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'ग़रीबी आकलन की पद्धति में बदलाव हो' | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात में भारत में ग़रीबी आँकने की पुरानी सरकारी पद्धति में बदलाव लाया जाना ज़रूरी हैं. यह निष्कर्ष था बिहार की राजधानी पटना में आयोजित तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का जिसका समापन रविवार को हुआ. भारत में ग़रीबी की वास्तविक स्थिति का आकलन कर उसके मुताबिक ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में सही नीति और कार्यक्रम संबंधी सुझाव देना, यह उद्देश्य था इस सेमिनार का. इसमें देश-विदेश के कई जानेमाने अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने हिस्सा लिया. नीतीश सक्रिय इस आयोजन में बिहार सरकार की परोक्ष लेकिन मुख्य भूमिका रही. आयोजकों में नाम था दिल्ली के इंस्टीच्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट, पटना के अनुग्रह नारायण संस्थान और एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीच्यूट का. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस विचार गोष्ठी में ख़ासे सक्रिय और उत्साहित दिखे. उन्होंने इसी बहाने अपनी सरकार को ग़रीबोन्मुख साबित करने संबंधी तमाम प्रचारात्मक कौशल दिखाए. ये अलग बात है कि इस ग़रीब राज्य को इस आयोजन पर ख़र्च लाखों में नहीं, करोड़ों में उठाना पड़ गया. अमीरी अंदाज़ में ग़रीबी पर चर्चा वाली इस अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में नीतीश कुमार का सबसे ज़्यादा ज़ोर ग़रीबी की पहचान के मौजूदा मापदंड की कथित त्रुटियों पर रहा. उन्होंने ग़रीबी उन्मूलन की नीति और रणनीति पर फिर से गहन विचार विमर्श के लिए राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक बुलाए जाने की माँग की. निचोड़ उधर, जिन विद्वान वक्ताओं ने इस विचारगोष्ठी में आँकड़ों के ज़रिए अपने विश्लेषण प्रस्तुत किए, उनका निचोड़ इस प्रकार है. -ग़रीबी को आँकने और मापने की पुरानी सरकारी पद्धति में मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालात के मद्देनज़र बदलाव लाए जाएँ. -ग़रीबों की पहचान के लिए केंद्र सरकार द्वारा जो 13 बिंदुओं वाला फॉर्मूला यानी मापदंड अपनाया जा रहा है, उसमें कई त्रुटियाँ हैं. इसलिए ज़मीनी स्थिति का फिर से जायज़ा लेकर कोई सर्वमान्य फॉर्मूला बनाया जाए. -ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों की जो सूची राज्य सरकारों से बनवाई जाती है, उसके मुताबिक वास्तविक रूप में ग़रीबों की तादाद काफ़ी बढ़ जाती है. इसलिए इस संबंध में केंद्र और राज्य सरकारों पर शीघ्र तालमेल होना चाहिए. -निर्धनता के विभिन्न पहलुओं पर सरकारी और ग़ैरसरकारी संस्थाओं द्वारा जो सुझाव पेश होते रहे हैं, उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर एक मान्य नीति और कार्यक्रम की शक्ल देनी चाहिए. इसके लिए केंद्र सरकार जितनी जल्दी हो सके, राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक बुलाकर ग़रीबी उन्मूलन की ठोस रणनीति बनाए. इन सुझावों के अलावा भी विचारगोष्ठी में कई अन्य संभावनाओं पर चर्चा हुई. मुख्य वक्ताओं में डॉ अर्जुन सेनगुप्ता, प्रोफेसर अभिजीत सेन, प्रोफेसर कौशिक बासु, प्रोफेसर बीबी भट्टाचार्य, डॉ टीएन श्रीनिवासन, प्रोफेसर जीएस भल्ला, प्रोफेसर प्रणव बर्धन, प्रोफेसर एसके थोरट और प्रोफेसर टीएस पापोला शामिल थे. | इससे जुड़ी ख़बरें 'भारत ग़रीबी दूर करने के रास्ते पर'02 फ़रवरी, 2007 | भारत और पड़ोस बाल मज़दूरी का अर्थशास्त्र06 अक्तूबर, 2006 | भारत और पड़ोस न बदल सकी पिछड़े गाँवों की तस्वीर03 फ़रवरी, 2007 | भारत और पड़ोस सड़कें दुरुस्त करना चुनौती: नीतीश24 नवंबर, 2006 | भारत और पड़ोस क्या हैं योजना से जुड़ी आशंकाएँ?02 फ़रवरी, 2006 | भारत और पड़ोस भारत: तेज़ी से बदलती पहचान03 फ़रवरी, 2007 | भारत और पड़ोस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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