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न बदल सकी पिछड़े गाँवों की तस्वीर | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
रोज़गार गारंटी योजना राजस्थान के पाँच ज़िलों में लागू है, लेकिन एक साल पूरा होने के बावजूद इन गाँवों की तक़दीर और तस्वीर नहीं बदल सकी है. भारत के चुनिंदा ज़िलों में लागू की गई केंद्र सरकार की रोज़गार गारंटी योजना ने एक साल पूरा कर लिया है. राजस्थान के पाँच ज़िले इसमें शामिल किए गए हैं. लेकिन यह योजना ग़रीबी से जूझते गाँवों की तस्वीर नहीं बदल पाई है. राज्य के करौली ज़िले में इस योजना के तहत रोज़गार पर लगे मज़दूरों का कहना है साल में महज सौ दिन का काम उनके जीवन स्तर में कोई फ़र्क नहीं ला पाया है. ऊँट के मुँह में जीरा दक्षिणी पूर्वी राजस्थान के करौली ज़िलें के दलित बहुल ‘मोहवी का पुरा’ के डेढ़ सौ से ज़्यादा लोगों को काम मिला है. उन्हीं में से एक मुन्नी(35) कहती हैं घर खर्च के लिए 73 रुपए प्रतिदिन नाकाफी है. उस पर घर के सात लोगों का भार है. वो कहती हैं, ‘‘यह छोटी सी कमाई नून (नमक), तेल, लकड़ी में चली जाती है और उन्हें कई बार तीन रुपए सैंकड़ा की दर पर कर्ज़ लेना पड़ता है.’’ मुन्नी और उसका पति मोहन काम के लिए दिल्ली तक चक्कर लगा आए. खाली हाथ गाँव लौटे, यहाँ मुन्नी को काम मिल गया लेकिन मोहन बेकार बैठे हैं. मोहन कहते हैं, "साल में सौ दिन के काम से भला कैसे गुजारा होगा? यह राशि घर खर्च की एक तिहाई भी नहीं है." मुन्नी कहती हैं कि धरती के नीचे का पानी सूख गया. इसलिए खेतों पर भी मज़दूरी नहीं मिलती है. कर्ज़ का बोझ क्या रोज़गार गारंटी योजना ने उनकी जीवन दशा को बदल दिया है? मुन्नी कहती हैं, ‘‘घर के एक सदस्यो को सिर्फ़ सौ दिन काम से भला कुछ बदल सकता है. चूल्हे चौकी का खर्च. हारी बीमारी और उधारी चुकाने के लिए ही यह रकम कम पड़ती है.’’
मुन्नी कहती है,‘‘सर्दी में बच्चे गर्म कपड़ों को तरस गए.’’ आग्नेय चट्टानों के बीच तलछट से बनी कठोर धरती को गैंती, फावड़ों से खोदते इन श्रमिकों में ज़्यादातर महिलाएं थी. इनके मर्द घरों पर खाली बैठे हैं. धान-छप्पर से अपने आशियाने में बच्चों के साथ बैठे मोहन बैरवा कहते हैं,‘‘क्या 73 रुपए में कोई घर का गुजारा कर सकता है? खाना, खर्चा, कर्ज़ा और बच्चों को स्कूल भेजने के लिए कर्ज़ लेना पड़ता है. एक मजदूर के पीछे पूरा परिवार बैठकर खाता है, कोई और धंधा नहीं है’’ मुश्किलें मोहवी का पूरा की 70 वर्षीय तीजा का स्वर वेदना से भर उठता है. उसके घर में 12 सदस्य हैं. लेकिन पुत्र वधू विमला भाग्यशाली है, उसे काम मिल गया. तीजा कहती है, ‘‘एक घर से एक आदमी को काम. बच्चों के लिए चटनी का जुगाड़ तक करना मुश्किल हो रहा है. इससे तो अच्छा भगवान मुझे पंक्षी बना देता, उड़कर कम से कम अपना चुग्गा-पानी तो ले आती.’’ सौ दिन के रोज़गार की गारंटी इन परिवारों के जीवन में कोई उत्साह और उल्लास नहीं ला पाई. इनके जीवन में उस वक़्त भी अंधेरा था, जब भारत नारों और इश्तिहारों से चमक रहा था. हाड़ तोड़ मेहनत के बाद भी उनका हाथ तंग है, उनके लिए तो ज़िंदगी महज एक जंग है, जिसे वे किस्तों में हारते रहे हैं. | इससे जुड़ी ख़बरें रोज़गार की गारंटी, भुगतान की नहीं!01 फ़रवरी, 2007 | भारत और पड़ोस दोराहे पर खड़ा एक गाँव13 जून, 2006 | भारत और पड़ोस रोज़गार योजना नहीं, रोज़गार क़ानून02 फ़रवरी, 2006 | भारत और पड़ोस 'किसानों की दशा सुधारनी होगी'14 मार्च, 2006 | भारत और पड़ोस नए नियम के ख़िलाफ़ हैं बीड़ी मजदूर11 दिसंबर, 2006 | भारत और पड़ोस क्या हैं योजना से जुड़ी आशंकाएँ?02 फ़रवरी, 2006 | भारत और पड़ोस रोज़गार गारंटी विधेयक पारित23 अगस्त, 2005 | भारत और पड़ोस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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