मेरे घर पर ही हो रही थी डिजिटल क्रांति

- Author, शालू यादव
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
मेरी मां कई सालों से नोकिया के एक सस्ते-टिकाऊ पुराने मॉडल से काम चला रही हैं.
उन्हें अपने फ़ोन में सिर्फ लाल और हरे बटन का काम मालूम है. हरे से फ़ोन मिलाया या रिसीव किया जाता है और लाल से फ़ोन काट दिया जाता है.
कभी कोई अनजान नंबर से आई कॉल का नंबर उन्हें सेव करना होता तो मुझसे या मेरे भाई-बहन से दर्ख्वास्त करतीं.
लेकिन हाल ही में उन्होंने एक स्मार्टफ़ोन की मांग की.
'मैं भी सेल्फ़ी लूंगी'

मां आठवीं क्लास तक पढ़ी हैं और 16 साल की उम्र में उनकी शादी एक किसान परिवार के नौजवान यानी मेरे पापा से हुई.
बचपन की धुंधली सी यादों में एक पल बहुत अच्छे से याद है कि कैसे मेरी मां अपने सिर पर चारे से भरा टोकरा एक हाथ से संभालती थी और दूसरे हाथ से मुझे पकड़ कर खेतों तक जाती थी.
हाल ही में मां ने जब स्मार्टफ़ोन ख़रीदने की ज़िद की, तो मुझे ऐसा लगा मानो वो एक बच्चे की ज़िद हो जो शौकिया खिलौना ख़रीद तो लेता है लेकिन फिर दो-चार दिन बाद उससे बोर हो जाता है.
ख़ैर हमने मां की ज़िद मान ही ली और उन्हें स्मार्टफ़ोन के शोरूम ले गए. लेकिन मैं ये देख कर हैरान थी कि मां हर फ़ोन को यूं परख रही थी मानो उसके बारे में उन्हें ख़ासी जानकारी हो.
फिर जब बात आई दाम की तो दो फ़ोन ऐसे थे जिनमें फ़र्क महज़ एक फ़्रंट कैमरे का था. ज़ाहिर है बिना फ़्रंट कैमरे वाला फ़ोन सस्ता था.
लेकिन मां ने आंखे मटकाते हुए महंगे वाले फ़ोन पर हाथ रखा औऱ कहा, ‘तुम लोग अपने फ़ोन से सेल्फ़ी खींचते हो तो मैं न खींचूं भला?’
मैसेजिंग ऐप

इमेज स्रोत, AFP
उनकी ये बात सुनकर मैं और मेरी भाभी हैरान होकर बस एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे.
मां ने मुझे और मेरे भाई-बहनों को कई सालों से स्मार्टफ़ोन इस्तेमाल करते हुए देखा है. तो शायद हमें देख-देख कर सीख गई हों.
तो ज़ाहिर सी बात है कि पहला ऐप उन्होंने वही डाउनलोड किया जिसे वो रोज़ हमें इस्तेमाल करते हुए देखती हैं – व्हट्सऐप.
व्हट्सऐप के बारे में मां को सिखाने में मात्र एक घंटे का समय लगा. लेकिन बस शब्दों की स्पेलिंग में थोड़ी मार खा जाती हैं. और फिर ख़ुशी ज़ाहिर करने के लिए इमोजी तो हैं ही, तो कुछ टाइप करने का मन न हो तो बस स्माइली भेज देती हैं!
मां ख़ुश है ये सोच कर कि अब उन्हें हर बात करने के लिए कॉल करने की ज़रूरत नहीं है.
अब कभी मैं किसी कारण उनका कॉल न उठा पाऊं, तो उन्हें इस बात की ख़ुशी है कि मैं मेसेज कर उन्हें बता दूंगी कि मैं व्यस्त हूँ.
और यदि किसी कारण फ़ोन नहीं उठा पा रही हूं, तो चिंता की कोई बात नहीं है.
हनुमान चालीसा ऐप

ख़ैर ये सब तो काम के ऐप्स की बात हुई. अब बात आती है उनकी कल्पना को सच करने की.
उनकी जिज्ञासा भरी आंखे कुछ ढूंढ रही थीं नए फ़ोन में. फिर थक कर हमसे पूछ ही डाला, ‘तेरी मासी के फ़ोन में ऐसी-ऐसी चीज़े हैं कि बटन दबाते ही हर तरह की आरतियां, भजन और पुराने गाने बजने लग जाते हैं. मेरे फ़ोन में भी डालो ना.’
तो चलिए अगली ऐप डाउनलोड की जाती है जिसका नाम है – ‘हनुमान चालीसा ऑडियो’.
अब हर सुबह आरती करते हुए मां उस ऐप को खोलती हैं औऱ चालीसा का ऑडियो चलना शुरु!
ग्रामीण भारत की डिजिटल तस्वीर दिखाती कहानियां इकट्ठी करने मैं दिल्ली से बाहर गांवों और छोटे कस्बों में गई.
लेकिन कभी ये नहीं सोचा था कि मेरे खुद के घर में ही एक ग्रामीण डिजिटल क्रांति हो रही है.
ये क्रांति ही तो है जब मां हमें बच्चे की तरह चिढ़ाते हुए कहती हैं, ‘तुम्हारे फ़ोन तो आउटडेटिड हैं. दम तो मेरे स्मार्टफ़ोन में है.’
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