2024 चुनाव: बसपा प्रमुख मायावती की बढ़ती चुनौतियां?

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- Author, अनिल जैन
- पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार
- संसद भवन की नई इमारत के उद्घाटन को लेकर बीते कई दिनों से विवाद जारी है.
- कांग्रेस समेत दर्जनों विपक्षी दलों का कहना है कि इसका उद्घाटन राष्ट्रपति के हाथों होना चाहिए.
- बसपा प्रमुख मायावती ने कहा है कि पीएम मोदी को इसका उद्घाटन करने का पूरा हक़ है.
- मायावती ने 1995, 1997 और 2002 में भाजपा के समर्थन से सरकार बनाई, लेकिन तीनों बार उनकी सरकार को गिराने का काम भाजपा ने ही किया.
- लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद वो कई मुद्दों पर सरकार का समर्थन करती दिखी हैं.
- समाजवादी पार्टी ने कई बार बसपा को बीजेपी की टीम-बी कहा है.
- लेकिन क्या भविष्य की बसपा की राह बीजेपी की तरफ बढ़ती नज़र आ रही है? पढ़िए विश्लेषण-
संसद की नई इमारत के उद्घाटन कार्यक्रम को लेकर केंद्र सरकार और विपक्षी दलों के बीच घमासान तेज़ हो गया है. लेकिन इस बीच सरकार को बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का भी साथ मिल गया है.
बसपा सुप्रीमो मायावती ने नए संसद भवन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कराए जाने का समर्थन किया है.
उन्होंने कहा कि संसद की नई इमारत का निर्माण सरकार ने कराया है, इसलिए प्रधानमंत्री को पूरा हक़ है कि वो इसका उद्घाटन भी करें.
मायावती ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से नए संसद भवन के उद्घाटन की मांग से भी असहमति जताई है.
वहीं कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों की मांग है कि नए संसद भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से कराया जाए.
बसपा सुप्रीमो मायावती विपक्ष से दूरी बनाते हुए खुलकर केंद्र सरकार के बचाव में आ गईं हैं. लेकिन यह बहुत चौंकाने वाला नहीं है, क्योंकि इससे पहले भी ख़ासकर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद कई मुद्दों पर उन्होंने सरकार का समर्थन किया है.
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जब सपा ने बसपा को बीजेपी की बी-टीम बताया
2019 का लोकसभा चुनाव समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा ने मिलकर लड़ा था. उस चुनाव में बसपा ने 10 सीटों पर जबकि सपा ने महज़ पांच सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन मायावती ने कुछ ही दिनों बाद चुनाव नतीजों पर असंतोष जताते हुए सपा से गठबंधन तोड़ लिया था.
उस समय उन्होंने ऐलान किया था कि उनकी पार्टी भविष्य में कभी सपा के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेगी.
सपा से गठबंधन तोड़ने के बाद 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव बसपा ने अकेले ही लड़ा था. लेकिन उसका प्रदर्शन बहुत ही ख़राब रहा. महज़ एक ही सीट पर जीत मिली और वोटों में भी ऐतिहासिक गिरावट दर्ज हुई. पार्टी सिर्फ़ 12.7 फ़ीसद वोट ही हासिल कर सकी.
इस चुनाव के दौरान मायावती लगभग पूरी तरह निष्क्रिय बनी रहीं. उन्होंने महज़ तीन या चार चुनावी रैलियों को ही संबोधित किया था.
बसपा सुप्रीमो की इस भूमिका को लेकर राजनीतिक हलक़ों में कई सवाल भी उठे. सपा और कांग्रेस ने मायावती पर आरोप लगाए कि उन्होंने भाजपा से गुप्त समझौता कर लिया था.
विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में लोकसभा की दो और विधानसभा की तीन सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भी उनपर यही आरोप लगे.
बसपा की शुरू से यह घोषित नीति रही थी कि वह उपचुनाव नहीं लड़ेगी लेकिन 2022 में उसने अपनी इस नीति से हटकर कुछ सीटों पर उपचुनाव लड़ा और नतीजों को प्रभावित किया.
सपा प्रवक्ता भुवन भास्कर जोशी ने आरोप लगाया, "बसपा ने जहां आज़मगढ़ में भाजपा की मदद के लिए अपना उम्मीदवार उतारा, वहीं उसने रामपुर में अपना उम्मीदवार न उतार कर भाजपा की मदद की.”
सपा प्रवक्ता ने बसपा को भाजपा की बी-टीम क़रार दिया.
बसपा पर यही आरोप हाल ही में हुए उत्तर प्रदेश के निकाय चुनावों को लेकर भी लगे.
राज्य के 17 नगर निगमों के महापौर के चुनाव में बसपा ने सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारे जिनमें 11 मुस्लिम थे. सभी 17 सीटों पर भाजपा को जीत हासिल हुई, सपा और बसपा का सफ़ाया हो गया.
समाजवादी पार्टी के मुख्य प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने कहा कि यह बात अब किसी से छिपी नहीं रह गई है कि "बसपा का एकमात्र मक़सद चुनावों में भाजपा की मदद करना रह गया है."
सपा का कहना था कि निकाय चुनाव में इतने अधिक मुस्लिम उम्मीदवार भी उन्होंने भाजपा के इशारे पर उतारे हैं.

'राजनीतिक नारों से किनारा'
चुनावी राजनीति के अलावा मायावती के हाल के कई बयानों से भी बहुत कुछ ज़ाहिर होता है. वे अब उन राजनीतिक नारों से पीछा छुड़ाती दिख रही हैं, जिनके सहारे वे उत्तर भारत में दलितों और अति पिछड़े वर्गों यानी बहुजन समाज की शीर्ष नेता बनी थीं.
इसी वजह से वो देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री भी बनीं.
मायावती ने पिछले महीने पांच अप्रैल को तीन ट्वीट किए थे.
उन्होंने नब्बे के दशक में चर्चित हुए नारों से किनारा करते हुए कहा कि ये नारे समाजवादी पार्टी ने बसपा को बदनाम करने के लिए गढ़े थे.
छह दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और कांसीराम की बहुजन समाज पार्टी के बीच ऐतिहासिक गठबंधन हुआ था. इस दौरान एक नारा ख़ूब चर्चित हुआ था, 'मिले मुलायम-कांसीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम'.

सपा-बसपा गठबंधन ने उस चुनाव में जीत हासिल कर सरकार बनाई थी.
लेकिन मायावती अब उससे ख़ुद को अलग करने और इसके लिए सपा को ज़िम्मेदार ठहराने की कोशिश कर रही हैं.
इस नारे का ज़िक्र करते हुए मायावती ने ट्वीट किया कि वास्तव में उत्तर प्रदेश के विकास और जनहित की बजाय जातिद्वेष एवं अनर्गल मुद्दों की राजनीति करना समाजवादी पार्टी का स्वभाव रहा है.
उनका तीसरा ट्वीट था, "इसी क्रम में अयोध्या, श्रीराम मंदिर और अपर कास्ट समाज आदि से संबंधित जिन नारों को प्रचारित किया गया था वे बसपा को बदनाम करने की सपा की सोची समझी साज़िश थी. अत: सपा की ऐसी हरकतों से ख़ासकर दलितों, अन्य पिछड़ों और मुस्लिम समाज को सावधान रहने की सख़्त ज़रूरत है."

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फ़ायदे की राजनीति?
सवाल है कि मायावती अब जो कह रही हैं, अगर वह सही है तो उन्होंने या कांसीराम ने उस समय ही इन नारों का विरोध क्यों नहीं किया? उन्होंने बसपा के कार्यकर्ताओं को इस तरह के नारे लगाने से क्यों नहीं रोका?
ज़ाहिर है, उस समय उनके लिए ये नारे फ़ायदेमंद साबित हो रहे थे, इसलिए इन्हें अपनाया गया और अब संभवत: राजनीतिक अथवा ग़ैर-राजनीतिक कारणों से मायावती को इन नारों से पीछा छुड़ाना पड़ रहा है.
नब्बे के दशक में जाति विशेष के लोगों को जूते मारने की बात करने वाले आक्रामक नारे लोगों को अब भी याद हैं.
लेकिन बदलते राजनीतिक समीकरणों के साथ-साथ उसके नारे भी बदलते गए. जैसे- 'बनिया माफ़, ठाकुर हाफ़, ब्राह्मण साफ़’ से लेकर 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है’ और उसके बाद 'ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा’.
ऐसे ही बदलते सामाजिक समीकरणों और नारों के साथ बसपा तेज़ी से अपना जनाधार बढ़ाती गई. पहले उसने समाजवादी पार्टी के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता में भागीदारी की लेकिन यह ऐतिहासिक प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल पाया.
इसी बीच कांसीराम को गंभीर बीमारियों ने जकड़ लिया और बसपा पूरी तरह से मायावती के हाथों में आ गई.
मायावती ने 1995, 1997 और 2002 में भाजपा के समर्थन से अपनी सरकार बनाई हालांकि तीनों बार उनकी सरकार को गिराने का काम भी भाजपा ने ही किया.
इस बीच अन्य हिंदी भाषी राज्यों में भी बसपा ने आंशिक कामयाबी दर्ज की.
नए सामाजिक समीकरण साधते हुए 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार बनाई जो पूरे पांच साल चली.
लेकिन उसके बाद बसपा का जनाधार लगातार सिकुड़ता गया और हालत यह हो गई कि 2022 के विधानसभा चुनाव में वह महज़ एक ही सीट जीत पाई. अब न तो ब्राह्मण बसपा के लिए शंख बजा रहा है और हाथी में दिल्ली तो क्या लखनऊ जाने की ताक़त भी नहीं दिख रही है.
बसपा ने दलित और अति पिछड़ी जातियों का जो वोट बैक कांग्रेस से छीना था, उसका भी बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा ने झटक लिया है. मुस्लिम समुदाय तो बसपा से बहुत पहले ही दूर हो चुका है.

क्या बीजेपी की तरफ बढ़ सकते हैं कदम?
पुराने नारों से पीछा छुड़ाने की मायावती की यह कोशिश दिखाती है कि वे भविष्य में बीजेपी में तरफ़ जा सकती हैं.
ठीक उसी तरह जैसा वे पहले कर चुकी हैं, लेकिन अब उनके मुंह से 'मनुवादी' शब्द सुनने को नहीं मिलता जो पहले उनका प्रिय शब्द था.
हालांकि यह कहना मुश्किल है कि वे इस लाइन पर राजनीति करके अपनी पार्टी के लिए सफलता की उम्मीद कर रही हैं या भाजपा के कहने पर ऐसा कर रही हैं.
जैसे-जैसे लोकसभा के चुनाव नज़दीक आ रहे हैं, बसपा के नेताओं की बेचैनी बढ़ रही है.
वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनकी पार्टी क्या करेगी और उन्हें क्या करना चाहिए. दरअसल, बसपा नेताओं, ख़ासकर पार्टी के सांसदों की परेशानी विधानसभा चुनाव के समय से बढ़ी हुई है.
विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तरह निष्क्रिय हो गई थी. इसका नतीजा यह रहा कि चार बार सत्ता में रही पार्टी महज़ एक ही सीट जीत पाई. बसपा की स्थापना के बाद उसका यह सबसे दयनीय प्रदर्शन रहा था.
इसीलिए पार्टी के सांसदों को चिंता सता रही है कि अगर लोकसभा चुनाव भी पार्टी ने इसी तरह लड़ा और पार्टी की नेता पूरी तरह निष्क्रिय बनी रहीं तो उनका क्या होगा?
उन्हें लग रहा है कि भाजपा और सपा गठबंधन के सीधे मुक़ाबले में विधानसभा की तरह लोकसभा चुनाव में भी बसपा साफ़ हो जाएगी.
इसी आशंका के चलते सपा के साथ गठबंधन के चलते जीते बसपा के सभी 10 सांसदों को अगली बार बसपा के साथ रह कर जीतना मुश्किल लग रहा है. इसलिए वे नया राजनीतिक ठौर तलाशने में जुट गए हैं, सपा या भाजपा की ओर देख रहे हैं.
अमरोहा से पार्टी के सांसद कुंवर दानिश अली ने मायावती से गठबंधन में शामिल होने की अपील की है. उनको पता है कि पिछली बार समाजवादी से तालमेल होने की वजह से ही वे जीते थे और अगर मायावती अकेले लड़ीं तो वे नहीं जीत सकते हैं.
कुल मिला कर सच यही है कि जिस बहुजन आंदोलन और उसकी राजनीति का सपना कांसीराम ने हक़ीक़त में बदला था और देश के दलित और वंचित तबक़ों में राजनीतिक चेतना पैदा हुई थी, वह आज गहरी निराशा और बिखराव के रास्ते पर है.
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