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वो अनमोल मूर्तियाँ जो तालिबान के संहार से बची रह गईं
- Author, रुचि कुमार
- पदनाम, बीबीसी ट्रेवल
काबुल के सुदूर दक्षिण-पश्चिमी कोने में हिंदूकुश पहाड़ों और काबुल नदी के बीच में बना अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रीय संग्रहालय दुनिया की अनमोल धरोहरों को संजोये हुए है.
यहाँ 50 हज़ार साल पुराने प्रागैतिहासिक अवशेषों से लेकर इस्लामिक कला के नमूने हैं जो अफ़ग़ानिस्तान के समृद्ध इतिहास के सबूत हैं.
89 साल पहले बने इस संग्रहालय ने सोवियत संघ का क़ब्ज़ा देखा. यह गृहयुद्ध का गवाह बना और इसने तालिबान का नियंत्रण भी देखा. मगर यह बचा रहा.
संग्रहालय की पहली मंज़िल को दिखाते हुए निदेशक फ़हीम रहीमी कहते हैं, "इस देश की विरासत समृद्ध है."
दूसरी मंज़िल पर चौथी शताब्दी की यूनानी कलाओं से लेकर 12वीं सदी के गज़नविद सल्तनत की इस्लामिक कलाकृतियां हैं.
"अफ़ग़ानिस्तान मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व को जोड़ता है. यहां विविधता थी और सभी संस्कृतियों के लोगों ने यहां अपनी विरासत छोड़ी है."
संग्रहालय की अनमोल धरोहरों को हमेशा ख़तरा रहा. यह दारूल अमन शाही महल के पास है.
यह डर हमेशा बना रहा कि अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी पर क़ब्ज़े के लिए लड़ने वाली ताक़तें कहीं इस संग्रहालय और यहां की कलाकृतियों को नष्ट न कर दें.
सोवियत क़ब्ज़ा
पहली शताब्दी ईस्वी के बाद के सोने के गहने, हथियार और सिक्के 1979 में सोवियत आक्रमण के समय छिपा दिए गए थे.
1989 में सोवियत सेना के लौटने पर यह मुजाहिदीन गुरिल्ला संगठनों की आपसी लड़ाई में फंस गया.
1993 में यहां की छत पर एक रॉकेट गिरा जिससे चौथी शताब्दी की एक पेंटिंग, मिट्टी और कांसे के पुराने बर्तन बर्बाद हो गए. 1997 में रॉकेट से दूसरा हमला हुआ.
1990 के दशक के आख़िर तक यहां की 70 फीसदी कलाकृतियां या तो लूट ली गईं या उनको नष्ट कर दिया गया.
रहीमी कहते हैं, "हर दिशा में अलग-अलग गुरिल्ला एक-दूसरे से लड़ रहे थे. म्यूज़ियम उनके बीच में था."
"हमारे कर्मचारी यहां की चीज़ों को नहीं बचा सकते थे क्योंकि यहां आना भी नामुमकिन था. हमने कई चीज़ें खो दीं."
कर्मचारियों ने 1979-89 के सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध के दौरान संग्रह का बड़ा हिस्सा गोपनीय तरीक़े से हटा दिया था. तालिबान का शासन शुरू होने से पहले भी उनको हटा दिया गया जिससे वे तबाह होने से बच गए.
सोवियत क़ब्ज़े के दौरान म्यूज़ियम के क्यूरेटर्स ने कम्युनिस्ट-समर्थित सरकार को राज़ी कर लिया था कि यहां के दो तिहाई संग्रह को मध्य काबुल में सूचना और संस्कृति मंत्रालय के बैंक लॉकरों और गोदामों में छिपा दिया जाए जिससे वे मुजाहिदीनों के हमले से बचे रहें.
मलबे के बीच अजायबघर
1992 से 1996 के दौरान जब मुजाहिदीन काबुल पर क़ब्ज़े के लिए लड़ रहे थे तब यह जगह मलबे के ढेर में तब्दील हो गई थी. यहां बिजली और पानी की सप्लाई भी बंद थी.
कुछ दिनों के लिए लड़ाई बंद हुई तो म्यूज़ियम के स्टाफ़ (जिनको तनख्वाह भी नहीं मिल रही थी) यहां आए.
केरोसिन लैंप की रोशनी में उन्होंने 500 बक्सों में हज़ारों कलाकृतियों को भरा और उन्हें गोपनीय तरीक़े से काबुल होटल (जो अब काबुल सेरेना होटल है) में पहुंचा दिया.
1996 में तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया तब लड़ाई कम हो गई, लेकिन नये शासकों ने देश की प्राचीन कलाकृतियों को शायद सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुंचाया.
मार्च 2001 में तालिबान कमांडरों ने बामियान में 3,000 साल पुरानी बलुई पत्थर से बनी दुनिया की सबसे ऊंची बुद्ध प्रतिमा को विस्फोटक बांधकर उड़ा दिया. लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि राष्ट्रीय संग्रहालय में क्या हुआ था.
सबसे बुरा दौर
फ़रवरी 2001 में तालिबान के लोग यहां घुसे. हथौड़े और कुल्हाड़ियों से उन्होंने वह सब कुछ तोड़ दिया जिनको वे इस्लाम में ईशनिंदा वाली चीज़ समझते थे.
वे तब तक विध्वंस मचाते रहे जब तक हज़ारों बेशक़ीमती पुरानी चीज़ें नष्ट नहीं हो गईं.
संग्रहालय के एक कर्मचारी (जो अपना नाम बदलकर मोहम्मद आसिफ़ बताते हैं) कहते हैं, "कुछ हफ्तों तक तालिबान नियमित रूप से यहां आते रहे और ऐतिहासिक मूर्तियों को तोड़ते रहे. बुद्ध की मूर्तियों को वे इस्लाम-विरोधी समझते थे."
सोवियत-अफ़ग़ान युद्ध के एक छोटे अंतराल को छोड़ दें तो आसिफ़ ने पिछले 40 साल से संग्रहालय में काम किया है. उस दौरान वह मुजाहिदीन लड़ाकों से डरकर देश से भाग गए थे क्योंकि वे उनको कम्युनिस्टों से सहानुभूति रखने वाला समझते थे.
"जब मैं अफ़ग़ानिस्तान लौटा तो संग्रहालय में ज़्यादा कुछ नहीं बचा था. जो बचा था उनको हमने संभाला लेकिन तालिबान ने उसे भी तोड़ दिया."
आसिफ़ और उनके सहयोगियों ने तालिबान के हर हमले के बाद टूटी हुई कलाकृतियों को इकट्ठा किया और उनको संग्रहालय के आसपास छिपा दिया.
रहीमी बताते हैं, "हमने उनको कूड़े के ढेर के नीचे छिपाया या उन कमरों में जहां तालिबान नहीं देखते थे. अब हम इतिहास के कुछ पन्नों को फिर से जोड़ने में सक्षम हैं."
2004 में संग्रहालय दोबारा खोला गया. कर्मचारियों ने जिन कलाकृतियों को बचाया था, उनको प्रदर्शित किया गया.
संरक्षण के प्रयास
फ़ेबियो कोलंबो अफ़ग़ानिस्तान और विदेशी विशेषज्ञों की चुनिंदा टीम का नेतृत्व करते हैं. शिकागो यूनिवर्सिटी का ओरियंटल इंस्टीट्यूट उनकी मदद कर रहा है.
अमरीकी विदेश विभाग के आर्थिक सहयोग से वे उन कलाकृतियों को संभाल रहे हैं जिनको तालिबान से छिपाया गया था.
वे बुद्ध की क़रीब 2,500 प्रतिमाओं और चीनी मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों को दोबारा जोड़ रहे हैं.
इस परियोजना का फ़ोकस हद्दा पर है, जो ढाई हज़ार साल पहले अफ़ग़ानिस्तान में बौद्धों का बड़ा केंद्र था.
आसिफ़ कहते हैं, "1930 के दशक में पहली बार फ्रांसीसियों ने हद्दा में खुदाई की थी. वहां से मिली बुद्ध प्रतिमाओं को फ्रांस ले जाया गया. कुछ को काबुल में प्रदर्शित किया गया, जहां 2001 में तालिबान ने उनको तोड़ दिया."
आसिफ़ ने मुझे कई टेबल पर फैले क़रीब 7,500 टुकड़ों को दिखाया. उनमें से कई टुकड़े चावल के दाने के बराबर हैं.
विशेषज्ञों की टीम सबको जोड़ने का प्रयास कर रही है.
टुकड़ों का मूल्यांकन और विश्लेषण करने और 4 साल की परियोजना का बजट तय करने में कोलंबो को एक साल से ज़्यादा का वक़्त लगा.
2020 के आख़िर तक राष्ट्रीय संग्रहालय में वह जोड़ी हुए कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाना चाहते हैं.
रहीमी के मुताबिक़ फ्रांसीसियों ने हद्दा की खुदाई से क़रीब 20,000 बुद्ध प्रतिमाएं निकाली थीं. बाद में अफ़ग़ानिस्तान के पुरातत्वविदों ने भी वहां से अन्य कलाकृतियों की खुदाई की.
वह कहते हैं, "हम कभी सही तादाद नहीं जान पाएंगे क्योंकि हमारे पास उसके दस्तावेज़ नहीं हैं. युद्ध (गृह युद्ध और तालिबान शासन) के दौरान वे खो गए."
अबूझ पहेली
1960 और 1970 के दशक की इन्वेंट्री के कुछ दस्तावेज़ तहख़ाने में मिले जिनसे कुछ मदद मिली.
कोलंबो कहते हैं, "यह 30 अलग-अलग पहेलियों के टुकड़ों को मिलाने के बाद बिना किसी तस्वीर के सहारे उन सभी पहेलियों को हल करने जैसा है."
फिर भी उनकी टीम ने तय कर रखा है कि वे जितनी प्रतिमाएं संभव हो सकें, उनको फिर से जोड़कर तैयार करेंगे.
काम पूरा होने के बाद हद्दा की कलाकृतियां जब राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रदर्शित होंगी तब वे अफ़ग़ानिस्तान में बौद्ध इतिहास की कहानी बयां करेंगी.
अफ़ग़ानिस्तान में हिंदूकुश की पहाड़ियों में बौद्ध धर्म का बड़ा असर रहा है. बौद्ध धर्म अफ़ग़ानिस्तान में ईसा से तीन सदी पहले अशोक के समय आया था.
रहीमी कहते हैं, "यह वह समय था जब यहां (ग्रीक) बैक्ट्रियन काल का भी बड़ा प्रभाव था, इसलिए आप हद्दा की शानदार प्रतिमाओं में दोनों संस्कृतियों का मिलन देख सकते हैं."
कोलंबो 2002 से अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्व की चीज़ों के संरक्षण का काम कर रहे हैं. वह सिर्फ़ हद्दा तक सीमित नहीं हैं.
वह कहते हैं, "अफ़ग़ानिस्तान का इतिहास अद्भुत है, लेकिन यहां सुरक्षा की समस्याएं हैं."
अमरीका-तालिबान समझौता
हद्दा संरक्षण परियोजना से जुड़ा हर सदस्य हाल की राजनीतिक घटनाओं से चिंतित है. अमरीकी प्रशासन ने 19 साल की लड़ाई को ख़त्म करने के लिए तालिबान से समझौता किया है.
म्यूज़ियम के स्टाफ़ को चिंता है कि तालिबान फिर से अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता में लौट सकते हैं. तब क्या वे ऐतिहासिक संरक्षण के प्रयासों को मंज़ूर करेंगे?
रहीमी कहते हैं, "हमारा इस्लामी इतिहास शानदार है और उस पर हमें गर्व है, लेकिन हमें इस्लामिक काल से पहले के समृद्ध इतिहास को भी बचाना चाहिए."
"हमारे युवा इतिहास के बारे में पढ़ें, विविधता और विरासत को जानें, यह बहुत अहम है."
कोलंबो ने उम्मीद नहीं छोड़ी है. "लोग इतिहास को कैसे देखते हैं, इसमें बहुत बदलाव आया है."
वह अफ़ग़ानिस्तान के सांस्कृतिक संरक्षकों की अगली पीढ़ी को देश के अतीत का संरक्षण करना सिखाना चाहते हैं. इनमें पुरातत्वविद, कला इतिहासकार, इंजीनियर और वास्तुकार भी शामिल हैं.
वह कहते हैं, "एक पूरी पीढ़ी के पास ऐसे मौक़े नहीं थे. युवा पीढ़ी को प्रेरित करने और इस दिशा में काम करने का मौक़ा देने के लिए हमें बहुत कुछ करना होगा."
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