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मंकीपॉक्स वायरस को रोकने के लिए दुनिया कितनी तैयार?- दुनिया जहान
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पूरी दुनिया में तेज़ी से फैल रहे एक वायरस को इसी सील जुलाई के महीने में 'ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी' करार दिया. ये वायरस था मंकीपॉक्स.
इस वायरस से संक्रमित लोगों के शरीर पर फफोले जैसे दाने हो जाते हैं. मरीज़ के लिए ये बहुत तकलीफदेह स्थिति होती है.
अफ़्रीका में बीते कई दशकों से मंकीपॉक्स के मामले मिलते रहे हैं. लेकिन अब ये वायरस दुनिया के कई देशों में तेज़ी से फैल रहा है. मरीज़ों में कई नए लक्षण दिख रहे हैं जो चिंता बढ़ा रहे हैं. बीमारी की वजह से कुछ मरीज़ों की मौत भी हो चुकी है.
बीमारी को लेकर बढ़ती चिंता के बीच सवाल ये भी है कि मंकीपॉक्स को रोकने के लिए दुनिया कितनी तैयार है? इसका जवाब पाने के लिए बीबीसी ने चार एक्सपर्ट्स से बात की.
नाइजीरिया में मिले मामले
नाइजीरिया के डॉक्टर डीमी ओगोइना संक्रामक रोगों का इलाज करते हैं. वो नाइजीरियन इन्फ़ेक्शियस डिज़ीज सोसाइटी के प्रेसिडेंट भी हैं.
डॉक्टर डीमी ओगोइना याद करते हैं कि साल 2017 में एक मरीज़ उनके अस्पताल में आया था. उसकी उम्र थी 11 साल.
डीमी ओगोइना ने बताया, "उस बच्चे के चेहरे, कंधे और हथेलियों पर दाने थे. उसे बुख़ार था. वो कमज़ोरी महसूस कर रहा था और उसके शरीर में दर्द भी हो रहा था."
वो बच्चा मंकीपॉक्स से संक्रमित था. टेस्ट कराने पर उसके माता-पिता और भाई समेत उसके पाँच क़रीबी रिश्तेदार भी संक्रमित मिले.
नाइजीरिया में तब क़रीब 40 साल बाद मंकीपॉक्स का केस मिला था. मंकीपॉक्स ज़ूनॉटिक वायरस है, यानी ये बीमारी पशुओं से इंसानों में पहुंची है. पहली बार ये बीमारी अफ़्रीकी देश डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो में साल 1970 में सामने आई थी.
डीमी ओगोइना बताते हैं, "2017 में जो मामले सामने आए उनमें से 70 प्रतिशत का कोई स्रोत समझ नहीं आया. ये पता नहीं चल सका कि संक्रमण कैसे फैला. इसका मतलब ये हुआ कि किसी ऐसे व्यक्ति के साथ संपर्क स्थापित नहीं हो सका जिन्हें मंकीपॉक्स रहा हो. जानवरों से भी कोई संपर्क स्थापित नहीं हुआ.
लेकिन मंकीपॉक्स के लक्षण के साथ अस्पताल आए मरीज़ों का प्रोफाइल भी पुराने दौर के बीमारों से अलग था.
डीमी ओगोइना बताते हैं, "एज ग्रुप बदल गया था. 11 साल से कम उम्र के लोगों के बजाए अधिकतर बीमार 20 से 40 वर्ष के बीच के थे. दूसरी बात ये थी कि केस देहाती इलाक़ों में नहीं मिल रहे थे. अधिकतर मरीज़ शहरी और कस्बाई इलाकों से थे. तीसरी बात थी कि अब वर्षावन के इलाक़ों के लोग प्रभावित नहीं थे. चौथी बात थी कि बीमारों में पुरुषों की संख्या ज़्यादा थी. हमारे देश में 70 प्रतिशत मामले पुरुषों में मिले."
डॉक्टर ओगोइना ने पहले मामले में ये भी पाया कि मरीज़ के शरीर पर घाव मंकीपॉक्स में सामान्य तौर पर दिखने वाले घावों से बड़े हैं. उस मरीज़ के घाव बांह पर थे, लेकिन उसके बाद जो मरीज़ आए उनके शरीर के अंदरूनी हिस्सों पर घाव थे.
डीमी ओगोइना बताते हैं, "मैंने और मेरी टीम ने पाया कि उनमें से अधिकांश के जननांग प्रभावित थे. इसे लेकर संदेह हुआ कि उन्होंने जोखिम उठाते हुए यौन संपर्क बनाए हैं. हमें लगा कि ये बीमारी यौन संपर्क के ज़रिए फैल रही है."
लेकिन अच्छी खबर ये थी कि डॉक्टर ओगोइना के पहले मरीज़ जल्दी ठीक हो गए.
आने वाले सालों में नाइजीरिया के कई राज्यों में मंकीपॉक्स के सैकड़ों मामले मिले. लेकिन दुनिया के बाकी देश करीब पांच साल बाद मंकीपॉक्स को लेकर चौकन्ने हुए.
मंकीपॉक्स ज़ूनॉटिक वायरस है, पशुओं से इंसानों में आया है.
1958 में पहली बार इसकी पहचान बंदरों में की गई जिस पर इसका नाम मंकीपॉक्स पड़ा.
1970 में पहली बार ये बीमारी इंसानों में सामने आई. अफ़्रीकी देश डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो में इसके मामले मिले.
क़रीब 40 साल बाद नाइजीरिया में मंकीपॉक्स का केस मिला.
मंकीपॉक्स संक्रमण क़रीब 90 देशों तक पहुंच गया है.
मंकीपॉक्स के शुरुआती लक्षण- बुख़ार, सिर दर्द, सूजन, कमर दर्द और मांसपेशियों में दर्द. बुख़ार होने पर त्वचा पर रैशेज़ हो सकते हैं.
न्यूयॉर्क की चुनौती
'गे मैन्स हेल्थ क्राइसिस' में कम्युनिकेशन एंड पॉलिसी के वाइस प्रेसिडेंट जैसन सियनसियाटो कहते हैं, "हमने पहले भी ऐसा देखा है. एक ऐसा वायरस जो किसी को भी प्रभावित कर सकता है, उसका ज़्यादा असर बाइसेक्सुअल और गे लोगों पर दिखता है. यानी उन पुरुषों पर जो पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाते हैं. हम इसे लेकर बहुत फ़िक्रमंद हैं."
साल 2003 में अमेरिका के कुछ राज्यों में मंकीपॉक्स के मामले मिले थे. तब बीमार लोग पालतू प्रेयरी डॉग के संपर्क में आने से संक्रमित हुए थे. तब कुल 47 मरीज़ सामने आए थे और वो सभी ठीक हो गए.
क़रीब दो दशक बाद यानी इस साल मई में विशेषज्ञों को लगा कि अमेरिका अभी जिस दिक्कत से जूझ रहा है, वो पहले से अलग है. नाइजीरिया में मंकीपॉक्स का जो नया स्ट्रेन सामने आया वो न्यूयॉर्क पहुंच गया है.
स्वास्थ्यकर्मियों ने मरीज़ों में वही लक्षण देखे जो डॉक्टर ओगोइना ने साल 2017 में नाइजीरिया में देखे थे. डॉक्टरों की राय थी कि इन मामलों में वायरस इंसानों से इंसानों के बीच फैला होगा. बीमारों में कई ऐसे पुरुष थे जिन्होंने किसी पुरुष के साथ सेक्स किया था.
जैसन सियनसियाटो बताते हैं, "हमने शुरुआती मामलों में देखा कि मंकीपॉक्स के लक्षण वाले लोगों के जननांगों और गुदा मार्ग में छाले थे. मरीज़ बता रहे थे कि उन्हें काफ़ी तकलीफ़ हो रही है. उन्हें अस्पताल में दाखिल करना पड़ा. इसलिए नहीं कि अमेरिका में मंकीपॉक्स जानलेवा है बल्कि इसलिए कि उन्हें दर्द से निजात दिलानी थी."
अधिकारी सभी मामलों के बारे में जानकारी कर लेना चाहते थे. लेकिन ऐसा करने में दिक्कतें आ रही थीं. कई मामलों में त्वचा पर छाले उभरने के पहले ही मरीज़ बीमार महसूस करने लगते थे.
डॉक्टर जैसन बताते हैं कि मरीज़ बुख़ार और कंपकपी महसूस कर रहे थे. कोविड-19 या फ्लू से पीड़ित लोग भी इसी तरह की दिक्कतें महसूस करते हैं. कुछ मामलों में डॉक्टर सही बीमारी की जानकारी नहीं कर सके. ये बात दिक्कत की वजह बन गई क्योंकि लक्षण पूरी तरह सामने आने तक सही उपचार नहीं मिल सका.
ग़रीब तबके के कई लोग डॉक्टर के पास तक नहीं पहुंच पा रहे थे. ऐसे में अधिकारी सही अंदाज़ नहीं लगा पा रहे थे कि वायरस किस पैमाने पर फैल रहा है.
जैसन सियनसियाटो बताते हैं, "सरसरी तौर पर लग रहा था कि ये बीमारी गोरे गे पुरुषों के बीच है. लेकिन एचआईवी और कोविड-19 का ज़्यादा असर ग़रीब तबके पर दिखा. इनमें काले अप्रवासी, ट्रांसजेंडर और अंग्रेजी न बोल पाने वाले लोग थे, जिनके पास स्थायी रोज़गार और स्वास्थ्य सुविधा तक पहुंच नहीं है. हमें इस बात की बहुत चिंता है कि इस तबके को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है."
अब सवाल था कि संक्रमण को काबू कैसे किया जाए?
अधिकारियों के हक़ में भी कुछ बातें थीं. मसलन ये कि क्या स्मॉलपॉक्स की वैक्सीन मंकीपॉक्स के ख़िलाफ़ भी कारगर है. दूसरे शहरों की ही तरह न्यूयॉर्क के लोगों ने भी हाल ही में कोविड से बचाव के टीके लिए थे. ऐसे में मंकीपॉक्स टीकाकरण उसी क्रम का विस्तार था.
जैसन सियनसियाटो कहते हैं, "आप सोच रहे होंगे कि इस तरह से अमेरिका और न्यूयॉर्क शहर मंकीपॉक्स संक्रमण से मुक़ाबले के लिए तैयार हो गया होगा, लेकिन सच ये है कि ऐसा कभी नहीं हो सका. न्यूयॉर्क शहर के स्वास्थ्य विभाग को एक ऐसा सिस्टम तैयार करने के लिए तीन बार कोशिश करनी पड़ी जिसमें लोग टीकाकरण के लिए ऑनलाइन अपॉइंटमेंट ले सकें."
कई ऐसे लोग भी थे जो तकनीक तक पहुंच नहीं होने की वजह से ऑनलाइन नंबर नहीं ले सकते थे. इसमें ज़्यादातर अधिक जोखिम में माने जा रहे समुदाय के थे.
जो लोग संक्रमित पाए गए, उन्हें वैक्सीन मिल जाए, इस बात की भी गारंटी नहीं थी. दरअसल, पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन थी ही नहीं. लेकिन फिर ये जानकारी हुई कि टीके की कम मात्रा भी बीमारी रोकने में कारगर है. ऐसे में मरीज़ों को टीके की मूल डोज़ का पांचवां हिस्सा दिया गया.
स्मॉलपॉक्स
एमोरी यूनिवर्सिटी में मेडिसिन की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर और वायरोलॉजिस्ट डॉक्टर बोघुमा टिटांजी कहती हैं, "हम जानते हैं कि 1970 की शुरुआत से अफ़्रीका में मंकीपॉक्स इंसानों में संक्रमण की वजह बन रहा है. हम एक और बात जानते हैं कि बीते 50 साल से मध्य और पश्चिम अफ़्रीकी देशों में मंकीपॉक्स संक्रमण के मामले बढ़े हैं."
1960 के दशक में स्मॉलपॉक्स से बचाव के लिए दुनियाभर में लोगों को टीके लगाने का कार्यक्रम शुरू हुआ. इसमें हज़ारों लाख डॉलर का खर्च आया और इस रकम का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका और सोवियत संघ ने दिया.
1980 आते-आते एलान किया गया कि ये बीमारी पूरी तरह ख़त्म हो गई है और फंडिंग अचानक रोक दी गई. टीकाकरण भी रोक दिया गया.
ग़रीब देशों के पास टीके नहीं थे और जिन लोगों ने स्मॉलपॉक्स के टीके नहीं लिए थे, उन्हें मंकीपॉक्स वायरस से भी सुरक्षा हासिल नहीं थी. दोनों बीमारियों के बीच बड़ा अंतर ये है कि स्मॉलपॉक्स को ख़त्म किया जा चुका है, लेकिन मंकीपॉक्स अभी भी मौजूद है.
डॉक्टर बोघुमा टिटांजी कहती हैं, "साल-दर-साल संक्रमण जारी है. मुझे लगता है कि ये मान लिया गया कि आबादी और लोगों की आवाजाही बढ़ रही है. विकास के साथ जानवरों के रहने की जगह का अतिक्रमण और जलवायु परिवर्तन हो रहा है. ऐसे में जानवरों से इंसानों तक बीमारी पहुंचने की संभावना बढ़ गई है."
डॉक्टर बोघुमा टिटांजी बताती हैं कि वायरस ने नया रूप ले लिया और ये बड़े ख़तरे की ओर इशारा कर रहा था, लेकिन बाकी दुनिया अब भी इस बीमारी को अफ़्रीका की दिक्कत के तौर पर देख रही थी जो ठीक नहीं था.
डॉक्टर बोघुमा टिटांजी कहती हैं, "ये सोचा जा सकता है कि जिन लोगों पर सबसे ज़्यादा ख़तरा हो सकता है, उनकी पहचान करना और उन्हें टीकाकरण की सुविधा मुहैया कराना एक ऐसा तरीका हो सकता था जिसे आज़माया जा सकता था. इससे सिर्फ़ उस समुदाय को सुरक्षा नहीं मिलती बल्कि बार-बार संक्रमण फैलने पर भी रोक लगाई जा सकती थी."
समस्या को नज़रअंदाज़ किए जाने की वजह पैसों से जुड़ी दिक्कत थी.
डॉक्टर बोघुमा टिटांजी बताती हैं, "मंकीपॉक्स से जो आबादी सबसे ज़्यादा प्रभावित थी, वो अफ़्रीका में रहने वाले लोग थे. उन देशों के पास सीमित संसाधन हैं. जब वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं के निजीकरण की बात आती है तो ये किसी के भी प्राथमिक एजेंडा में दिखाई नहीं देते. इसीलिए ध्यान नहीं दिया गया और हमने मौजूदा स्थिति को टालने के कई मौक़े गंवा दिए."
मई के महीने से लेकर अब तक अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, यूरोप के कई देशों और कनाडा में हज़ारों मामले सामने आ चुके हैं.
तैयारी पर सवाल
विश्व स्वास्थ्य संगठन संक्रामक रोग सलाहकार समूह की सदस्य प्रोफ़ेसर हेलन रीस कहती हैं, "शुरुआती दिनों में जब ग़रीब देशों में मामले सामने आ रहे थे तब दुनिया ने इस पर ध्यान नहीं दिया. संक्रमण फैलने की स्थिति में जितना ध्यान दिया जाना चाहिए, उतना तो बिल्कुल नहीं."
उनके मुताबिक़ दुनिया भर ने शुरुआत में वायरस को नज़रअंदाज़ किया. अब कई देशों में मंकीपॉक्स के ढेरों मामले सामने आ रहे हैं.
हेलन रीस कहती हैं कि वायरस से मुक़ाबले के लिए तमाम देशों को सबसे पहले संक्रमित लोगों का पता लगाना चाहिए और ये जानकारी करनी चाहिए कि उनके संपर्क में आया कोई व्यक्ति संक्रमित तो नहीं है.
क्या कई बार ऐसी जानकारी हासिल करने में दिक्कत हो सकती है क्योंकि कुछ देशों में होमोसेक्सुअल लोगों तक पहुंचाना आसान नहीं है?
इसके जवाब में प्रोफ़ेसर हेलन रीस कहती हैं, "ये एक अहम सवाल है. यूरोप के कई देशों में आप सोशल मीडिया और दूसरे माध्यमों के जरिए गे समुदाय तक पहुंच सकते हैं. लेकिन अब संक्रमण करीब 90 देशों तक पहुंच गया है और जहां गे समुदाय ग़ैरक़ानूनी श्रेणी में हैं, वहां बीमारी के लक्षण वाले लोगों से सामने आने के लिए कहना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि वो गे होने की वजह से क़ानून के फंदे को लेकर डरे हुए होंगे."
जहां लोगों से संपर्क करना संभव है, वहां ये बताया जाना चाहिए कि संक्रमित व्यक्ति किस तरह दूसरे लोगों तक वायरस फैलाने से बच सकते हैं.
प्रोफ़ेसर हेलन कहती हैं कि उनकी काउंसलिंग की जा सकती है. उन्हें बताया जा सकता है कि वो क्या करें और क्या न करें.
जागरूकता अभियान भी चलाए जा सकते हैं जिससे अगर कोई व्यक्ति संक्रमण की चपेट में आ जाए तो तुरंत पहचान हो सके.
टीकाकरण अभियान और वायरस के इलाज की व्यवस्था भी होनी चाहिए. लेकिन दुनियाभर में टीकों की कमी है.
1980 में स्मॉलपॉक्स के ख़त्म होने के बाद दवा कंपनियों ने इसके टीके बनाने में दिलचस्पी नहीं ली.
प्रोफ़ेसर हेलन रीस कहती हैं, "अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में वैक्सीन मिल सकती है. लेकिन अगर दूसरे देशों में संक्रमण फैलता है तो वहां वैक्सीन नहीं होंगी या बहुत कम होंगी. ये कुछ वैसी ही स्थिति होगी जैसी हमने कोविड के दौरान देखी थी. इस दिक्कत का हमें वैश्विक स्तर पर समाधान तलाशना होगा. चाहे टीके हासिल करने को लेकर असमानता की बात हो या फिर मंकीपॉक्स की दवाओं की बात हो."
प्रोफ़ेसर हेलन कहती हैं कि जो वायरस सामने हैं या फिर आगे दिक्कत की वजह बन सकते हैं, उन्हें पहचानने और काबू पाने के लिए पूरी दुनिया को एक साथ मिलकर सोचना होगा.
प्रोफ़ेसर हेलन रीस कहती हैं, "हमें पब्लिक हेल्थ की रणनीति बनानी होगी. ये सोचना ज़रूरी है कि तमाम बीमारियों के लिए हमें कैसे तैयारी करनी चाहिए. ख़ासकर वैक्सीन और एंटीवायरल दवाओं के मामले में. ये सोचना होगा कि संक्रमण फैलने पर हम हालात के बारे में जल्दी से जल्दी कैसे पता लगा सकते हैं. सबक ये है कि ग़रीब देशों में संक्रमण की वजह बनने वाले वायरस को हम आगे नज़रअंदाज़ नहीं करें."
लौटते हैं उसी सवाल पर कि मंकीपॉक्स को रोकने के लिए दुनिया कितनी तैयार है?
दुनिया भर में ये बीमारी फैली क्योंकि तमाम देश माने बैठे थे कि ये वायरस अफ़्रीका तक सीमित है. हालांकि, तब भी ऐसे संकेत मिल रहे थे कि ये आकलन सही नहीं है.
जब बीमारी फैली तो दुनियाभर में सुस्त प्रतिक्रिया दिखी. ये स्थिति तब थी जबकि हाल में कोरोना महामारी पूरी दुनिया को कई सबक सिखा चुकी थी.
अब मंकीपॉक्स पर काबू पाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन हमारे एक्सपर्ट्स आगाह करते हैं कि अगर फिर से टालमटोल वाला रवैया अपनाया गया तो दुनिया को आगे भी दिक्कतों से जूझना पड़ सकता है.
समस्या के समाधान और सुरक्षित स्थिति हासिल करने के लिए ज़रूरी ये है कि सभी देश एकजुट प्रयास करें.
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