्टर अग्निशेखर का मानना है कि कश्मीरी पंडितों की अपने-अपने घरों में वापसी का प्रस्ताव एक झूठा प्रलोभन है.
वो कहते हैं जब उनका खुद का घर जला डाला गया, हड़प लिया गया है, वो कैसे अपने घर वापस जा सकते हैं. डॉ. अग्निशेखर ने अपने जम्मू स्थित आवास में बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहा, "जब बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने अपने मकान मजबूरी में बेच दिए या उनको जला दिया गया, उनकी उपजाऊ ज़मीन हड़प ली गयी हो वो कैसे ऐसी जगह दोबारा जा कर अपना जीवन बसर कर सकते हैं?"
डॉ. अग्निशेखर का मानना है कि जब से केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया है उन्हें पूरी उम्मीद है कि सरकार कश्मीरी पंडित समुदाय की एक ही स्थान पर पुनर्वास करने की मांग को हरी झंडी दे देगी, ताकि वो कश्मीर घाटी में एक सुरक्षित माहौल में रह कर अपना जीवन बिता सकें.
डॉ अग्निशेखर मानते हैं कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद से विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवारों की घर वापसी की उम्मीदों की खिड़की भी खुल गयी है. उन्हें लगने लगा है कि अब हम कश्मीर घाटी के दरवाज़े के पास पहुंच चुके हैं और वापसी के लिए उनको अपना घर, अपनी ज़मीन और अपना भविष्य दिखता है.
डॉ अग्निशेखर कहते हैं अब सरकार के लिए एक ही स्थान पर कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास करना आसान होगा. क्योंकि अब बीच में कानूनी या संवैधानिक बाधाएं नहीं हैं. अब जम्मू-कश्मीर की विधानसभा से पूछ कर कश्मीरी पंडितों की वापसी के फैसले पर मोहर नहीं लगानी है, अब सीधे केंद्र को करना है. डॉ. अग्निशेखर ने कहा कि छह महीने बीत गए हैं लेकिन वो अभी इंतज़ार में हैं और अभी तक उनका धैर्य टूटा नहीं है.
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कश्मीर में नौकरी करने वाले कश्मीरी पंडितों की राय
रुबन जी सप्रू ने जम्मू में बीबीसी हिंदी से कहा, "मैं आज भी जब अपने गांव जाता हूं कुछ लोग मेरा स्वागत करते हैं और कुछ यह भी कहते हैं कि अब आप यहां दोबारा कैसे आ कर रहेंगे, आप को अपनी ज़मीन बेचनी तो नहीं है?"
1990 में जब रुबन जी सप्रू का परिवार कश्मीर घाटी से विस्थापित हो कर जम्मू आ गया था उस समय उनकी उम्र 12 साल थी. अपने बचपन को याद करते रुबन जी कहतें हैं, ''मेरे क़दमों के निशान आज भी वहां बाकी हैं. मुझे याद है मैं वहां कहां खेलता था, दिनभर क्या मस्ती करता था. मेरे पड़ोस में कौन-कौन रहता था. लेकिन आज जब मैं वहां जाता हूं मुझे पता ही नहीं चलता कि मेरा मकान कहां गया. ऐसा लगता है मैं किसी 'युद्ध क्षेत्र' में खड़ा हूं जहां सब कुछ तबाह हो चुका है.''
वो आज भी अपने पड़ोसियों की मदद से सिर्फ इस बात का अंदाज़ा लगाते हैं कि शायद उनका खोया हुआ 'मकान' यहीं कहीं होगा.
रुबन जी अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि पिछले 30 सालों में बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों ने जम्मू में अपने पांव जमा लिए हैं. उनके परिवार में बुजुर्ग माता पिता और सगे सम्बन्धी सब जम्मू में या देश के बाकी शहरों में जाकर बसे हुए हैं, इसीलिए उनका कश्मीर में अपने घरों में दोबारा आकर बसना संभव नहीं हैं.
रुबन जी साफ़-साफ़ लफ़्ज़ों में कहते हैं, "हमारी ट्रेजेडी यही है कि हमारे परिवार यहां रहते हैं और हम वहां. हमें यह समझ नहीं आता कि आखिर हम कहां हैं, जम्मू में या कश्मीर में?''
वो कहते हैं विस्थापित कश्मीरी पंडितों को वापस कश्मीर में बसाना इतना आसान नहीं है और न ही यह एक स्लोगन है. यह एक रोडमाप का हिस्सा है जिसमें एक-एक कश्मीरी विस्थापित पंडित से उनकी राय जानना जरूरी है.
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रोज़गार, सुरक्षा और उम्र दराज कश्मीरी नौजवानों के रोज़गार से जुड़े मुद्दे का हवाला देते हुए रुबन जी ने कहा, ''सबसे पहले सरकार को इन सवालों के जवाब देने पड़ेंगे उसके बाद उनकी घर वापसी के सवाल पर चर्चा हो सकती है. जो कश्मीरी युवा अपनी उम्र की वजह से नौकरी हासिल नहीं कर पाए वो जम्मू में प्राइवेट सेक्टर में काम करके अपना गुज़ारा कर रहे हैं लेकिन कश्मीर घाटी में जा कर कौन उन्हें इस उम्र में काम देगा, वो कैसे अपने परिवार का खर्चा उठाएंगे.''
5 अगस्त के बाद से कश्मीर घाटी में बदले माहौल को देखते हुए रुबन जी को कुछ उम्मीद की किरण जरूर नज़र आने लगी है. उनका मानना है कि अब केंद्र शासित प्रदेश और केंद्र सरकार के समक्ष वो एक बार फिर अपने मुद्दे उठाएंगे और केंद्र सरकार से कश्मीरी विस्थापित पंडितों पर लागू की जा रही रोज़गार नीति की समीक्षा करवाने की मांग करेंगे ताकि लम्बे समय से लंबित उनकी मांगों पर गौर किया जा सके और उन्हें भी इंसाफ़ मिले.

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दोनों समुदायों के बीच की खाई कैसे भरेगी?
कश्मीर के बारामुला ज़िले में कार्यरत राकेश पंडिता ने बताया कि जब प्रधानमंत्री राहत पैकेज के अंतर्गत शिक्षा विभाग में उनकी नौकरी लगी तो उन्हें पहली बार अपने गांव जाने का मौका मिला. गुलमर्ग से 12 किलोमीटर दूर तंग्वारी पाइन के रहने वाले राकेश पंडिता ने कहा कि शुरू-शुरू में उन्हें बड़ी उत्सुकता थी कि वो अपने गांव वापस जाएं लेकिन कुछ समय के बाद उन्हें लगने लगा वहां के लोग खुले मन से उनका स्वागत नहीं करते.
उनका मानना है कि 1990 के बाद जन्मी पीढ़ी के अंदर जो गुस्सा भरा पड़ा है उसके चलते दोनों समुदायों के बीच की खाई कम होने के जगह गहरी होती चली गयी है. इसलिए उन्हें लगता है अब कश्मीर घाटी वापस आ कर दोबारा अपना घर नहीं बसाया जा सकता.
रोज़गार राहत पैकेज का हवाला देते हुए राकेश पंडिता ने कहा, "हमारे माता-पिता ने अपने जीवन का एक लम्बा अरसा तनाव में बिताया और बड़ी कठिनाइयाँ झेल कर हमें पढ़ाया लिखाया और जब उनकी देखभाल करने का समय आया तो हमें नौकरी करने के लिए वापस कश्मीर घाटी आना पड़ा."
वो कहते हैं सरकार ने उन विस्थापित कश्मीरी परिवारों से उनके बुढ़ापे का सहारा छीन लिया. राकेश पंडिता ने कहा, "जब तक कश्मीर के लोग और कश्मीरी पंडित समाज के लोग एक साथ बैठ कर चर्चा नहीं करेंगे वो खोया हुआ भाईचारा वापस नहीं लौट सकता. दोनों पक्षों को मिलकर एक साथ पहल करने की जरूरत है तब जा कर यह दूरियां कम होंगी.''
कश्मीर में कार्यरत शैली पंडिता कहती हैं, जो लोग जम्मू में या कहीं और पूरी तरह सेटल हो गए हैं उनका कश्मीर घाटी वापसी लौटना संभव नहीं हैं.
उन्होंने अपनी परेशानियों का ज़िक्र करते हुए कहा, ''नौकरी मिलने के बाद मैं 9 साल साझा आवास में रही और अनगिनत परेशानियों का सामना किया.''
उन्होंने बताया कि पिछले साल से वो अलग फ्लैट में रह रही हैं लेकिन फिर भी लंबे समय तक उनके लिए कश्मीर में रहना बहुत मुश्किल है.''

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शैली पंडिता कहती हैं कि उनके माता-पिता को भी उम्र के इस पड़ाव में अब लगने लगा है कि जिस कश्मीर को वो छोड़ कर चले आये थे अब वो कश्मीर उनके लिए नहीं रहा. वहां का कल्चर अब बदल गया है इसलिए अब कश्मीर में बसना बहुत मुश्किल है.
उनके पति अभिनव हन्दू ने बीबीसी हिंदी से कहा "कश्मीर के लोग अपने बच्चों को वहां से बाहर पढ़ने भेजते हैं और हमें मजबूरन अपने बच्चों को वहीं पढ़ाना पड़ रहा है. पिछले अगस्त से वहां स्कूल बंद थे तो हमारी बेटी की पढ़ाई नहीं हुई है. अब यहाँ जम्मू में हमने इसको थोड़ा पढाया है. ऐसे माहौल में बच्चों को पढ़ाना बड़ा मुश्किल हो जाता है. हमें लगता है हम अपने बच्चे के साथ ही नाइंसाफ़ी कर रहे हैं.''
शैली पंडिता कहती हैं, कश्मीर घाटी में हमें अपने मां-बाप, सगे संबंधियों से दूर रहना पड़ता है. वहां कश्मीर में हमारी कोई सोशल लाइफ़ नहीं हैं, सिनेमा घर तक नहीं है, हम खुले मन से घूमने भी नहीं जा सकते हमेशा हालात बिगड़ने का डर सताता है.''
वो कहती हैं, पिछले 30 सालों में कश्मीरी पंडित समाज ने जो तरक्की की है और जिस प्रकार से उन्होंने पूरे विश्व में अपनी सूझबूझ से अपना नाम रोशन किया है उनके लिए फिर कश्मीर घाटी में आ कर बसना बड़ा मुश्किल होगा.
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