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कटनी में शोषण पर गरमागरम बहस | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
शुक्रवार को बीबीसी का कारवाँ मध्यप्रदेश के कटनी पहुँचा. यहाँ भी लोगों का वही रुझान और प्यार मिला और इसी के बीच हमने ‘कितना बदला है शोषण का स्वरूप’ जैसे गंभीर विषय पर बीबीसी के श्रोताओं और पाठकों के साथ चर्चा की. शुरुआत में लगा कि विषय कुछ ज़्यादा गंभीर और नीरस सा है और कुछ लोगों ने इसे सांस्कृतिक ग़ुलामी से जोड़कर देखने की कोशिश भी की पर शोषण की एक कहानी ने पूरे माहौल को बदल दिया. कुटेश्वर की खदानों में कभी काम करने वाले एक मज़दूर रामनरेश कोल ने बताया, “खदान 1978 में शुरू हुई थी जिसमें हम लोग खदान चालू होने के दिनों से ही काम कर रहे थे पर 1996 से काम बंद है. हमने अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया है पर पिछले 10 सालों में कोई न्याय नहीं मिला है. अब तक तो कई मज़दूर मर भी चुके हैं.” वो बताते हैं, “काम बंद होने के वक़्त जो बच्चे आठ साल के थे, आज वो 18 साल के हो चुके हैं. हम लोग तरह-तरह से पीड़ित हैं.” इसकी वजहें क्या हो सकती हैं, इस बाबत स्थानीय मज़दूर यूनियन के नेता देवी दीन गुप्ता बताते हैं, “स्वतंत्रता आम आदमी को कहाँ मिली है, वो तो पूँजीपतियों, अफ़सरशाही और नेताओं के लिए ही है.” ग़ुलामी का औजार इसी कड़ी में बात हुई मशहूर मज़दूर नेता शंकर गुहा नियोगी की जिनकी हत्या कर दी गई थी और सभी आरोपी अब छोड़ दिए गए हैं. इस पर सामाजिक कार्यकर्ता सुधीर खरे ने कहा, "प्रजातंत्र ग़ुलामी बढ़ाने का सबसे बड़ा औजार बनता जा रहा है. किसी देश की संसद के कुछ सदस्यों को ख़रीद लीजिए और उनसे मनमाने क़ानून बनवाते रहिए और लोगों को लड़ाते रहिए." हालाँकि सुधीर ने पहले भारत में ब्रिटिश शासन और बीबीसी को एकसाथ जोड़कर देखने की कोशिश भी की. पर बहस यहीं थमने वाली नहीं थी. एक ओर जहाँ अध्यापिका पूजा गुप्ता ने लोगों को सही काम करने के लिए अनुकूल माहौल न मिलने की बात रखी वहीं यह भी तर्क रखा कि एक अनपढ़ और एक शिक्षित व्यक्ति को समान मताधिकार देना ग़लत है. हालांकि इस तर्क को बहस में घेरते हुए यह बात भी सामने आई की अधिकतर शोषण करने वाले लोग तो शिक्षित ही होते हैं. शोषण उद्योगपति अनिल नागर के अपने ही सवाल थे. उन्होंने कहा, “शोषण तो हमारा भी हो रहा है. अब पहले जैसी बात नहीं रही. हम हर चीज़ के मोहताज हैं. सरकार के ग़ुलाम बने हुए हैं.”
ख़ुद चार्टर्ड एकाउंटेंट शशांक श्रीवास्तव मानते हैं कि लोगों में जागरूकता का अभाव भी एक बड़ी वजह है. उन्होंने बताया, “जो शोषित हैं, उन्हें अपने अधिकारों की जानकारी ही नहीं है.” एक गंभीर विमर्श और तमाम मिश्रित प्रतिक्रियाओं के साथ यह चर्चा समाप्त हई. हालांकि चर्चा के दौरान यह भी सवाल उठा कि क्या बीबीसी वाकई इस मुद्दे पर बहस चाहता है या फिर आयोजन के पीछे का मकसद लोकप्रियता पाना है. इस बाबत बीबीसी संवाददाता रेहान फज़ल ने लोगों को बताया कि बीबीसी के इस कार्यक्रम का उद्देश्य अपने श्रोताओं तक पहुँचना तो है ही साथ ही यह भी समझना चाहिए कि बीबीसी की ओर से न तो यह पहला प्रयास है और न ही आख़िरी. |
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