राजस्थान: मायावती की बीजेपी से 'दोस्ती', कांग्रेस से 'दुश्मनी' का प्रियंका फ़ैक्टर

मायावती-सोनिया गांधी का फाइल फोटो

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    • Author, बद्रीनारायण
    • पदनाम, वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक, बीबीसी हिंदी के लिए

याद कीजिए मायावती की उत्तर भारत की राजनीति में धमक. साल 1995 से 2007 तक उनके एक-एक हावभाव, एक-एक बयान से राजनीति में भूचाल आ जाता था.

धीरे-धीरे समय बदलता गया, राजनीति में उनकी ताकत घटती गई, उत्तर भारत के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वे मोल-तोल की शक्ति खोती गईं. सत्ता-शक्ति का लोभ, धन शक्ति के खेल और अपने ही विधायकों में उनकी राजनीति के प्रति समर्पण की कमी ने इन राज्यों में उनका कद काफ़ी घटा दिया है.

उनके हाथ से उत्तर प्रदेश की सत्ता गए काफी दिन हो गए, और पार्टी पिछले दशक के अपनी हुई ताकत दोबारा हासिल नहीं कर सकी है.

राजस्थान का मामला अभी ताज़ा है, राजस्थान में बीएसपी 1998 से लगातार विधानसभा चुनाव में कुछ सीटें जीतती रही है, 1998 में राजस्थान विधानसभा चुनाव में बसपा के दो विधायक जीते थे, 2003 के चुनाव में भी उनके दो विधायक जीते,स 2008 में छह, 2013 में तीन और फिर 2018 में बीएसपी के 6 विधायक जीत कर आए.

साल 2008 में और 2018 में बीएसपी के सभी विधायक अपनी पार्टी छोड़ कांग्रेस में आ गए, ये दोनों ही क्षण बसपा के लिए मुश्किल क्षण थे, ऐसे ही क्षणों ने राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में बसपा की उपस्थिति को लगभग प्रभावहीन कर दिया है.

राजस्थान के मामले में बसपा विधायकों के कांग्रेस में जाने के प्रश्न को मायावती आज कोर्ट में ले जाकर अशोक गहलोत के लिए मुश्किलें तो खड़ी कर रही हैं, हालांकि उनके सभी 6 विधायक एक स्वर में अभी कांग्रेस के साथ हैं.

राजनीति

अशोक गहलोत का फाइल फोटो

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जैसा हम जानते हैं, कानूनी रास्ता लंबा और घुमावदार होता है, उसमें कौन गिर जाए और उसको उठने में कितना वक्त लगे, यह कहना मुश्किल है.

यह भी साफ़ दिखता है कि मायावती की इस रणनीति से कांग्रेस के लिए मुश्किलें होंगी लेकिन राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी को शक्ति मिल सकती है.

इससे सचिन पायलट की राजनीति का प्रभाव कांग्रेस के लिए और ज्यादा मुश्किलें पैदा कर सकता है लेकिन आज मीडिया में यह प्रश्न उठ रहा है कि मायावती ने अपने विधायकों के कांग्रेस में जाने के मामले को पहले अदालत में क्यों नहीं ले गईं?

इसके लिए उन्होंने वो वक्त चुना जो कांग्रेस के लिए नाज़ुक वक्त है. राजनीति का यह भी एक सूत्र है कि किसी पर भी आक्रमण करना हो तो उसकी कमज़ोर घड़ी का इंतजार करना चाहिए.

कुछ लोग यह भी कह रहे है कि मायावती ऐसा भारतीय जनता पार्टी के इशारे पर उसे फायदा पहुँचाने के लिए कर रही हैं, हो सकता है यह बात भी सही हो, लेकिन जितना मैं समझता हूँ मायावती कांग्रेस को नुकसान तो पहुँचाना चाहती हैं, पर भाजपा को फायदा पहुँचाने के लिए ही ऐसा कर रही हैं, यह कहना आसान नहीं है.

ये ज़रूर है कि मायावती के इस कदम से भाजपा को फायदा होना स्वाभाविक है, मायावती न केवल राजस्थान में बल्कि उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को लेकर कटु रहती हैं. ऐसा शायद इसलिए है कि दलित जो आज बीएसपीका आधार हैं वे काफी लंबे समय तक कांग्रेस के वोटर रहे हैं.

आशंका

प्रियंका गांधी का फाइल फोटो

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दलितों में अधेड़ आयु वर्ग के लोगों में कई जगह अब भी भी कांग्रेस के प्रति लगावपूर्ण स्मृतियाँ देखने-सुनने को मिलती हैं. मायावती को सदा यह भय लगता रहता है कि कही दलितों का एक वर्ग फिर कांग्रेस से जुड़ न जाए.

दूसरे, कांग्रेस ठोस कारणों से उत्तर प्रदेश की राजनीति को काफी महत्व दे रही है, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को दोबारा जीवन देने का बीड़ा खुद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी ने उठा लिया है.

प्रियंका उत्तर प्रदेश की राजनीति में आक्रामक रूप से सक्रिय हैं.

वोटर बेस के हिसाब से मायावती को उत्तर प्रदेश में भाजपा से ज़्यादा कांग्रेस ख़तरनाक लगती है. दूसरे, प्रियंका गाँधी महिला नेता भी हैं, इससे भी मायावती को अपने नेतृत्व के लिए नई चुनौतियाँ खड़ी होती दिखती हैं इसीलिए कई बार मायावती अपने बयानों में कांग्रेस के प्रति ज़्यादा कटु दिखती हैं.

इसी लक्ष्य को साधने के लिए वे कई बार भाजपा की तारीफ करती भी दिखती हैं, ऐसा लगता है कि कांग्रेस के हिन्दी पट्टी में उभरने की संभावना को बीएसपी अपने अस्तित्व पर संकट के रूप में देखती है.

बीएसपी की समस्या सिर्फ़ बाहरी नहीं है, आंतरिक भी है.

यह संकट तीन स्तरों पर दिखाई देता है, एक तो नेतृत्व के स्तर पर, दूसरे राजनीतिक भाषा के स्तर पर, तीसरे एजेंडे के स्तर पर.

नेतृत्व के स्तर पर, बसपा की समस्या है कि एक तो बसपा में नेतृत्व की सक्षम सेकेंड लाइन अभी तक विकसित नहीं हो पाई है. कांशीराम के समय के अनेक महत्वपूर्ण नेता या तो पार्टी छोड़ चुके हैं, या पार्टी से निकाले जा चुके हैं.

दूसरे मंडल स्तर से लेकर राज्य स्तर पर 'नए नेता' बनाने की प्रक्रिया बीएसपी में जड़ होती दिख रही है, निचले स्तर पर कार्यरत नेताओं को सहज राजनीतिक पहल करने की छूट शायद ही मिलती है.

उनकी गतिविधियाँ काफी कुछ मायावती और केन्द्रीय स्तर पर नियंत्रित होती है इसलिए बीएसपी में कार्यकर्ता तो होते हैं, लेकिन उनमें नेता बनने की आकांक्षा दबी रह जाती है.

वे दूसरे दलों में अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए जाने लगते हैं, जो नेता बन भी जाते हैं, वे हमेशा पार्टी में अपनी स्थिति के लिए अनिश्चित रहते हैं. पद से हटाए जाने, पार्टी से निकाले जाने या पार्टी में रहकर जड़ हो जाने का भय उन्हें सदा सताता रहता है.

दूसरी मुश्किल बीएसपी की राजनीतिक भाषा में दिखाई पड़ती है. हिंदुत्व का उभार, उसका वंचित सामाजिक समूहों में प्रसार, कोरोना प्रभाव, प्रवासियों का अपने गृह राज्यों की ओर पलायन इन सबने मिलकर समकालीन राजनीतिक संदर्भ में बड़ा बदलाव किया है.

उलझन

अखिलेश यादव, मायावती फाइल फोटो

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जाति आधारित अस्मिताओं पर आधारित गोलबंदी की जगह आर्थिक विषमता वाली वर्ग आधारित अस्मिताएं आज की राजनीति में महत्वपूर्ण होने लगी हैं. दूसरी तरफ, धार्मिक अस्मिताओं की चाह ने वंचित समूहों के बीच भी जातीय आक्रामकता को कम किया है.

ऐेसे में ज़रुरत थी कि बसपा और मायावती अपनी राजनीतिक भाषा को ऐसा बनाए जो वंचितों में उभर रही नई अस्मिताओं और भावों के साथ संवाद कर सके लेकिन लगता है कि मायावती अपनी राजनीतिक भाषा को इन बदलते राजनीतिक परिवेश के अनुसार बदल नहीं पा रही हैं.

बसपा की तीसरी समस्या, राजनीतिक एजेंडे की है, बसपा जब से उत्तर प्रदेश में सरकार से बाहर हुई, उसने न तो अपने राजनीतिक एजेंडे में कोई व्यापक बदलाव किया है, और न ही अपने को एक जन आन्दोलन की पार्टी के रूप में दोबारा खड़ा किया है.

साल 2007 के बाद से ही अब न तो वह सत्ता की पार्टी रह गई है और न ही जन आन्दोलनों से उसका कोई रिश्ता बचा है.

इन सब समस्याओं के कारण बसपा और मायावती की राजनीति पीछे छूटती जा रही है, न चुनावों में उत्साह बढ़ाने वाले प्रदर्शन वह दिखा पा रही है, न ही प्रभावी विपक्ष के रूप में राजनीतिक पहल कर पा रही है.

इन सबने आज के समय में बीएसपी के लिए संकट और चुनौतियों का अंबार खड़ा कर दिया है. बसपा और मायावती घटनाएँ घट जाने के बाद, कई बार अप्रभावी पहल करती दिखती हैं.

राजस्थान के सन्दर्भ में भी बीएसपी की रणनीति को देर से उठाया गया कदम माना जाना चाहिए जो विपक्ष की राजनीति के लिए अच्छा नहीं माना जाता.

प्रतीकों की भाषा में कहें तो विपक्ष को बाज की तरह होना चाहिए, जो मुद्दा दिखते ही उसे सबसे पहले झपट ले.

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