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शार्क पर ख़तरा, इंसान कितने ज़िम्मेदार? - दुनिया जहान
तारीख थी 20 जून 1975. दिन था शुक्रवार.
उस रोज़ रिलीज़ हुई एक फ़िल्म की वजह से शायद शार्क से बाकी दुनिया का रिश्ता हमेशा के लिए बदल गया.
ये फ़िल्म थी स्टीवन स्पीलबर्ग निर्देशित 'जॉज़'.
इस ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ने 'आदमखोर' शार्क को लेकर एक पीढ़ी के मन में डर बिठा दिया. फ़िल्म के सीक्वल और दूसरी फ़िल्मों के जरिए शार्क की एक अलग पहचान पुख्ता हुई.
मानो ये समुद्र की गहराई में मौजूद कोई 'किलिंग मशीन' हो. समंदर के अथाह पानी में दबदबा रखने वाली शार्क अब विलुप्त होने के कगार पर खड़ी प्रजातियों में गिनी जा रही है.
अब सवाल है कि क्या इंसानों की दिलचस्पी के कारण शार्क ख़तरे में आ गई हैं?
बीबीसी ने इस सवाल का जवाब पाने के लिए चार एक्सपर्ट से बात की.
डर का कारोबार
यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ्लोरिडा में 'शार्क रिसर्च प्रोग्राम' के डायरेक्टर जॉर्ज बर्गीस कहते हैं, "बेशक हर हमला अलग हो लेकिन शार्क को लेकर हमारी सोच में जो बात एक सी है, वो है डर."
जॉर्ज बर्गीस कहते हैं, "मुझे लगता है कि सबसे पहले तो हमें ये मानना होगा कि डर हर तरफ फैला है. स्थानीय प्रशासन की मदद के लिए मैंने पूरी दुनिया में ऐसी कई जगहों का दौरा किया है, जहां शार्क के हमले हुए हैं और मुझे बहुत जल्दी ये समझ आ गया कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी भाषा क्या है, आप किस नस्ल के हैं या किस देश से हैं, हर किसी की चिंता एक सी है."
वो याद करते हैं कि फ़िल्म 'जॉज़' की रिलीज़ के बाद शार्क को लेकर डर भी बढ़ा और उनके प्रति आकर्षण में भी बढोतरी हुई.
जॉर्ज बर्गीस कहते हैं, "मुझे याद है कि मैं नॉर्थ कैरोलीना में अपने दोस्तों के साथ फ़िल्म देखने गया था. हम सब विज्ञान के छात्र थे. थियेटर में हम पीछे की सीट पर बैठे थे. हम हंस रहे थे और हर दृश्य का मज़ा ले रहे थे लेकिन थियेटर में मौजूद बाकी लोग डर के मारे चीख रहे थे."
फ़िल्म देखने के बाद लोगों की सोच में क्या बदलाव आया, इस सवाल पर जॉर्ज बर्गीस कहते हैं, " दिक्कत ये थी कि जॉज़ फ़िल्म देखने वाले ज़्यादातर लोग मान बैठे थे कि वो जो देख रहे हैं वो वैज्ञानिक तथ्य है. इस फ़िल्म ने डर और घिसीपिटी सोच को आगे बढ़ाने का काम किया. शार्क और उनके हमलों को लेकर कुछ रुढ़िवादी बातों को फ़िल्म में बहुत प्रमुखता से दिखाया गया था. इस फ़िल्म ने जिस ग़लत सोच को बढ़ावा दिया, उसे दूर करने में वैज्ञानिकों को बहुत मशक्कत करनी पड़ी."
फ़िल्म में शार्क को 'किलिंग मशीन' की तरह दिखाया गया जो इंसानी मांस की चटोरी है. ये बात फ़िल्म के पर्दे से निकल कर लोगों के दिमाग में घर कर गई.
शार्क के हमलों की साल 2020 की फ़ाइल देखिए. तब पूरी दुनिया में शार्क और इंसानों के संपर्क के 129 मामलों की पड़ताल की गई. इनमें 13 लोगों की मौत हुई. ये संख्या बीते सालों के औसतन चार मौत से कहीं ज़्यादा है.
जॉर्ज कहते हैं कि ये आंकड़ा वास्तविकता को सामने रखता है. 'जॉज़' और दूसरी फ़िल्मों में जो दिखाया गया है, ये तस्वीर उससे पूरी तरह उलटी है.
जॉर्ज बर्गीस कहते हैं, " इंसानों पर शार्क के हमलों के ज़्यादातर मामले शायद ग़लत पहचान से जुड़े हैं. वो खाने के लिए मछलियों की तलाश करती हैं. अपना अगला भोजन जुटाने के लिए शार्क को जल्दी फ़ैसला करना होता है. वो तैरते इंसान के पैर को मछली समझ लेती हैं. मैं कहूंगा कि 90 फ़ीसदी हमले ग़लती की वजह से होते हैं. बाकी 10 प्रतिशत मामलों में हमला करने वाली बड़ी शार्क होती हैं."
तो क्या ये 10 फीसदी वही शार्क हैं, जिनसे इंसानों को दूरी बनाकर रखनी चाहिए, इस पर जार्ज कहते हैं कि उन्हें नहीं लगता है कि शार्क इंसानों की तलाश में रहती हैं, या उन्हें उनके गोश्त का स्वाद पसंद है लेकिन ये याद रखना चाहिए कि 'हमारा प्लेग्राउंड उनका डाइनिंग रूम' है.
बेमिसाल शार्क
लंदन के नेशनल हिस्ट्री म्यूजियम में सीनियर फिश क्यूरेटर ओलिवर क्रिमेन कहते हैं, "मैं उन्हें पंसद करता हूं. वो शानदार जीव है. आप उन्हें जितना देखते हैं, उनसे उतने ही प्रभावित होते जाते हैं."
ओलिवर क्रिमेन ने करीब पचास साल तक छोटी बड़ी मछलियों के बर्ताव का अध्ययन किया है. वो कहते हैं कि शार्क उनके लिए हमेशा से आकर्षण का केंद्र रही हैं.
वो बताते हैं, " शार्क के लिए लोगों का आकर्षण समय के साथ बदलता रहा है. हाल में मैंने गौर किया है कि कितनी युवतियां उनमें दिलचस्पी ले रही हैं. पहले ये लड़कों के बीच आकर्षण की वजह होती थीं. अब कई लड़कियां शार्क को लेकर सवाल करती हैं. युवाओं में जैसा क्रेज़ कभी डायनासोर के लिए होता था, वैसा ही शार्क के लिए दिखता है."
उन्होंने भी जॉज़ फ़िल्म के बाद लोगों का रुख बदलते देखा. वो कहते हैं कि तभी से बड़ी शार्क की छवि किसी 'दैत्य' जैसी बना दी गई.
ओलिवर की राय है कि शार्क प्रजाति का बहुत पुराना होना भी आकर्षण की एक बड़ी वजह है.
वो बताते हैं कि शार्क डायनासोर के भी पहले से मौजूद थीं. 40 करोड़ साल पुराना दांत मिलना, जो उस दौर की शार्क का लगता है, एक बहुत अहम आंकड़ा है.
ओलिवर शार्क की बनावट की भी तारीफ करते हैं. वो कहते हैं कि करोड़ों साल बीतने के बाद भी शार्क का 'सिग्नेचर डियाजन' वैसा ही है. लेकिन जो प्रजाति अब लुप्त हो चुकी है, उसके जीवाश्म के आधार पर वैज्ञानिकों की राय है कि आज के दौर की शार्क का आकार उस दौर की शार्क से छोटा मालूम होता है.
सवाल है कि अब विलुप्त हो चुकी मेगलोडॉन शार्क मौजूदा शार्क से कितनी बड़ी थी?
इसका जवाब ओलिवर क्रिमेन देते हैं.
वो कहते हैं, " दांत के आकार के आधार पर अनुमान लगाना मुश्किल काम है. लेकिन आम सहमति इस बात पर है कि ये आज की सबसे बड़ी ग्रेट व्हाइट शार्क से करीब 16 मीटर यानी तीन गुना बड़ी थी."
शार्क की लगभग 530 प्रजातियां हैं. एक्सपर्ट मानते हैं कि पानी के अंदर गहन खोज होने पर ये संख्या बढ़नी तय है.
जब तमाम दूसरी प्रजातियां विलुप्त हो गईं, तब शार्क न सिर्फ़ बची रहीं बल्कि फलती फूलती रहीं, ऐसा कैसे हो पाया?
ओलिवर क्रिमेन कहते हैं, " समंदर की फूड चेन के लिहाज से शार्क का इतना दबदबा क्यों है? वो इसलिए है कि उनकी संरचना अद्भुत है. उनके शरीर की बनावट समुद्र की जीवनशैली के माकूल है. वो निर्जन क्षेत्रों में भी बची रह सकती हैं. आप उनके शरीर का ढांचा भी देखिए, उसमें कोई हड्डी नहीं है. ये ढांचा लचीले पदार्थ से बना है. इसी की वजह से शार्क बहुत फुर्तीली होती हैं. इसका वजन कम है और यही शार्क को बलिष्ठ बनाता है."
बनावट से लगता है कि शार्क को जैविक विकास के क्रम में आगे बढ़ते रहने के लिए 'अति विशिष्ट' दर्जा हासिल है.
ओलिवर बताते हैं कि शार्क का शरीर ऐसा है कि कम ऊर्जा खर्च करते हुए वो आसानी से तैर लेती हैं. तैरते समय वो बहुत कम आवाज़ करती हैं. इंसान नाव और स्विमसूट के जरिए उनकी नकल की कोशिश करते हैं.
शार्क की तमाम खूबियों की वजह से इंसान उनकी ओर खिंचे चले आते हैं लेकिन ये शार्क के लिए अच्छा है या फिर बुरा?
ओलिवर कहते हैं कि ये अच्छा है. वो कहते हैं कि लोगों का आकर्षण शार्क के लिए ख़तरे की वजह है लेकिन उससे ज़्यादा ख़तरा विविधता और जैविक कारणों से है.
लुप्त होने का ख़तरा
एनजीओ 'शार्क एडवोकेट्स इंटरनेशनल' की प्रमुख सोनिया फोरडम कहती हैं, "शार्क पर ख़तरे हैं. सबसे बड़ा ख़तरा मछली पकड़ने वालों से है. समुद्र से शार्क को खाने के लिए पकड़ा जाता है. कुछ मामले में मौज मजे के लिए भी ऐसा होता है."
दुनिया के कई देशों में शार्क को बचाने के लिए क़ानून है लेकिन सोनिया कहती हैं कि इस क़ानून का पालन आधे अधूरे मन से कराया जाता है.
आंकड़ों के मुताबिक हर साल 10 करोड़ शार्क पकड़ी और मार दी जाती हैं. सोनिया कहती हैं कि 'फिनिंग' रोकना शार्क को बचाने की योजना का आधार है.
शार्क फिनिंग का मतलब है शार्क के ज़िंदा रहते ही उनके पंख अलग कर देना. इससे उन्हें बहुत तकलीफ होती है. पंख काटने के बाद उन्हें दोबारा समुद्र में फेंक दिया जाता है. समुद्र के तल में पहुंचकर या तो उनका दम घुट जाता है या दूसरे जलचर उन्हें खा जाते हैं.
सोनिया फोरडम कहती हैं, " शार्क के पंख काटे जाने के बारे में लोगों को 1980 के दशक के आखिरी बरसों में जानकारी होने लगी. शार्क के मांस की बहुत कम कीमत थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शार्क के पंख की मांग बढ़ रही थी जिसका इस्तेमाल सूप बनाने में होता है."
शार्क फिन सूप सबसे ज़्यादा चीन में खाया जाता है. यूरोपीय यूनियन समेत कई देशों ने शार्क फिनिंग पर प्रतिबंध लगाया हुआ है. लेकिन फिर भी ये पूरी तरह नहीं रुका है. एक अनुमान के मुताबिक सूप की मांग पूरी करने के लिए हर साल लाखों शार्क मार दी जाती हैं.
हाल में हुए एक शोध के मुताबिक शार्क बचाने की कोशिश के तहत साल 2011 के बाद से चीन में सूप की खपत 80 प्रतिशत तक घटी है लेकिन इस बीच थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया और मकाऊ के लोगों के बीच इसकी लोकप्रियता बढ़ी है.
सोनिया फोरडम कहती हैं, "शार्क फिनिंग की समस्या को मीडिया ने सार्वजनिक तौर पर उजागर किया. इसके बाद शार्क को बचाने के शुरुआती उपाय अमल में आए. कई लोग शार्क के साथ होने वाले जुल्म को लेकर चिंतित थे."
शार्क की कुछ अन्य प्रजातियों के विलुप्त होते जाने के कारण उनके रहने की जगह में कमी, खनन और प्रदूषण हैं.
'इंटरनेशनल यूनियन फ़ॉर कंज़रवेशन ऑफ़ नेचर' के मुताबिक कुल शार्क में से 36 प्रतिशत पर विलुप्त होने का ख़तरा मंडरा रहा है. चर्चित 'ग्रेट व्हाइट शार्क' भी इनमें शामिल है.
सोनिया फोरडम कहती हैं, "संकेत ये हैं कि वैश्विक स्तर पर जब अगला आकलन होगा तब ये आंकड़े और खराब हो सकते हैं. कई प्रजातियां ख़तरे में हैं. ख़तरे की घंटी बजाने के लिए हम अपनी तरफ से पूरी कोशिश कर रहे हैं और जो शार्क बची हुई हैं, उन्हें सुरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं."
सोनिया बताती हैं कि उनके संदेश को सुनने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है. उनके मुताबिक जिन जगहों पर मछली पकड़ने की सीमाएं तय की गई हैं, वहां अच्छे नतीजे मिले हैं.
उम्मीद कायम है
दुनिया में कोई एक जगह. स्टील से बना एक पिंजरा पानी में उतारा जा रहा है. इसके अंदर हैं गोताखोर. शार्क टूरिस्ट. ये उत्तेजना बढ़ाने वाला एक ऐसे रोमांचक अनुभव है जो जीवनभर याद रह जाएगा.
पूरी तरह डूब जाने के बाद वो आंखें फैलाकर देखने की कोशिश करते हैं.
एक शार्क सामने आती है. पिंजरे को टक्कर मारकर झनझना देती है.
मियामी यूनिवर्सिटी की लेक्चरर कैथरीन मैक्डोनल्ड कहती हैं, " सरसरी तौर पर हम ये सोच सकते हैं कि टूरिस्ट क्या चाहते हैं? वो साफ़ पानी में गोता लगाना चाहते हैं. जहां शार्क की बड़ी और करिश्माई लगने वाली प्रजातियां हों. आप छोटी पजामा शार्क की टूरिस्ट के बीच कोई मांग नहीं देखते. भले ही वो कितनी भी क्यूट दिखती हो."
कैथरीन मैक्डोनल्ड की शार्क संरक्षण में विशेषज्ञता है और वो 'शार्क पर्यटन' को संदेह से देखती हैं.
कैथरीन मैक्डोनल्ड कहती हैं, "शार्क टूरिज़्म कराने वाले ऑपरेटर बताएंगे कि वो शार्क को लेकर लोगों की सोच में बदलाव लाते हैं और लोगों की जानकारी बढ़ाते हैं. लेकिन लोगों के चयन के मामले में यहां एक दिक्कत दिखती है. जो लोग शार्क से डरते हैं वो शार्क देखने के लिए गोता नहीं लगाना चाहेंगे."
तमाम आलोचक इसे शार्क और प्राकृतिक वातावरण के लिए बाधा मानते हैं. लेकिन कुछ लोग तर्क देते हैं कि इस तरीके से जुटाए जाने वाले पैसे शार्क संरक्षण पर खर्च हो सकते हैं.
शार्क को लेकर जो ग़लत मिथक हैं, शार्क टूरिज़्म क्या उसे बनाए रखने में मदद करता है, इस सवाल पर कैथरीन मैक्डोनल्ड कहती हैं, "मुझे लगता है कि ये ऑपरेटरों पर निर्भर करता है. मेरे पास दोनों तरह के अनुभव हैं. पहला, जहां लोगों की उत्तेजना बढ़ाने की कोशिश नहीं दिखी. सुरक्षित अनुभव हासिल हुआ. वहीं दूसरी तरफ ये भी देखा कि लोगों को बताया जा रहा है कि अगर आपने क्रू मैंबर की बात नहीं मानी तो शार्क आपको दबोच सकती है. दूसरे मामले में डर के जरिए कारोबार किया जा रहा है. वहां ग़लत मिथकों को बनाए रखने की कोशिश होती है."
इस बीच एक ऐसी दुनिया की भी बात होती है जहां शार्क नहीं होंगी. वो दुनिया कैसी होगी? तब क्या शार्क की कमी महसूस होगी?
इन सवालों पर कैथरीन मैक्डोनल्ड कहती हैं, " हम जानते हैं कि शार्क जिस इको सिस्टम में रहती हैं, वो उसे आकार देती हैं. ये कहना सही होगा कि समुद्री जीवों की आबादी पर उनका सीधा असर है. वो एक हद तक धीमे, कमज़ोर और बीमार जीवों को चुनती हैं और उन्हें ख़त्म कर देती हैं. इसके जरिए वो तय करती हैं कि सबसे फिट जीव बचे रहें. जो शार्क की पकड़ में नहीं आएंगे, वही अगली पीढ़ी के वाहक बनेंगे. इस तरह से वो विकास की प्रक्रिया में मदद करती हैं."
लौटते हैं उसी सवाल पर क्या इंसानों की दिलचस्पी के कारण ख़तरे में आ गई हैं शार्क?
एक्सपर्ट कहते हैं कि हालात बदलने लगे हैं. शार्क को अब ख़तरे में घिरी प्रजाति के तौर पर देखा जा रहा है.
लुप्त होने के कगार पर पहुंची कुछ प्रजातियों को बचाने के प्रयास कामयाब भी हो रहे हैं
इस बीच ये याद रखना होगा कि अगर हम शार्क के प्रति अपना आकर्षण जीवित रखना चाहते हैं तो हमें उन्हें ज़िंदा रखना ही होगा.
इसका तरीका ये है कि इस अद्भुत प्राणी को अकेले छोड़ दिया जाए.
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