कश्मीर में ‘भारत की साज़िश’ पर बिफरा पाक मीडिया

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- Author, अशोक कुमार
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
भारत प्रशासित कश्मीर में कश्मीरी पंडितों को फिर से बसाने की भारत सरकार की योजना पर पाकिस्तानी उर्दू अख़बारों ने तीखी टिप्पणियां की हैं.
रोज़नामा दुनिया ने इन कोशिशों को कश्मीर घाटी में ‘मुसलमानों को अल्पसंख्यक बनाने का भारतीय मंसूबा बताया है.’
अख़बार लिखता है कि अगर भारत की 'साज़िश' क़ामयाब हो गई तो कश्मीरी पंडित अपनी 'चालाकी' और भारत सरकार की मदद से घाटी की उपजाऊ जमीन और संसाधनों पर काबिज़ हो जाएंगे और फिर घाटी के असली बाशिंदों का वही हाल होगा जो फ़लस्तीनियों का हुआ है.
अख़बार लिखता है कि इस साज़िश के ख़िलाफ़ हुर्रियत कांफ्रेस की प्रतिक्रिया भी वैसी नहीं रही, जैसी होनी चाहिए थी.
‘नवाज़ शरीफ़ की चुप्पी’

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'नवा-ए-वक़्त' ने इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री ‘नवाज़ शरीफ़ की चुप्पी’ पर सवाल उठाया है.
अख़बार कहता है कि जब प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने हालिया भूकंप से भारत में हुए नुक़सान पर दुख जताने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फोन किया तो कश्मीर का मुद्दा क्यों नहीं उठाया.
अख़बार की राय है कि अगर पाकिस्तान ने इस मुद्दे पर ख़ामोशी जारी रखी तो भारत वहां हिंदुओं को बहुसंख्यक बनाकर कश्मीर को हड़प लेगा.
'जसारत' ने इस मुद्दे पर पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय की तरफ से विरोध जताए जाने का ज़िक्र किया.
लेकिन उसकी राय है कि ऐसे मुद्दों को लेकर सरकारी स्तर पर आवाज़ उठनी कम हो गई है और पाकिस्तान की कश्मीर कमेटी भी निष्क्रिय पड़ी है.
अख़बार के मुताबिक़, परवेज मुशर्रफ के दौर में ही कश्मीर मुद्दे को एक तरफ रख़ कर रिश्ते बहाल करने की बातें शुरू हो गई थीं, लेकिन पाक-भारत रिश्ते तो बेहतर नहीं हुए, अलबत्ता कश्मीर समस्या पृष्ठभूमि में चली गई है.
‘मिलकर आपदा से निपटें’

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नेपाल के साथ-साथ भारत के कुछ हिस्सों में भूकंप से हुई जानमाल की हानि पर रोज़नामा एक्सप्रेस का संपादकीय है- सार्क देश और प्राकृतिक आपदाएं.
अख़बार का मत है कि सार्क देशों को सभी मतभेद भुलाकर प्राकृतिक आपदा की स्थिति में प्रभावी क़दम उठाने का कोई ठोस मैकेनिज़्म तैयार करना चाहिए.
अख़बार लिखता है कि बारिश और बाढ़ तो हर साल तबाही फैलाते ही हैं, लेकिन दक्षिण एशिया हाल के सालों में सूनामी और कई बार भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदा झेल चुका है, इसलिए ये साझा मैकेनिज़्म बेहद ज़रूरी है.

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उधर जंग ने चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर को लेकर कुछ वर्गों के विरोध पर संपादकीय लिखा है.
अख़बार के मुताबिक़, कुछ बलोच क़ौमपरस्तों को लगता है कि ग्वादर को अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह बनाने से अन्य प्रांतों के लोग यहां आकर रहने लगेंगे और बलोच लोग अपने ही प्रांत में अल्पसंख्यक हो जाएंगे.
ऐसे में अख़बार की राय है कि ये ज़िम्मेदारी सरकार की बनती है कि वो ग़लतफ़हमियां दूर करे और सबको साथ लेकर चले.
‘दुनिया देख रही है’

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रुख़ भारत का करें तो जदीद ख़बर ने धार्मिक आज़ादी को लेकर एक हालिया अमरीकी रिपोर्ट पर संपादकीय लिखा है जिसमें भारत में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा और नफ़रत फैलाने पर चिंता ज़ाहिर की गई है.
अख़बार के मुताबिक़, रिपोर्ट कहती है कि भारत में मोदी सरकार बनने के बाद अल्पसंख्यकों को संघ परिवार के हमलों, धर्मांतरण और घर वापसी जैसी आक्रामक मुहिमों का सामना करना पड़ा है.
अख़बार की राय है कि विदेश मंत्रालय भले ही रिपोर्ट को खारिज़ कर दे और शुतुर्मुग की तरह रेत में गर्दन छिपाने की कोशिश करे, लेकिन दुनिया सब देख रही है.

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वहीं क़ौमी तंज़ीम का संपादकीय है – किसानों के लिए कुछ किया जाए.
अख़बार लिखता है कि एक तो फ़सल की बर्बादी और दूसरा कर्ज का बोझ, ऐसे में किसान मायूस होकर अपनी जिंदगियां ख़त्म कर रहे हैं.
अख़बार के मुताबिक़, अफ़सोस इस बात का है कि सरकार और ज़्यादातर पार्टियां किसानों की समस्याओं पर संजीदगी से ग़ौर करने और उनका हल तलाशने की बजाय इस पर राजनीति करने और एक दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराने पर ही सारी ऊर्जा लगा रही हैं.
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