जलवायु परिवर्तन पर UN की IPCC रिपोर्ट भारत के लिए कितनी गंभीर है?

इमेज स्रोत, Getty Images
- Author, नवीन सिंह खड़का
- पदनाम, पर्यावरण संवाददाता, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस
संयुक्त राष्ट्र के इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की रिपोर्ट अगर दूसरे देशों को पर्यावरण विनाश के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने को लेकर ध्यान दिला रही है तो भारत को इसे दूसरे नज़रिए से भी देखने की ज़रूरत है.
कार्बन उत्सर्जन के मामले में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे स्थान पर है और वह कह चुका है कि वह पेरिस जलवायु समझौते के अपने वादे को पूरा करने की दिशा में अग्रसर है और 2005 के स्तर के अनुसार वह 2030 तक 33-35% कार्बन उत्सर्जन कम करेगा.
पेरिस जलवायु समझौते का लक्ष्य दुनिया का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक नहीं बढ़ने देना है और उसे 1.5 डिग्री पर ही रोक देना है.
लेकिन IPCC की रिपोर्ट संकेत देती है कि उसका पिछला लक्ष्य पूरा होता नहीं दिख रहा है, क्योंकि वैश्विक तापमान बढ़ने की दिशा में दुनिया के कई देश तेज़ी से कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं कर पा रहे हैं.
दुनिया के कई बड़े कार्बन उत्सर्जक देश घोषणा कर चुके हैं कि वे 2050 तक कार्बन के मामले में न्यूट्रल हो जाएँगे. यहाँ तक कि चीन ने 2060 तक के लिए अंतिम तिथि तय कर दी है.
इसके बावजूद IPCC की रिपोर्ट में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश भारत को जलवायु ख़तरे की 2019 की सूची में सातवें पायदान पर रखा गया है, जिसे वह नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है.
इसी पर्यावरण प्रणाली में हुए लॉक?

इमेज स्रोत, Getty Images
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु विज्ञान संगठन की इस छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में बेहद गंभीर परिणाम पाए गए हैं, जो बताते हैं कि हमारी पृथ्वी की पर्यावरण प्रणाली ने लगातार होते जलवायु परिवर्तन के कारण पहले ही न ठीक होने वाले परिवर्तन देख लिए हैं.
रिपोर्ट कहती है, "पूरी पर्यावरण प्रणाली के वर्तमान और सभी पहलुओं के बदलावों को जिस पैमाने पर मापा गया है उससे पता चलता है कि पर्यावरण प्रणाली कई सदियों और कई हज़ार सालों तक ऐसे ही बनी रहने वाली है."
पर्यावरण वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका अर्थ यह समझा जा सकता है कि बेमौसम पर्यावरण प्रणाली बद से बदतर होगी और उसका असर पड़ेगा. इसमें समुद्र और वातावरण और ख़राब होगा.
हालिया IPCC रिपोर्ट के लेखक और ब्रिस्टल विश्वविद्याल में ग्लेशियोलॉजिस्ट प्रोफ़ेसर जॉनाथन बाम्बेर बीबीसी से कहते हैं, "कुछ पर्यावरण प्रणाली अब लॉक हो चुकी हैं (इंसानों द्वारा गर्मी पैदा किए जाने के कारण)."
"अगर हम कार्बन उत्सर्जन नहीं रोक पाते हैं तो उसके कुछ नुक़सान होंगे."
इसमें दक्षिण एशिया के लिए क्या है?

इमेज स्रोत, Getty Images
IPCC रिपोर्ट ने संकेत दिए हैं कि 21वीं सदी में दक्षिण एशिया में लू और गर्मी और भी ज़्यादा भयंकर होने जा रही है.
साथ ही यह रिपोर्ट कहती है कि 21वीं सदी में सालाना और मॉनसून वर्षा में तेज़ी आएगी.
"पूरे तिब्बती पठार और हिमालय में एक सामान्य आर्द्रता रहेगी, इसके साथ ही 21वीं सदी में भारी वर्षा में वृद्धि होगी."
रिपोर्ट यह भी बताती है कि कैसे शहरीकरण ने जलवायु को प्रभावित किया है और बाढ़ की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है.
"उच्च जलवायु परिवर्तन स्तर पर ख़ासतौर से शहरी इलाक़ों में अधिक वर्षा होने के कारण बाढ़ आने के मामले अधिक हो सकते हैं."
पृथ्वी की पर्यावरण प्रणाली में इस दौरान बड़ी घटनाएँ होने की आशंका है जिनमें भारी बारिश से बाढ़ और भूस्खलन, लू से जंगलों में आग लगने या समुद्री और चक्रवाती तूफ़ान होने की घटनाएँ बढ़ सकती हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि लगातार गर्मी बढ़ने की चेतावनी के बावजूद पूरी प्रणाली अस्थिर हो सकती है और लगातार मौसम संबंधी प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी हो सकती है.
अत्यंत ख़राब मौसम के कारण विस्थापन

इमेज स्रोत, Getty Images
अंतरराष्ट्रीय चैरिटी संस्था ऑक्सफ़ैम के अनुसार, मौसम संबंधी आपदाओं के कारण बीते 10 दशकों में 2 करोड़ से अधिक लोगों को हर साल विस्थापित होना पड़ता है. रिपोर्ट कहती है कि इस तरह की आपदाएँ बीते 30 सालों में तीन गुनी हो चुकी हैं.
संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक़ साल 2000 से सूखे, बाढ़ और जंगल में आग लगने के कारण 12.3 लाख लोगों की मौत हुई है जबकि 4.2 अरब लोग प्रभावित हुए हैं.
भारत सरकार ने पिछले साल अपने ख़ुद के जलवायु परिवर्तन के आकलन पर अपनी पहली रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें पाया गया था कि 1951 से 2016 के बीच सूखे की गति और तीव्रता तेज़ी से बढ़ी है.
इसमें चेतावनी दी गई है कि सदी के अंत तक लू चार गुना तीव्र हो जाएगी.
वर्ल्ड रिसॉर्स इंस्टीट्यूट की 2019 की वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार, भारत उन 17 देशों में से एक है. जहाँ पर पानी को लेकर बहुत अधिक दबाव है.
इसमें दिखाया गया है कि भारत मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका के उन देशों के साथ इस सूची में है, जहाँ भू और सतह का जल समाप्त हो रहा है जबकि मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीका के देशों में बड़े रेगिस्तान हैं.
ओवरसीज़ डेवेलपमेंट इंस्टीट्यूट के अनुसार, पिछले साल अंफन चक्रवाती तूफ़ान के कारण 1.3 करोड़ लोगों पर असर पड़ा था और इसके कारण 13 अरब डॉलर का नुक़सान हुआ था.
महामारी का मुक्का
महामारी से पस्त भारतीय अर्थव्यवस्था वापस खड़े होने के लिए संघर्ष कर रही है.
यह भी एक वजह हो सकती है कि भारत सरकार ने अभी तक कार्बन न्यूट्रल बनने की तारीख़ की घोषणा या कार्बन उत्सर्जन में कटौती का कोई नया लक्ष्य नहीं तय किया है.
हालांकि, महामारी के कारण मौसम से जुड़ी घटनाएँ न ही रुकेंगी और न ही धीमी होंगी.
विशेषज्ञों ने इसके बावजूद चेतावनी दी है कि अगर कोविड से प्रभावित अर्थव्यवस्थाएँ उसे वापस खड़ा करने के लिए जीवाश्म ईंधन का सहारा लेती हैं तो ऐसी आपदाएँ और तीव्र होंगी.
मौसम संबंधित लगातार सामने आती आपदाओं को लेकर भारत को कुछ करना ज़रूर होगा, यहाँ तक कि वो फ़िलहाल कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को न बढ़ाने की भी घोषणा कर सकता है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)


















