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मुश्किलें और भी हैं भाजपा के सामने | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
भारतीय जनता पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन होगा? यह सवाल केवल भाजपा और संघ परिवार में ही नहीं, उसके बाहर भी लोगों की ज़बान पर है. दूसरी पीढ़ी के नेताओं की सबसे लंबी फौज रखने का दावा करने वाली पार्टी को सूझ नहीं रहा है कि आखिर पार्टी की बागडोर किसके हाथ में सौंपें. लेकिन इन सवालों से भी बड़ा सवाल यह कि क्या अध्यक्ष के चुनाव के बाद भाजपा की समस्याएं खत्म हो जाएंगी? भाजपा की मौजूदा परेशानी का कारण सत्ता, संगठन और विचारधारा है. भाजपा को राज्यों में सत्ता समय-समय पर मिलती रही है लेकिन सत्ता में आने से उसकी समस्याओं में इजाफ़ा ही होता रहा है. पार्टी सार्वजनिक जीवन में शुचिता और सुशासन का नारा जितनी ज़ोर से लगाती रही उसके नेताओं के भ्रष्टाचार के कारनामे उतनी ही तेजी से सामने आते रहे. पार्टी इस समस्या का निदान नहीं ख़ोज पाई. इसकी एक बड़ी वजह यह रही कि शीर्ष नेतृत्व के ईमानदार होने के बावजूद उनके आसपास भ्रष्ट लोग फलते-फूलते रहे. अयोध्या आंदोलन ने पार्टी के जनाधार को अचानक व्यापक विस्तार दे दिया. सांगठनिक स्तर पर पार्टी ने इसकी कोई तैयारी नहीं की. इस दिशा में पार्टी कुछ कर पाती इससे पहले ही उसे केंद्र की सत्ता मिल गई. केंद्र की सत्ता ने पार्टी नेतृत्व को इतना आत्ममुग्ध कर दिया कि उन्हें जेठ की दुपहरी में भी सावन नज़र आने लगा. पार्टी के इस खुमार को देश के मतदाता ने 2004 के लोकसभा चुनाव में उतार दिया. सत्ता का बुख़ार सत्ता की इस खुमारी में पार्टी नेताओं को लगा कि इस मुकाम तक वे विचारधारा के कारण नहीं, अपने पुरुषार्थ के बूते पर पहुँचे हैं. गुजरात दंगे के बावजूद पार्टी इस मुगालते में रही कि उसे मुसलमानों के वोट भी मिल सकते हैं.
केंद्र की सत्ता के छह वर्षों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी सत्ता की मलाई काटने में मशगूल रहा. नतीजा यह हुआ कि विश्व हिंदू परिषद और भारतीय मजदूर संघ छह बरस तक अपनी ही सरकार को कोसते रहे और संघ उन्हें चुप कराता रहा. सरकार में बैठे लोग इन दोनों संगठनों को हिकारत की नज़र से देखते रहे. पार्टी और संघ को लगा कि इस स्थिति से उबारने के लिए उनके पास सबसे अच्छा कोई है तो लालकृष्ण आडवाणी इसलिए उन्हें एक बार फिर पार्टी की बागडौर सौंप दी गई. पाकिस्तान पहुंचकर संघ परिवार का यह अरबी घोड़ा अपनी चाल भूल गया और संघ परिवार एक नए संकट में फंस गया. मुंगेरीलाल के सपने अब पार्टी और संघ आडवाणी से मुक्ति पाने के लिए इस कदर बेचैन हैं कि उन्हें लग रहा है कि आडवाणी के हटते ही समस्याएं काफूर हो जाएंगी. यह एक दिवास्वप्न से ज़्यादा कुछ नहीं है. भाजपा को तय करना है कि विचारधारा के मुद्दे पर वह कहाँ खड़ी है. वह पीछे लौटना चाहती है जैसा कि संघ चाहता है या फिर कोई नया रास्ता तलाश करना चाहती है. नया रास्ता क्या होगा. उसके बारे में वह अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों को कैसे तैयार करेगी. सार्वजनिक जीवन में शुचिता की बात और रोज कैमरे पर रिश्वत लेते नेताओं की विरोधाभासी स्थिति से निपटने के लिए वह क्या करने जा रही है. ऐसे कई सवाल पार्टी के सामने हैं. इन सवालों के जवाब खोजे बिना पार्टी किसी को अध्यक्ष बना दे उसकी मुश्किलों के सिलसिले का अंत नहीं होने वाला. | इससे जुड़ी ख़बरें भाजपा के छह सांसद निलंबित12 दिसंबर, 2005 | भारत और पड़ोस देश में तीसरे मार्चे की ज़रुरत-उमा04 दिसंबर, 2005 | भारत और पड़ोस 'चापलूसी, जोड़तोड़ पार्टी का हिस्सा'28 नवंबर, 2005 | भारत और पड़ोस भाजपा अध्यक्ष का मामला फिर गरमाया16 नवंबर, 2005 | भारत और पड़ोस आडवाणी का पद छोड़ने का फ़ैसला18 सितंबर, 2005 | भारत और पड़ोस आडवाणी दिसंबर में अध्यक्ष पद छोड़ देंगे18 सितंबर, 2005 | भारत और पड़ोस भाजपा में नेतृत्व के दावेदार14 सितंबर, 2005 | भारत और पड़ोस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
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