धोखा, वेश्यावृत्ति, सुधारगृह और भागने का चक्र

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- Author, प्रतीक गोयल
- पदनाम, पुणे से, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए
महाराष्ट्र के वेश्यालयों से बचाई गईं महिलाएं क्यों जान हथेली पर लेकर रेस्क्यू सेंटरों से भाग रही हैं, इस सवाल से महाराष्ट्र परेशान है.
पुणे के एक वेश्यालय से पुलिस कार्रवाई में छुड़ाई गईं बांग्लादेश की फ़िज़ा ख़ातून (बदला हुआ नाम) की कहानी शायद इस सवाल का जवाब दे सके.
फ़िज़ा बताती हैं कि उन्हें दिसंबर 2012 में अपहरण कर भारत लाया गया था और फिर तीन महीने उन्हें वेश्यालय में क़ैद रहना पड़ा.
उन तीन महीनों तक उन्हें रोज़ पांच-छह लोगों से शारीरिक संबंध बनाने पड़ते थे, जिसके लिए हर पुरुष से उन्हें 200 रुपए मिलते थे. इनमें से 160 रुपए उन्हें मालकिन को देने पड़ते थे और उनके हिस्से में 40 रुपए आते थे.
वेश्यालय से तो वह तीन महीने में छूट गईं लेकिन उसके बाद शुरु हुआ एक लंबा दुखदायी इंतज़ार. फ़िज़ा 26 महीने तक उस रेस्क्यू सेंटर में बंद रहीं.

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वह बताती हैं कि उनका पता-ठिकाना ढूंढते-ढूंढते बांग्लादेश में स्थानीय पुलिस के लोग उनके घर जा पहुँचे. लेकिन फ़िज़ा को वापस लाने के लिए ज़रूरी कागज़ात भेजने के लिए उन्होंने फ़िज़ा के ग़रीब मां-बाप से 10 हज़ार टके की मांग की.
उनके बेहद ग़रीब घरवालों के लिए यह बड़ी रकम थी. वो ख़ुद फ़िज़ा की दो हज़ार टका महीने की आमदनी पर निर्भर थे. किसी तरह उनके घर वालों ने यह रकम चुकाई, जिसके बाद वो अपने घर जा पाईं.
पिछले साल आठ दिसंबर को पुणे से 35 लड़कियां एक रेस्क्यू सेंटर से दरवाज़े-सलाखें तोड़कर भाग गईं. उससे दो महीने पहले इसी अंदाज़ में परभणी ज़िले के एक रेस्क्यू सेंटर से 20 बांग्लादेशी लड़कियां संस्था की वार्डन की आंख में मिर्च डालकर भाग गई थीं.
जनवरी 2015 में बारामती के एक रेस्क्यू सेंटर से आठ बांग्लादेशी लड़कियां भाग गई थीं.

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फ़िज़ा बताती हैं, "वापस हमारे घर पहुँचने की प्रक्रिया बहुत लंबी है. बांग्लादेश पुलिस बेवजह हमारी वापस जाने की रिपोर्ट नहीं भेजती. बांग्लादेश की ग़ैर सरकारी संस्थाओं से जब हमने इसकी शिकायत की थी, तो वो कहते हैं हम इसमें कुछ नहीं कर सकते. जो हाई कमीशन कहता है, हम वही करते हैं."
इन लड़कियों को छुड़ाने वाली और रेस्क्यू फाउंडेशन की अधीक्षक शाइनी पडियारा कहती हैं, "जिस्मफ़रोशी में इन लड़कियों को धकेलने वालों और इन लड़कियों का शोषण करने वालों को तो दो दिन में ज़मानत मिल जाती है लेकिन बेचारी इन लड़कियों को अपने घर पहुँचने में कभी-कभी दो-तीन साल लग जाते हैं. इसका मुख्य कारण है स्वदेश वापसी की धीमी प्रक्रिया और भ्रष्टाचार."
वेश्यावृत्ति के चंगुल से छुड़ाई गई लड़कियों की सकुशल और तेज़ घर वापसी के लिए साल 2001 में यूनिसेफ़ की पहल पर भारत और बांग्लादेश ने एक साथ संयुक्त कार्रवाई की योजना बनाई थी.

इसके तहत एक स्पेशल टास्क फ़ोर्स बना था और लड़कियों को छुड़ाने और उन्हें घर पहुँचाने की प्रक्रिया शुरू की गई थी.
इसमें सबसे पहले पीड़ित को छुड़ाया जाता है. उसके बाद उन्हें कोर्ट में पेश किया जाता है और सरकारी या निजी रेस्क्यू सेंटर में भेज दिया जाता. फिर बांग्लादेश में उनके परिवार को ढूंढा जाता है और पुष्टि की जाती है. इसके बाद उनकी वापसी का आदेश जारी होता और फिर उन्हें बांग्लादेश में उनके परिवार के पास भेज दिया जाता है.
शाइनी बताती हैं, ''साल 2014 के पहले लड़कियां जल्दी पहुँच जाती थीं लेकिन 2014 के बाद से अब सिर्फ़ होम इनक्वायरी रिपोर्ट से काम नहीं बनता. अब जब तक बांग्लादेश की स्थानीय पुलिस इन लड़कियों के घर-पते की तसल्ली नहीं कर लेती, तब तक इनके वापस जाने का आदेश (रीपेट्रिएशन ऑर्डर) जारी नहीं होता.''

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वह कहती हैं, "बस यहीं से दिक़्क़त शुरू होती है. क्योंकि लड़कियां कहती हैं कि स्थानीय पुलिस प्रक्रिया पूरी करने में देर लगाती है और रीपेट्रिएशन ऑर्डर भेजने के लिए लड़कियों के परिजनों से पैसा मांगती है.''
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