अनुच्छेद 370: विस्थापित कश्मीरी पंडितों की घर वापसी कितनी मुश्किल? - ग्राउंड रिपोर्ट

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- Author, मोहित कंधारी
- पदनाम, जम्मू से बीबीसी हिंदी के लिए
हज़ारों विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवार इस समय जम्मू शहर से 25 किलोमीटर दूर जगती टाउनशिप में रह रहे हैं.
ये परिवार 30 साल तक जम्मू में अलग-अलग शरणार्थी कैम्पों में रहने के बाद इस टाउनशिप में आ कर रहने लगे हैं.
इस टाउनशिप का उद्घाटन पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने 4 मार्च, 2011 में किया था.
1989 -1990 के बीच कश्मीर घाटी में पैदा हुए हालात के चलते बड़ी संख्या में कश्मीरी हिन्दू परिवार अपना अपना घर छोड़ कर वहां से सुरक्षित निकल आए थे. सबसे अधिक कश्मीरी पंडित 19 जनवरी, 1990 के दिन से वहां से विस्थापित हुए थे.
उन दिनों में चरमपंथी संगठन इश्तिहारों के ज़रिये कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़ने के लिए धमकाते थे. बड़ी संख्या में कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया, जिससे लोगों में डर पैदा हो गया था. कश्मीर से विस्थापन के बाद ये परिवार जम्मू और देश के अन्य शहरों में जाकर बस गए थे.
जब से केंद्र सरकार ने धारा 370 और 35-A को हटाया है और राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया है, तबसे यहाँ रहने वाले विस्थापित कश्मीरी पंडित परिवारों की घर वापसी के सवाल पर फिर से नई बहस छिड़ गई है.
ऐसा नहीं है कि ये कश्मीरी पंडित विस्थापित अपने-अपने घरों को नहीं लौटना चाहते. लेकिन जगती टाउनशिप में रहने वाले परिवार पूछते हैं- हमारी सुरक्षा की कौन गारंटी देगा और वापस लौटकर हम अपनी रोज़ी रोटी कैसे कमाएंगे?
इन विस्थापित परिवारों के दिलों में गुस्सा भरा पड़ा है और साथ ही सरकार के इस फ़ैसले से उनके अन्दर एक बार फिर एक नई उम्मीद जगी है. उन्हें लगता है कि शायद इस बार वे अपनी ज़मीन पर लौट सकें.
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जगती टाउनशिप में रहने वालीं अनीता बीबीसी हिंदी से बातचीत में कहती हैं कि सरकार के इस फ़ैसले से शुरुआत तो अच्छी हो गई है. मगर सुरक्षा को लेकर चिंता जताते हुए वह कहती हैं, "हमें यह नहीं पता कि हम वहां सुरक्षित रह सकेंगे या नहीं. अब अगर केंद्र सरकार हमें आश्वासन देगी तो हम घर वापसी के बारे में सोच सकते हैं. हमारा अपना नाम होगा, हमारी अपनी पहचान होगी. हमारी पहचान हमारी ज़मीन से ही तो जुड़ी है. जब हम कश्मीर जाते हैं हम अपनी बोली बोलते हैं."
विस्थापन का दर्द बयाँ करते हुए अनीता बोलती हैं , "इस समय हम कहीं नहीं हैं. हमे बताइए हमारा अपना क्या है? अगर अभी सरकार हमे यहाँ से उठाकर कहीं और ले जाएगी तो हम क्या करेंगे? हमारा रेज़िडेंस प्रूफ़ नहीं है, हमें एक रेज़िडेंस प्रूफ़ दें ताकि हम भी जिएं और हमारे बच्चे भी."
"सरकार एक बार फ़ैसला करे वो हमें कहाँ रखना चाहती है. चाहे यहाँ जम्मू में रखे, किश्तवाड़ में या पुणे में. हमें हमारा रेज़िडेंस प्रूफ़ दे दें. हम बार-बार अपना रेज़िडेंस प्रूफ़ नहीं बदलना चाहते.
"हम कश्मीर से विस्थापित होने के बाद यहाँ जम्मू में गीता भवन में रुके, फिर वहां से झिरी कैंप चले गए. कुछ समय बाद वहां से मिश्री वाला कैंप और फिर 2011 में यहाँ जगती टाउनशिप में आ गए. हमे नहीं पता 370 की वजह से हमे कुछ मिलेगा या नहीं लेकिन हमे यह पता है इस समय न हम घर के हैं न घाट के."
विरोध भी
इस बीच सरकार के इस फ़ैसले को 'असंवैधानिक' बताते हुए जम्मू कश्मीर के जाने माने लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और सेवानिवृत्त अधिकारियों ने मिलकर एक अर्ज़ी पर हस्ताक्षर किए हैं और इस फ़ैसले को वापस लेने की मांग की है.
लेकिन कश्मीरी पंडितों के नेता मानते हैं कि जो लोग कभी कश्मीर से विस्थापित हुए ही नहीं, वो इन परिवारों का दर्द कैसे जान सकते हैं और कैसे इनसे बिना पूछे कोर्ट में अर्ज़ी दे सकते हैं.
अर्जी पर हस्ताक्षर करने वालों के नाम हैं एयर वाईस मार्शल (सेवानिवृत्त) कपिल काक, हृदयरोग विशेषज्ञ डॉ उपेन्द्र कौल, नाट्यकार एम के रैना, प्रोफ़ेसर और लेखक बद्री रैना, प्रोफ़ेसर और लेखक निताशा कौल, मोना बहन, प्रोफ़ेसर और लेखक सुवीर कौल, जाने-माने पत्रकार प्रदीप, सेवानिवृत्त अधिकारी पुष्कर नाथ गंजू और अन्य.
पनुन कश्मीर संगठन के नेता डॉक्टर अजय चुरंगू कहते हैं, ''जिन लोगों ने यह अर्ज़ी दाखिल की थी, उन्होंने कभी इन विस्थापित परिवारों का दर्द नहीं जाना और न ही कभी कश्मीरी पंडित परिवारों का साथ दिया. सबसे पहले भारत सरकार क़बूल करे कि इस तरह का जातीय नरसंहार हुआ था और फिर विस्थापित हुए कश्मीरी पंडितों की घर वापसी की प्रक्रिया आरम्भ करे.''
उन्होंने कहा कि 370 के हट जाने से उनकी 'होम लैंड' की मांग और तर्क संगत बन गई है .

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छड़ी के सहारे चलने वाले मोहनलाल गंजू कहते हैं, "हम पहली दफ़ा नहीं भागे हैं, हम 1947 में भी भागे थे. हमे उम्र हो गयी यूं ही भागते-भागते. उधर हमारी ज़मीन थी, बाग थे; सब प्रॉपर्टी ख़त्म कर दी. हम क्यों वहां लौटकर जाएंगे?"
लोलाब के रहने वाले प्यारे लाल पंडिता ने बीबीसी हिंदी से कहा, "हम वहां कश्मीर घाटी में अब अलग-अलग नहीं रह सकते. अभी वहां हालात ऐसे हैं कि मैं अपने परिवार को लेकर वहां नहीं रह सकता हूँ. मेरा परिवार वहां पर सुरक्षित नहीं है, उसकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है.''
पंडिता पूछते हैं, "जब वहां पर डॉक्टर फारूक़ अब्दुल्लाह, महबूबा मुफ़्ती, सज्जाद लोन और शाह फ़ैसल ही बिना सुरक्षा के बाहर नहीं निकल सकते तो हम कैसे वहां जा कर रहने लगेंगे? अभी वहां के हालात ठीक नहीं हैं.''

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उनका मानना है कि विस्थापित कश्मीरी पंडितों को एक सुरक्षित जगह ले जाकर बसाया जा सकता है. उन्हें राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी मिलना चाहिए ताकि उनका चुना हुआ नेता संसद में जाकर उनकी आवाज़ उठा सके .
प्यारे लाल पंडिता ने कहा, "हम इस फ़ैसले का स्वागत कर रहे हैं. 70 साल के बाद यह फैसला आया है. देर से आया लेकिन दुरुस्त आया. इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि जैसे एक कश्मीरी मुस्लिम, कश्मीरी हिन्दू और कश्मीरी सिख हिंदुस्तान के किसी भी कोने में जाकर ज़मीन खरीद सकते थे, अपना लघु उद्योग लगा सकते थे, इस फ़ैसले के बाद अब भारत के किसी भी राज्य के लोग भी यहाँ आकर उद्योग लगा सकते हैं. इसका फ़ायदा हम सबको मिलेगा."
प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे रवि कुमार का कहना था, "अनुच्छेद 370 के हटने की वजह से शायद बेरोज़गारी ख़त्म हो जाए और जो घाटी के हालात थे वो अब आने वाले दिनों में शायद सुधर जाएँ."
"यह भारत सरकार का बहुत अच्छा फैसला है. रवि दबी ज़बान में यह कहना नहीं भूलते हैं कि उन्हें इस बात का मलाल है कि आज से 30 साल पहले ऐसा फ़ैसला लिया होता तो उन्हें अपना घर छोड़कर किसी दूसरी जगह जा कर नहीं बसना पड़ता."

कश्मीर घाटी में जाकर फिर से बसने के सवाल के जवाब में वह कहते हैं, "कहीं एक जगह ही रहना पड़ेगा वहां पर. फ़िलहाल तो ऐसे हालात नहीं लग रहे कि कोई भी वहां जा के अपने घर में बस सकेगा."
रवि कुमार को लेकिन इस बात पर यक़ीन है कि जो नौजवान बेरोज़गार था उस को शायद इस से फ़ायदा मिलेगा और यह आतंकवाद उससे शायद ख़त्म हो जाएगा.
रवि ने कहा, ''एक कहावत है न, ख़ाली दिमाग़ शैतान का घर होता है. जो बेकार बैठा होगा, उसने तो इधर-उधर का सोचना ही है. अगर भारत सरकार वहां उद्योग लगाएगी तो यह सब अपने आप ख़त्म हो जाएगा."
"लोग दूसरों के बहकावे में नहीं आएंगे. जैसे अलगाववादी कहते हैं पत्थर मारो तो लोग पत्थर मारना शुरू कर देते हैं. वो कहते हैं बैठो तो वो बैठ जाते हैं. वो फ़ंडिंग करते हैं क्योंकि बेरोज़गारी है. कोई बेचारा 100 रुपया कमाता है, पत्थर मारता है. अगर कश्मीर घाटी में भारत सरकार उद्योग शुरू करती है तो हो सकता है कि वही नौजवान 500, 1000 और हो सकता 10,000 भी कमा ले अपनी क़ाबिलियत के दम पर."
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