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मूर्तियों को गिराने और तोड़ने के पीछे की सोच क्या है?
- Author, केली ग्रोविअर
- पदनाम, बीबीसी कल्चर
आपको अफ़ग़ानिस्तान के बामियान के बुद्ध याद हैं?
शायद कुछ लोगों को याद हों और कुछ लोगों को याद न हों. बामियान के बुद्ध की उन विशाल मूर्तियों की तस्वीरें कुछ लोगों के ज़हन में होंगी. लेकिन जैसे-जैसे वक़्त बीतेगा, आने वाली नस्लों के दिमाग़ से ये तस्वीरें धुंधली होती जाएंगी.
शायद यही इन मूर्तियों को तो़ड़ने का मक़सद था. पहले के दौर की सोच को मिटाना, उस दौर के प्रतीकों का ख़ात्मा करना.
इसीलिए कहा जाता है कि अगर आप किसी देश को समझना चाहते हैं, तो यह मत देखिए कि उन्होंने कौन से प्रतीक लगाए हैं. यह देखिए कि उन्होंने कौन से प्रतीक मिटाए हैं.
अमरीका भी खड़ा है दोराहे पर
तरक़्क़ीयाफ़्ता अमरीका इस वक़्त ऐसे ही दोराहे पर खड़ा है. वहां कुछ लोग उन्नीसवीं सदी में हुए गृहयुद्ध के कुछ बड़े जनरलों के बुतों को हटाना चाहते हैं.
ये लोग ख़ुद को तरक़्क़ीपसंद कहते हैं. इन्हें लगता है कि गृहयुद्ध में गुलाम प्रथा या दास प्रथा के समर्थकों की मूर्तियां अब देश में नहीं रहनी चाहिए.
लेकिन, कुछ अमरीकी इन्हें अपना असली लीडर मानते हैं. उन्हें लगता है कि ये नस्लवादी लोग उनकी सोच के नुमाइंदे थे.
इन लोगों ने हाल ही में अमरीका के शार्लोटविल में एक रैली की, जहां उनका सामना उदारवादी ख़याल रखने वालों से हो गया. इस भिड़ंत में एक शख़्स की मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए.
ट्रंप का सवाल
ख़ुद अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने सवाल उठाया है कि क्या मूर्तियां हटाकर लोग इतिहास मिटाना चाहते हैं? ट्रंप पर भी गोरे नस्लवाद को बढ़ावा देने का आरोप लगा है.
लेकिन इन आरोपों से बेपरवाह अमरीकी राष्ट्रपति कहते हैं कि पहले अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने भी दास रखे थे. तो क्या कल को उनके बुत भी पूरे अमरीका से हटाए जाएंगे.
शार्लोटविल में गोरे नस्लवादियों की रैली के ख़िलाफ़ उदारवादियों ने उत्तरी कैरलाइना के डरहम शहर में एक कोर्ट के बाहर प्रदर्शन किया. इस दौरान प्रदर्शनकारियों ने अपने शहर में मौजूद दास प्रथा के समर्थकों की मूर्तियों को गिराना शुरू कर दिया.
मूर्ति को रस्सी से खींचकर गिराने की यह तस्वीर एक सांस्कृतिक क्रांति का प्रतीक मानी जा रही है. इसकी तुलना उस दिन से हो रही है, जब सन् 1776 में अमरीका ने अपनी आज़ादी का ऐलान किया था.
उस दिन उत्साहित भीड़ ने न्यूयॉर्क शहर में लगी ब्रिटिश राजा जॉर्ज तृतीय की कांसे की मूर्ति को रस्सी से खींचकर गिरा दिया था.
नई इबारत?
न्यूयॉर्क के बाउलिंग ग्रीन में स्थित जॉर्ज तृतीय का बुत गिराने की इस घटना को अमरीका की आज़ादी के ऐलान का सबसे बड़ा प्रतीक माना गया था.
इस पर उस दौर के मशहूर चित्रकारों ने पेंटिंग्स बनाई. ये पेंटिंग्स आज़ाद अमरीका की प्रतीक बन गईं.
कितना दिलचस्प है कि हम कुछ बातों, कुछ सिद्धांतो को हमेशा याद रखने के लिए कुछ बुत लगाते हैं. कुछ प्रतीक बनाते हैं.
जैसे हिंदुस्तान में अशोक की लाट. वहीं कुछ मूर्तियां गिराकर हम पुराने पड़ चुके सिद्धांतों को अलविदा कहते हैं.
आज जो अमरीका में हो रहा है, यानी दास प्रथा समर्थक जनरलों की मूर्तियां गिराई जा रही हैं; या इससे पहले बामियान में हुआ, जब तालिबान ने सत्ता में आने पर बुद्ध की इन ऐतिहासिक और विशाल मूर्तियों को बारूद से उड़ा दिया, यह सब पुराने पड़ चुके इतिहास को मिटाने और नई इबारत लिखने के लिए भी हो रहा है.
वैसे इससे पहले भी ऐसा होता रहा है. मसलन, 2003 में इराक़ में लोगों ने सद्दाम हुसैन के विशालकाय बुत रस्सियों से खींचकर गिराए थे.
1991 में मॉस्को के लुबिंका चौराहे पर लगी सोवियत संघ की ख़ुफिया पुलिस चेका के संस्थापक फेलिक्स जेरजिंस्की की मूर्ति गिरा दी गई थी क्योंकि वह उस ज़ुल्म के प्रतीक थे, जो सोवियत ख़ुफ़िया पुलिस ने आम लोगों पर ढाया था.
फिर साल 2011 में लीबिया के लोगों ने कर्नल गद्दाफ़ी के बुतों को ढहा दिया था.
मूर्तियां गिराने के पीछे क्या सोच है?
वैसे क्या आपको मालूम है कि यह प्रतीक या मूर्तियां गिराने की सबसे पुरानी मिसाल कौन सी है?
यह मिसाल सन् 1357 की है, जब इटली के टोस्काना सूबे के सिएना शहर में बीच चौराहे पर लगी वीनस की मूर्ति को लोगों ने हटा दिया था. वीनस रोम के लोगों की देवी थी. उसे ख़ूबसूरती और सेक्स की देवी मानकर पूजा जाता था.
वीनस का बेहद ख़ूबसूरत बुत सिएना में एक फव्वारे पर लगा था. स्थानीय लोग इसे बहुत पसंद करते थे.
लेकिन एक जंग में हारने के बाद उन्हें लगा कि इस नग्न मूर्ति के चलते ही भगवान उनसे नाराज़ हो गए और उन्हें हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद स्थानीय लोगों ने इस मूर्ति को हटा दिया.
ऐतिहासिक प्रतीकों को गिराना या बनाना दोनों ही इंसान की सोच में आए बदलाव के प्रतीक हैं.
भारत में इसे असहिष्णुता पर छिड़ी बहस से जोड़ा जा सकता है, जब सड़कों के नाम बदल रहे हैं या इतिहास की क़िताबें नए सिरे से लिखने की चर्चा हो रही है. हो सकता है कि आगे चलकर अमरीका, रूस, इराक़ और लीबिया की तरह भारत में भी पुराने बुतों को गिराया जाने लगे.
तो इसे हम क्या कहेंगे? दूसरे ख़यालात के प्रति असहिष्णुता, सच को बर्दाश्त कर पाने की क़ुव्वत की कमी या फिर, जैसा अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा, 'यह इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश है.'
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