नज़रिया: क्या कभी पाकिस्तान आतंकवाद पर लगाम लगा सकेगा?

    • Author, अहमद रशीद
    • पदनाम, पत्रकार और लेखक, पाकिस्तान

पाकिस्तान इस्लामिक उग्रवाद और अल्पसंख्यकों पर बढ़ते हमलों जैसे ख़तरों का सामना कर रहा है और ये ख़तरे आंतरिक हैं ना कि बाहरी.

साथ ही देश की सभी संस्थाएं और सभ्य समाज चरमपंथ के ख़िलाफ़ समग्र रणनीति को लेकर एक मत नहीं है.

दो साल पहले 16 दिसंबर 2014 को पेशावर में सेना के एक स्कूल पर हमला हुआ था, जिसमे 150 लोग मारे गए थे. मृतकों में ज़्यादातर बच्चे थे.

इस घटना ने देश की सरकार, विपक्षी दलों और सेना को हिला कर रख दिया था, साथ ही चरमपंथ से निपटने के लिए व्यापक रणनीति बनाए जाने की ज़रुरत पैदा हुई.

इसके बाद पहली बार 20 सूत्री राष्ट्रीय कार्ययोजना सामने आई. जसमें बिंदुवार तरीके से बताया गया कि क्या किए जाने की ज़रुरत है. देश की सेना और सभी राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन किया.

लेकिन ये 20 सूत्री योजना, चरमपंथ के ख़िलाफ़ लड़ाई में जीत हासिल करने के लिए रणनीति में कभी तब्दील नहीं हो सकी.

अगर पाकिस्तान वाकई में चरमपंथ पर अंकुश लगाना चाहता है तो उसे देश की संस्थाओं के साथ बेहतर समन्वय करके रणनीति तैयार करनी होगी. साथ ही उसमें कड़वे सच का सामना करने की इच्छा होनी चाहिए.

सेना का अभियान जर्ब-ए-अज़्ब 6 महीने बाद शुरु किया गया. दर्जनों चरमपंथियों के गढ़ माने जाने वाले उत्तरी वज़ीरिस्तान में जिन चरमपंथियों का सफाया किया गया, उनमें अधिकांश विदेशी थे.

इसके अलावा अन्य सैन्य अभियान भी जारी रहे. इसके बाद पाकिस्तान में आतंकवादी धमाकों की तादाद आश्चर्यजनक रुप से घट गई.

ये सरकार का काम है कि वो शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करे, रोज़गार के अवसर पैदा करे, ख़ुफिया संस्थाओं के बीच तालमेल करे, न्याय प्रणाली को चुस्त करे. नफ़रत फैलाने वाले भाषणों पर प्रतिबंध लगाने के साथ देश के युवाओं को चरमपंथ से प्रभावित होने से रोकने के लिए स्पष्ट रणनीति होनी चाहिए.

सरकार को इन सारे आयामों को समेटकर एक समग्र रणनीति बना कर काम करना चाहिए.

पर सरकार ने भारत और अफ़गानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की विदेश नीति का समर्थन करने वाले चरमपंथी गुटों को एक बचने का एक रास्ता दे दिया.

एक रणनीति के अभाव में सरकार ने कुछ गुटों को समर्थन दिया.

पिछले कुछ हफ्तों के दौरान पांच ब्लॉगर लापता हो गए, इनमें उदारवादी कार्यकर्ता सलमान हैदर का नाम भी शामिल है, हालांकि अब ये वापस घर आ गए हैं. कुछ पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को धमकी मिली है. अहमदिया समुदाय पर हमले हुए हैं और शिया मुसलमानों का नरसंहार किया गया है.

मीडिया में नफ़रत भरे भाषणों की बाढ़ आ गई है. ईशनिंदा के मामले भी बढ़े हैं.

कुछ दिन पहले मुबंई हमले के कथित मास्टरमाइंड हाफ़िज़ सईद को नज़रबंद कर दिया गया. इसे अमरीका के दबाव के रुप में देखा जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन उनकी संस्था जमात- उद- दावा पर प्रतिबंध लगा सकता है.

हालांकि पाकिस्तान की सेना के एक अधिकारी का कहना है कि ये एक नीतिगत फैसला है और इसका विदेशी दबाव से कोई लेना देना नहीं है.

महत्वपूर्ण बात ये है कि आतंक की घटनाओं के लिए पाकिस्तान पड़ोसियों को ज़िम्मेदार बताता है ना कि घरेलू समस्या. इससे चरमपंथियों को बढ़ावा मिलता है.

तीन साल पहले जब जनरल राहील शरीफ़ ने देश के सेनाध्यक्ष का पदभार संभाला तो वो बार बार दोहरा रहे थे कि पाकिस्तान को देश के भीतर के चरमपंथ से निपटने पर ज़ोर देना चाहिए ना कि विदेशों को ज़िम्मेदार ठहराना चाहिए.

पाकिस्तान की सरकार आतंक की बड़ी घटनाओं का ज़िम्मेदार देश के भीतर चरमपंथी संगठनों की बजाय भारत या फिर अफ़गानिस्तान को ठहरा देती है.

इसके अलावा सरकार और सेना के बीच मतभेदों के चलते चरमपंथी विचारों को फलने फूलने का मौका मिलता है. ये एक भ्रम की स्थिति है कि चरमपंथ पर कैसे काबू पाया जाए.

अब तक पाकिस्तान की सेना के नए सेनाध्यक्ष जनरल कमर बाजवा ने भी दोहरया है कि चरमपंथ देशी ख़तरा है ना कि विदेशी.

भारत और अफ़गानिस्तान के साथ पाकिस्तान के संबंध और खराब हुए हैं और दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान से दूरी बढ़ा रहे है. विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान दक्षिण एशिया में अलग-थलग पड़ता जा रहा है.

अगर पाकिस्तान को चरमपंथ को हराना है तो उसे एक समग्र रणनीति बनाकर काम करना होगा, जिस पर सेना और नेता दोनों सहमत हो. साथ ही दोनों मिलकर सुनिश्चित करें कि वो देश के सभी हिस्सों को सुरक्षित बनाने में अपने उत्तरदायित्व निभाएंगे.

सबसे ज़रुरी ये है कि सरकारी एजेंसियां लगातार ऐसे सामाजिक सुधार जारी रखें, जिससे युवाओं पर चरमपंथी विचारों की आंच ना आ सके.

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