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हिंदी में भी लाखों लाख बिकता है | |||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
हिंदी के मौजूदा लेखकों में सबसे ज़्यादा बिकने वाला कौन? निर्मल वर्मा, कमलेश्वर या राजेंद्र यादव?माफ कीजिए इनमें से कोई नहीं. वह लेखक है - वेदप्रकाश शर्मा जिसे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी लेखक भी शायद ही माने. लुगदी कागज पर लिखने वाले वेदप्रकाश शर्मा हिंदी में लोकप्रिय उपन्यास लिखने वाली उस धारा के आदमी हैं, जिसका लिखा गल्प लाखों की संख्या में छपता है. वह हिंदी के आर्चर या जेके राउलिंग कहे जा सकते हैं, अलबत्ता अंग्रेज़ी में लोकप्रिय लेखन करने वालों ने भी डेढ़ सौ किताबें नहीं लिखीं. ये किताबें हिंदी में पढ़े जाने वाले उन लेखकों की हैं जिन्हें हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी लुगदी साहित्य या घासलेटी साहित्य कहकर दुरदुराती रही है. दिलचस्प बात यह है कि ये किताबें लाखों की संख्या में छपती हैं. वेदप्रकाश शर्मा की किताब तो छपकर आने से पहले ही विज्ञापन शुरू हो जाते हैं. विज्ञापन उनकी मौजूदा किताबों के पिछले पेज पर ही नहीं छपते बल्कि अखबारों तक में प्रकाशित होते हैं. लेखकों को भी अपनी किताब छपवाने के लिए भविष्यनिधि दाव पर नहीं लगानी पड़ती. मुंबई का फिल्म उद्योग मेरठ में वेदप्रकाश शर्मा से पटकथा लिखाने आता है. सबसे बड़ा खिलाड़ी मेरठ के वेदप्रकाश शर्मा अपनी उम्र के पचास साल पूरे होने के मौक़े पर एक विशेषांक काला अंग्रेज लिखने में व्यस्त हैं, जो उनका 150वाँ उपन्यास होगा. शर्मा इस वर्ग में सबसे ज़्यादा बिकाऊ माने जाते हैं. बुक स्टाल चलाने वाले अशोक के मुताबिक सबसे ज्यादा मांग शर्मा के उपन्यासों की रहती है और यह सिलसिला आज से नहीं पिछले बीस साल से चला आ रहा है. शर्मा के प्रकाशन का कामकाज संभालने वाले उनके बेटे शगुन का कहना है कि वेदप्रकाश शर्मा की लेखनी निर्विवाद रूप से सबसे ज़्यादा बिकाऊ है. यह अलहदा बात है कि वह अपने प्रकाशन के लिए नहीं लिखते क्योंकि उनका राजा पाकेट बुक्स जैसे प्रकाशकों के साथ पुराना वादा है.
शर्मा के मुताबिक उनका सबसे ज़्यादा बिकने वाला उपन्यास वर्दी वाला गुंडा था जिसकी क़रीब 15 लाख प्रतियाँ बिकीं. उनके दूसरे उपन्यास भी औसतन 4 लाख बिक जाते हैं. 14 साल की उम्र में 'दहकते शहर' से लोकप्रिय उपन्यास लिखने का सिलसिला शुरू करने वाले शर्मा को यह प्रेरणा भी इसी धारा के वेदप्रकाश कांबोज व ओमप्रकाश शर्मा से मिली और आज उनका अपना प्रकाशन है - तुलसी. शर्मा के मुताबिक उन्होंने शुरू के दो साल में ही 24 उपन्यास लिख दिए थे, यह जुदा बात थी कि नए लेखक के उपन्यास कोई छापने को राजी नहीं होता था और इनमें से कुछ उस समय के चर्चित लेखकों के नाम से छपे. वह याद करते हुए बताते हैं, "अपना उपन्यास अपने नाम से छपाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी लेकिन जब एक बार मेरा नाम हो गया तो तस्वीर भी छपने लगी." कहानी फिर-फिर शर्मा को मलाल है कि क़रीब डेढ़ सौ उपन्यास लिखने और सबसे ज़्यादा पढ़े जाने के बावजूद भारत में लोकप्रिय लेखन को वह जगह हासिल नहीं है, जो अंग्रेज़ी में है. अंग्रेज़ी में लोकप्रिय लेखन करने वालों को घासलेटी या घटिया कहकर ख़ारिज नहीं किया जाता. "हम सामाजिक समस्याओं को भी उठाते हैं. मेरे उपन्यास पर फ़िल्म - बहू मांगे इंसाफ बनी जिसमें दहेज की समस्या को नए कोण से उठाया था." लोकप्रिय उपन्यास लिखने के काम में बरसों से लगे दिल्ली के अनिल मोहन तो काफी कड़वे अंदाज़ में कहते हैं, "जो लोग ज़िंदगी में तीन किताबें लिखते हैं और वे भी ऐसी कि आम आदमी को समझ नहीं आतीं, वे महान हो जाते हैं.' शर्मा जैसे लेखकों के आलोचकों का कहना है कि कोई लेखक अपने जीवनकाल में डेढ़ सौ-दो सौ उपन्यास लिख कैसे सकते हैं. ज़ाहिर है वह बार-बार एक ही कहानी दोहराते रहते हैं. दरियागंज में शर्मा के उपन्यासों को नियमित पढ़ने वाले प्रदीप मानते हैं कि कई बार शब्दावली या दृश्य एक से लगते हैं लेकिन कुछ बात तो है कि लोग फिर इन उपन्यासों को बार-बार पढ़ते हैं. अपने आलोचकों को शर्मा का जवाब है, "आप पढ़ेंगे तो हर उपन्यास अलग नज़र आएगा. असल दिक्कत तो यह है कि अंग्रेज़ी में लिखने वाला जितना एक किताब में कमा लेता है, हिंदी वाले को उसके लिए सौ डेढ़ सौ किताबें लिखनी होती हैं. उसे ज़िंदगी चलानी है तो वह बार-बार लिखने के अलावा क्या कर सकता है?' बालीवुड आता है मेरठ अक्सर अपनी कथा-दरिद्रता के लिए गरियाए जाना वाला बालीवुड एक तरफ अगर शरतचंद्र या विजयदान देथा जैसे प्रतिष्ठित कथाकारों की कहानी पर फिल्में बना रहा है तो वह वेदप्रकाश शर्मा से लिखवाने के लिए मेरठ भी आता है. शर्मा के उपन्यास 'लल्लू' पर 'सबसे बड़ा खिलाड़ी' और 'सुहाग से बड़ा' पर 'इंटरनेशनल खिलाड़ी' बन चुकी हैं. अब हैरी बावेजा 'कारीगर' बना रहे हैं, वहीं 'कानून का बेटा' पर भी एक फिल्म बनाई जा रही है. इनकी पटकथाएँ भी शर्मा लिख रहे हैं. टेलीविजन उन्हें पसंद नहीं. शर्मा कहते हैं, 'वहाँ लेखक की पहचान खो जाती है, बस निर्माता याद रहता है. एकता कपूर के सीरियल बस उनके ही हैं.' केबल टीवी भी बाधा नहीं भारत में केबल टीवी युग के आरंभ और सैटेलाइट चैनलों के विस्तार ने हर क़िस्म के गल्प पर असर डाला. हिंदी के कई कहानीकारों और उपन्यासकारों ने तो लिखना भी बंद कर दिया. जब वीएस नायपाल फिक्शन को ख़तरे में बता रहे हैं, हिंदी के इन लोकप्रिय गल्पकारों को कोई ख़तरा नहीं. शर्मा के प्रकाशन में छपने वाले अनिल मोहन का ख़याल है कि चैनल युग के आरंभ में इन लेखकों के बाज़ार को बड़ा झटका लगा था, लेकिन पिछले कुछ साल में यह निरंतर सुधर रहा है. शर्मा के मुताबिक "वास्तव में बाज़ार पहले से सुधर रहा है. पहले किराए पर किताबें बहुत चलतीं थीं क्योंकि इनकी लाइब्रेरी चलती थी. अब किराए से किताब महंगी पढ़ती हैं. इन किताबों का बड़ा पाठक वर्ग महिलाओं में है और वे खटरीदना ज़्यादा पसंद करती हैं." बहरहाल, सच ये है कि बड़े-बड़े लेखक प्रकाशकों की तलाश में भटकते रहते हैं किन इन लेखकों को प्रकाशकों की चिरौरियाँ नहीं करनी पड़तीं न ही पारिश्रमिक के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं. |
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