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इतिहास बनी दीवार लेखन की कला | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
पश्चिम बंगाल में शायद यह पहला मौका है जब चुनावों के मौके पर पूरे राज्य की दीवारें सूनी हैं. राज्य में दीवारों पर लिखे जाने वाले नारों के ज़रिए प्रचार ने यहाँ एक कला का रूप ले लिया था लेकिन इस बार चुनाव आयोग के फैसले से इस कला ने अचानक दम तोड़ दिया है. इससे एक ओर जहां इस कला से जुड़े सैकड़ों लोग बेरोज़गार हो गए हैं वहीं विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए भी परेशानी पैदा हो गई है. इस बार राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में सिर्फ़ दीवार लेखन ही नहीं बल्कि पोस्टरों व होर्डिंगों पर भी पाबंदी लगी है. इसलिए पहले दौर के मतदान में बहुत कम समय होने के बावजूद लगता ही नहीं कि यहाँ कोई चुनाव हो रहे हैं. दीवार लेखन व पोस्टर-बैनर लिखने वाले सैकड़ों कलाकार चुनाव आयोग के इस फैसले से परेशान हैं. उन्हें चुनाव के समय इतना काम मिल जाता था कि वे इसी से पूरे साल की कमाई कर लेते थे. राजधानी कोलकाता के जोड़ाबागान इलाके में रहने वाले दिनेश मंडल व उनके दोनों बेटे दीवार लेखन से ही गुज़र-बसर करते रहे हैं. मंडल बताते हैं, "पूरे साल थोड़ा-बहुत काम मिलता है. लेकिन अबकी चुनावों के समय काफी आर्डर मिला था. कुछ काम पूरा भी कर लिया था. लेकिन इस पर रोक लग जाने के कारण एक तो रंग व ब्रश बेकार हो गए हैं, दूसरे जो काम किया था उसका भुगतान भी खटाई में पड़ गया है." दिनेश मंडल अब कोई दूसरा काम तलाश रहे हैं लेकिन कहते हैं, "वर्षों तक यह काम करने के बाद अब क्या करें, यह समझ में नहीं आता." पुरानी कला पश्चिम बंगाल में दीवार लेखन कला जिस तरह से लोकप्रिय है उसकी दूसरी मिसाल कहीं और मिलना मुश्किल है. दीवारों पर बने कार्टूनों में कलात्मकता झलकती थी और इन पर बने चित्र एकदम सजीव हो उठते थे. पूरे राज्य में शायद ही ऐसी कोई दीवार बचती हो जिस पर नारे नहीं लिखे होते हों. इनके लिए कलाकार भारी मात्रा में सामग्री ख़रीद लेते थे और इस बार भी ऐसा ही किया था. वाममोर्चा के लिए लाल रंग की ज़रूरत होती थी तो कांग्रेस व तृणमूल के लिए कई अन्य तरह के रंगों की.
मुर्शिदाबाद ज़िले से कोलकाता आकर यह काम करने वाले सिराजुद्दीन कहते हैं, "इस बार अच्छी कमाई की उम्मीद थी. इसलिए क़र्ज़ लेकर रंग व ब्रश खरीदे थे. अब समझ में नहीं आता कि यह कर्ज कहां से चुकाऊंगा?" सिराजुद्दीन कहते हैं, "अगर आगे भी यह पाबंदी लागू रही तो खाने के लाले पड़ जाएंगे." इस पाबंदी के कारण राजनीतिक दल भी कम परेशान नहीं हैं. ख़ासकर वाममोर्चा ने तो चुनावों के ऐलान के पहले ही तमाम दीवारें रंग दी थीं. पाबंदी के बाद राज्य सरकार को अपने ख़र्च पर उन दीवारों को साफ़ करवाना पड़ा. इससे पार्टी को खासा नुकसान हुआ है. दीवार लेखन के लोकप्रिय होने की एक वजह यह थी कि इसमें ज्यादा खर्च नहीं था. दीवारों के लिए कोई पैसा नहीं देना होता था. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रदेश सचिव मंजू कुमार मजुमदार कहते हैं, "अब इस पर पाबंदी के कारण उम्मीदवारों का चुनाव ख़र्च बढ़ जाएगा."
विभिन्न दल अब वैकल्पिक तरीके तलाश रहे हैं. वाममोर्चा ने घर-घर जाकर प्रचार करने और हर मतदाता को उम्मीदवारों के फोटो वाले पत्र भेजने का फैसला किया है. कांग्रेस के महासचिव मानस कुमार भुंइया कहते हैं, "पार्टी केबल टीवी के ज़रिए चुनाव प्रचार के लिए आपरेटरों के साथ बातचीत कर रही है." इन दलों ने विभिन्न इलाकों में अपने उम्मीदवारों के समर्थन में परचे बांटने का भी फैसला किया है लेकिन इन वैकल्पिक तरीकों का कितना असर होगा, इस पर राजनीतिक दल काफी असमंजस में हैं. उन सबको दीवार लेखन की कला के इतिहास बन जाने पर अफसोस है. इन दोनों को भले अफसोस हो लेकिन मकान मालिकों को इस फैसले से काफी राहत मिली है. एक मकान मालिक प्रदीप कुमार सान्याल कहते हैं, "मुख्य सड़क पर घर होने के कारण मेरी चारदीवारी हमेशा चुनावी नारों से भरी रहती थी. लेकिन इस बार ऐसा नहीं है." इस पाबंदी का जिस पर चाहे जो असर हो, इससे वामपंथियों के राज्य में चुनाव प्रचार की तस्वीर तो पूरी बदल ही गई है. | इससे जुड़ी ख़बरें धीरे-धीरे जिए मगर खूब जिए23 मार्च, 2006 | भारत और पड़ोस दान के चावलों से चलता एक स्कूल17 मार्च, 2006 | भारत और पड़ोस सेल्युलर जेल की 100वीं वर्षगांठ10 मार्च, 2006 | भारत और पड़ोस विधानसभा चुनाव अप्रैल-मई में होंगे01 मार्च, 2006 | भारत और पड़ोस एक पुलिस अधिकारी का अलग सा मिशन22 फ़रवरी, 2006 | भारत और पड़ोस दस लाख लोगों के नाम सूची से बाहर02 फ़रवरी, 2006 | भारत और पड़ोस पश्चिम बंगाल में नया राजनीतिक मोर्चा11 जनवरी, 2006 | भारत और पड़ोस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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