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गुरुवार, 29 जून, 2006 को 19:11 GMT तक के समाचार
 
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परवान चढ़ता मेरठ फ़िल्म उद्योग
 

 
 
मेरठ फ़िल्म उद्योग
ये फ़िल्में महज़ एक-डेढ़ लाख रुपए में तैयार हो जाती हैं.
हिंदी फ़िल्मों की बात चलती है तो मुंबई महानगरी का ख़याल आना लाज़मी है लेकिन अब भारत में हिंदी फ़िल्में केवल मुंबई में ही बनती हों, ऐसी बात भी नहीं है.

उत्तरप्रदेश के पश्चिमी शहर मेरठ में भी अब क्षेत्रीय स्तर पर छोटे बजट की फ़िल्में बन रही हैं. यह अलग बात है कि इन फ़िल्मों का अपना एक अलग क्षेत्रीय अंदाज़ है.

मेरठ फ़िल्म उद्योग के लोग इसे 'मॉलीवुड' कहना पसंद करते हैं. यहा बनने वाली फ़िल्मों की सीडी आपको दिल्ली, हरियाणा और उत्तरप्रदेश के कई ज़िलों में आसानी से मिल जाएंगी.

मेरठ के कुछ हास्य कलाकारों ने सीडी पर फ़िल्में बनाना शुरू किया और यहीं से वर्ष 2000 के आसपास देसी फ़िल्मों का बनना शुरू हुआ.

मेरठ में हर वर्ष ऐसी कई फ़िल्में बन रही हैं जिनमें 'धाकड़ छोरा', 'छिछोरों की बारात', 'ताऊ बहरा', 'ताऊ रंगीला' और 'पारो तेरे प्यार में' के नाम शामिल हैं.

यहाँ अधिकतर फ़िल्में मुंबई फ़िल्मों का देसी रीमेक या फिर मेरठ के अपने लोक विषयों पर आधारित होती है.

मेरठ फ़िल्म उद्योग के एक लोकप्रिय निर्देशक कमल आज़ाद बताते हैं, "यहाँ अधिकतर फ़िल्में स्थानीय विषयों पर बनती है. हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में प्यार भी है, तकरार भी है, ज़मीन को लेकर विवाद भी है और घरेलू झगड़े भी. हम इन सभी विषयों को फ़िल्म का आधार बनाते हैं और लोग इन्हें पसंद करते हैं."

छोटा बजट

मुंबई में करोड़ों रुपए की लागत से बनने वाली महंगी फ़िल्मों के विपरीत मेरठ में एक फ़िल्म ज़्यादा से ज़्यादा एक से डेढ़ लाख रुपए में बनकर तैयार हो जाती है और एक फ़िल्म को बनाने में लगभग एक महीना लगता है.

 यहाँ अधिकतर फ़िल्में स्थानीय विषयों पर बनती है. हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में प्यार भी है, तकरार भी है, ज़मीन को लेकर विवाद भी है और घरेलू झगड़े भी. हम इन सभी विषयों को फ़िल्म का आधार बनाते हैं और लोग इन्हें पसंद करते हैं
 
कमल आज़ाद, क्षेत्रीय फ़िल्मों के निर्देशक

कभी इन फ़िल्मों में 'टी-सीरीज़' और 'सीटेक' जैसे संगीत कंपनियाँ पैसा लगाती हैं तो कभी चंद स्थानीय अमीर लोग साथ मिलकर एक फ़िल्म बना लेते हैं.

बजट कम होने के कारण अधिकतर फ़िल्में गाँव में ही शूट होती है और अधिकतर कलाकार भी स्थानीय होते हैं.

कमल आज़ाद ने बताया, "फ़िल्म का ख़र्च बचाने के लिए निर्देशक को कलाकारी, लाइटिंग और स्पॉट बॉय का काम भी करना पड़ता है."

इन फ़िल्मों में काम करने के लिए आने वाले अधिकतर कलाकारों को अभिनय का जुनून होता है और इसका लाभ इन फ़िल्मों के निर्माता उठाते हैं.

स्थानीय कहानियों को स्थानीय बोली में फ़िल्मों में प्रस्तुत करने के लिए निर्माता इन कलाकारों से अधिकतर काम मुफ्त में कराते हैं.

मेरठ फ़िल्म उद्योग के बड़े से बड़े कलाकार को भी एक फ़िल्म में काम करने के 10 हज़ार रुपए से ज़्यादा नहीं मिलते हैं लेकिन हीरोइनों को हीरो से ज़्यादा पैसे मिलते हैं क्योंकि मेरठ में आमतौर पर लड़कियों का फ़िल्मों में काम करना बुरा समझा जाता है.

इस वजह से अभिनेत्रियाँ मुश्किल से उपलब्ध हो पाती हैं.

अवसर

मेरठ फ़िल्म उद्योग की ऐश्वर्या कहलाई जाने वाली सुमन नेगी का कहना है, "मैं मिस मेरठ रह चुकी हूँ. मैं हमेशा फ़िल्मों में काम करने की इच्छुक थी. मेरठ फ़िल्म इंडस्ट्री न होती तो मैं कभी अभिनय नहीं कर पाती."

सीडी
इन फ़िल्मों को गाँवों में रहने वाले लोग ज़्यादा पसंद कर रहे हैं.

20 से अधिक फ़िल्में बना चुके भोपाल शर्मा का मानना है, "‘एक निर्देशक के नाते मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती है यहाँ के स्थानीय लोगों से अभिनय कराना. इन कलाकारों को भाषा का सही ज्ञान नहीं होता और न ही इन्हें ठीक से संवाद अदायगी आती है."

मेरठ में बनने वाली फ़िल्में आसपास के गाँवों में बहुत प्रसिद्ध है. मेरठ में सीडी की दुकान चलाने वाले रोहित शर्मा सीडी फ़िल्मों की सफलता के बारे में बताते हैं, "आज हमारा सारा कारोबार देसी फ़िल्मों का है. ये फ़िल्में ग्रामीण इलाकों में ज़्यादा लोकप्रिय हैं. हमारे यहाँ 90 प्रतिशत ग्राहक गाँवों से आते हैं."

मेरठ फ़िल्म उद्योग के हर कलाकार, निर्देशक और निर्माता का सपना है कि उसे मुंबई फ़िल्म उद्योग में काम करने का मौका मिले. मेरठ फ़िल्म इंडस्ट्री को यहाँ बहुत से लोग बॉलीवुड जाने का सीधा रास्ता मानते हैं.

ये स्थानीय कलाकार बॉलीवुड का अपना सपना पूरा कर सकेंगे या नहीं, यह तो पता नहीं लेकिन मेरठ की फ़िल्मों के ज़रिए ये लोग आसपास के इलाकों में लाखों दिलों में जगह बना रहे हैं.

 
 
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