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'लोग आज भी गाँव की कहानी देखना चाहते हैं' | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
मेरे परिवार को 1947 में लाहौर छोडना पड़ा. उस वक़्त मैं सिर्फ 10 साल का था. हमने दिल्ली के रिफ्यूजी कैंप में शरण लिया जहाँ छोटी-मोटी ज़रूरतों के लिए हमें बाहर जाना पड़ता था. मेरे पिता की तरफ़ के परिवार वाले पाकिस्तान में मारे गए थे और पिताजी के बारे में कोई खबर भी नहीं मिल पा रही थी. एक दिन मैंने देखा मेरे पिताजी लाल क़िले पर झंडा फहरा रहे थे. मैंने उन्हें ताली बजाते देखा और अपने परिवार को खोने का ग़म उनके चेहरे पर बिल्कुल भी नहीं था. उस वक़्त मुझे एहसास हुआ कि देश की आज़ादी ख़ून के रिश्ते से कहीं बड़ी होती है. मै दो बार पाकिस्तान जाकर आया हूँ और मैंने वहाँ पाया कि जितना यहाँ के लोग भावनात्मक हैं उतने ही वहाँ के लोग भी. सियासत ने आम इंसानों को मारा है. जिस दिन ये समझ में आ जाएगा कि हम एक ही मिट्टी से बने हैं और हम सब एक है उस दिन कोई आतंकवाद नहीं रहेगा. आज जो भी हो रहा है देश में उससे न ही हिंदू खुश हैं, न ही मुसलमान, न ही पारसी और न ही कोई और. एक नागरिक और एक लेखक की हैसियत से मेरा यह कर्तव्य बनता है कि मैं अपने समाज अपने देशवासियों के लिए कुछ करूँ. फिल्म बनाऊँ तो ऐसी हो जिसका कोई मतलब हो, कोई संदेश हो. फ़िल्मों में हीरो बनने का ख़्वाब लेकर मैं 1965 में दिल्ली से मुंबई आया. 19 साल की उम्र में मैंने अपना करियर शुरू किया. मैंने आज़ादी की कई किताबें पढ़ी थीं जिनमें गांधी और नेहरू के बारे में ही पढ़ा लेकिन लाला लाजपत राय, चंद्रशेखर आज़ाद और रामप्रसाद बिस्मिल्ल के बारे में कहीं नहीं लिखा होता था. मैं सोचता कि इन लोगों को आज़ादी की लडाई में हिस्सा लेने के लिए प्रेरणा कहां से मिली होगी. मुझे कोई जानकारी नहीं मिल पाई. जो भी मुझे मिली वह सारी उर्दू और पारसी में थी. फिर मैंने फैसला किया कि मैं देशभक्ति की फिल्में बनाऊँगा.
मेरी अदाकारी लोग पसंद भी कर रहे थे. मैं चाहता तो रोमांटिक गाने गाकर अपने साथियों की तरह 400-500 फिल्मों में काम कर चुका होता लेकिन मैंने सिर्फ 50-60 फिल्मों में ही काम किया. कुछ वर्षों से फ़िल्म इंडस्ट्री में देशभक्ति और किसानों पर फ़िल्में बननी बंद सी हो गई हैं. किसी हद तक ये सही हो सकता है लेकिन सच्चाई यह है आज भी भारत बसता तो गाँव में ही है और ज़्यादातर लोग उसी तरह की फ़िल्में ही पसंद करते हैं. जैसे फ़िल्म ‘लगान’ बनी औऱ खूब चली. चूंकि उस फिल्म में लोगों ने अपने आप को पाया और ज़मीन से जुडी फ़िल्में आज भी लोगों की पसंदीदा है. और यही हुआ ‘लगान’ के साथ, उसने लोगों के दिल को छुआ और खूब सराही भी गई. आजकल जो लोग फिल्में बना रहे हैं उनमें से ज़्यादातर लोगों ने गाँव की ज़िंदगी देखी ही नहीं हैं. मीडिया भी इसके लिए काफ़ी जिम्मेदार है. आज फैशन शोज़ खूब होते हैं लेकिन कपड़ों का यह कौन सा फैशन है कि कपड़े कम शरीर ज़्यादा दिखते हैं. जो भी मैंने कमाया है वो सब मेरी फ़िल्मों के ज़रिए ही कमाया है और सब फ़िल्मों में ही लगा दिया है. मुझे अपने आप पर और अपने अनुभव था इसलिए मैंने क्रांति बनाई. अगर क्रांति नाकाम भी होती तो मैं अपने परिवार को अपनी मेहनत से यह सब कुछ देता. वेदिका त्रिपाठी से बातचीत पर आधारित | इससे जुड़ी ख़बरें बँटवारे से आगे...23 फ़रवरी, 2006 | मनोरंजन इतनी गंभीर भी नहीं हैं विद्या बालन...07 अप्रैल, 2006 | मनोरंजन न्यूयॉर्क में भी छाईं भारतीय फ़िल्में28 अप्रैल, 2006 | मनोरंजन 'कॉर्पोरेट' को लेकर उत्साहित हैं भंडारकर22 जून, 2006 | मनोरंजन 'भारत मेरा मुल्क ही नहीं, घर भी है'27 जून, 2006 | मनोरंजन परवान चढ़ता मेरठ फ़िल्म उद्योग29 जून, 2006 | मनोरंजन आठवाँ एशियाई फ़िल्म समारोह शुरू14 जुलाई, 2006 | मनोरंजन हिंदी सिनेमा: सामाजिक प्रतिबद्धता से बाज़ार प्रेम तक10 अगस्त, 2006 | मनोरंजन | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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