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सोमवार, 29 मई, 2006 को 11:40 GMT तक के समाचार
 
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केरल में आत्महत्या को मजबूर किसान
 

 
 
काली मिर्च की खेती
काली मिर्च के लिए अच्छे दाम न मिलने से किसानों को नुकसान हुआ है
भारत के केरल राज्य के उत्तर में स्थित वायनाड ज़िले की रहने वाली शैजा के पति ने पिछली गर्मियों में आत्महत्या कर ली थी.

वजह यह थी कि उन्होंने बैंक से काली मिर्च की खेती के लिए जो ऋण लिया था उसे नुकसान के चलते वो चुका नहीं पाए थे.

अपने तीन साल के बेटे के साथ जीवन चला रही शैजा की यह कहानी न अपने आप में अकेली है न अनहोनी. यहाँ के कई किसानों की यही कहानी है.

केरल के वायनाड ज़िले में यह कहानी कई बार दोहराई गई है. पिछले पाँच सालों में 504 किसानों ने यहाँ आत्महत्या कर ली है.

दुनिया में सबसे अच्छी काली मिर्च मालाबार क्षेत्र से आती है. वायनाड में काली मिर्च की खेती होती है.

ये वही काली मिर्च है जिसे पुर्तगाल से आए वास्को डा गामा अपने साथ वापिस ले गए. इसके बाद कई उपनिवेशवादियों ने भारत का रुख़ किया. इसके बाद मालाबार तट और यहाँ के मसालों पर कब्ज़े की होड़-सी लग गई.

अब यही मिर्च केरल के किसानों की जान ले रही है.

 अब हालत ये है कि किसान खेती में लगे मूल धन को भी वापिस नहीं कमा पा रहे हैं, मुनाफ़ा तो दूर की बात है
 
कृष्ण कुमार, अध्यक्ष-कर्षका संगठन

जब आप वायनाड के घुमावदार पहा़ड़ी रास्तों से होते हुए सुल्तान बाटेरी पहुँचते हैं तो हर तरफ़ हरियाली नज़र आती है -रबड़ और सुपारी के पेड़, चाय और कॉफ़ी के खेत और पेड़ों पर उग रही काली मिर्च की बेले.

प्रत्यक्ष रूप से संकट के यहाँ कोई संकेत नज़र नहीं आते. भारत के अन्य भागों में जिस तरह की ग़रीबी देखी जाती है और जिसके कारण किसान आत्महत्या करते हैं, वैसी हालत यहाँ नज़र नहीं आती.

हालाँकि छोटे किसान और दूसरों के खेतों पर काम करने वाले ज़रूर हालात के मारे हैं. चार साल पहले जो काली मिर्च 270 रुपए किलो तक बिकती थी आज किसानों को उसके 60 रुपए भी मिल जाए तो बहुत है.

वजह

कारण सीधा है. काली मिर्च भारत के दूसरे इलाकों में भी उगाई जा रही है.

साथ ही श्रीलंका से मुक्त व्यापार संधि के कारण वहाँ की सस्ती काली मिर्च तथा वियतनाम और दूसरे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की काली मिर्च भी यहाँ पहुँच रही हैं और ये मालाबार मिर्च से सस्ती हैं.

बाज़ार में भाव गिरने से यहाँ के किसानों को यकायक ग़रीबी झेलनी पड़ रही है.

किसान बैंकों और साहूकारों से लिए ऋण को चुका नहीं पा रहे हैं.

ऐसा नहीं कि केरल के किसानों को पहली बार ये संकट झेलना पड़ा हो. इससे पहले वनीला की खेती में इन्होंने खूब कमाया. वनीला 4000 रुपए प्रति किलो तक बेची फिर कीमतें गिरी और इनका संकट बढ़ गया.

कृषक पुत्तनपरमविल जाय की माँ
कृषक पुत्तनपरमविल जाय की माँ आज भी अपने बेटे को याद करके रोती हैं

अब कृषि संकट या 'कार्षिका प्रतिसंधि' सबकी ज़ुबान पर है.

यहाँ तक की हाल के चुनावों में यह एक मुद्दा बना और किसानों के संगठनों ने इसे उठाया भी.

किसानों के एक संगठन, कर्षका के अध्यक्ष कृष्ण कुमार कहते हैं कि आर्थिक सुधार के नाम पर आयात को दी गई खुली छूट कृषि उपज के घटते दामों का कारण है.

वो कहते हैं, "अब हालत ये है कि किसान खेती में लगे मूल धन को भी वापिस नहीं कमा पा रहे हैं, मुनाफ़ा तो दूर की बात है."

आत्महत्याएँ

पाँच एकड़ ज़मीन के मालिक कृषक पुत्तनपरमविल जाय एक समृद्ध किसान थे. फिर संकट आया और जाय अपना बैंक ऋण चुका नहीं पाए.

इज्ज़त गवाने के डर और ऋण माँगने वालों के डर से उन्होंने दो साल पहले आत्महत्या कर ली.

उनकी 80वर्षीय माँ उन्हें याद कर आज भी रो देती हैं. कहती हैं, "मेरी बहू को चार बच्चों की फ़ीस देने और घर चालने में बहुत दिक्कत होती है."

अब यहाँ के किसान रबड़ और सुपारी उगाने लगे हैं क्योंकि फिलहाल इन फसलों की बाज़ार में अच्छी कीमत मिल रही है.

पर हर कोई ऐसा नहीं कर पा रहा.

कृषक परिवार
अबतक सैकड़ों किसानों के घर में आत्महत्याएं हो चुकी हैं

अनु नर्सिंग की ट्रेनिंग ले रही थी पर अब वो इस दुनिया में नहीं है. उसने हाल में आत्महत्या कर ली और उसके माता-पिता और छोटा भाई आज भी उसके इस क़दम से हैरान है.

वो कर्नाटक पढ़ने जाती थी. उसके कॉलेज ने 8500 रुपए बकाया फीस चुकता करने को कहा.

अनु के पिता बताते हैं, "मैंने अपने पड़ोसियों से मदद माँगी पर कोई मदद नहीं कर पाया क्योंकि वे सब भी ग़रीब किसान हैं. पर अनु इंतज़ार न कर सकी."

अनु के पिता अच्छे समय में उसकी 30 से 40 हज़ार सालाना फीस किसी तरह जुगाड़ कर लेते थे पर अब दो वक़्त का खाना मिल जाए वही बहुत है.

एक ऐसे राज्य में जहाँ शिक्षा को अहमियत दी जाती है और जहाँ माता पिता उच्च शिक्षा के लिए बच्चे-बच्चियों को पड़ोसी राज्यों में भेजते हैं, वहां शिक्षा अब इन बच्चों से दूर होती जा रही है.

कम से कम वायनाड के लोग तो इस कड़वी सच्चाई को समझ ही रहे हैं कि वैश्वीकरण के जितने फायदे हैं वो उतना ही असंवेदनशील भी है.

 
 
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