हाथियों से इंसान का टकराव, विकास कथा का कड़वा सच

- Author, सलमान रावी
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
हर मरा हुआ हाथी सवा लाख का नहीं होता. और तब तो और भी नहीं, जब उनका जगंली झुंड आपके घर में घुस जाए और तबाही मचा दे.
विकास की कहानी का सीधा वास्ता आदमी और जानवर के उस टकराव से जुड़ा है, जो जंगल घटने के कारण और बढ़ा है. वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़े इस टकराव को रेखांकित करते हैं.
पिछले दस साल में सिर्फ झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में जंगली हाथी एक हज़ार लोगों को मार चुके हैं. इसी अवधि में सिर्फ झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में एक सौ सत्तर से ज़्यादा हाथी भी मारे जा चुके हैं. पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत की कहानी भी इससे बहुत अलग नहीं.
छत्तीसगढ़ वन विभाग की रिपोर्ट में पिछले दस साल में क़रीब तीस हाथियों के मरने की बात कही गई है, वहीं झारखंड के प्रमुख वन संरक्षक के अनुसार ये तादाद सत्तर से ऊपर है. इस साल 8 अगस्त को ओडिशा के वन मंत्री बिजयश्री राऊतरे ने विधानसभा को बताया कि पिछले दस साल में प्रदेश में मरने वाले हाथियों की संख्या 71 है.
अस्तित्व की लड़ाई

इस संघर्ष में भारत के जंगल और जंगलों के आसपास के इलाके इंसानों और जानवरों की रणभूमि में तब्दील हो चुके हैं. दोनों अपने-अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. दोनों का एक दूसरे पर से भरोसा उठ चुका है.
झारखंड में वन विभाग के प्रमुख एके मिश्र का कहना है कि अतिक्रमण और जंगलों के सिकुड़ने की वजह से हालात और भी गंभीर होते जा रहे हैं.
वो कहते हैं, "आबादी बढ़ रही है और उसके साथ लोगों की ज़रूरतें भी. यह भी एक वजह है कि जंगलों में अतिक्रमण बढ़ने लगे हैं. ज़ाहिर है, अतिक्रमण की वजह से जंगल की पूरी संरचना प्रभावित हो रही है."
जंगली हाथियों और ग्रामीणों के बीच संघर्ष की पड़ताल करते हुए मैं छत्तीसगढ़ के धरमजयगढ़ आ पहुंचा, जहाँ बायसी में मेरी मुलाक़ात पारुल बैरागी से हुई, जिनका घर हाथियों के झुंड ने तोड़ दिया था.
पारुल बैरागी और उनके साथ मौजूद ग्रामीणों ने बताया कि दिन का एक पहर भी इत्मीनान से नहीं गुज़र पाता. हमेशा ये आशंका बनी रहती है कि न जाने कब हाथियों का झुंड उनके गाँव की तरफ़ आ जाए.
पारुल कहती हैं, "मेरा घर पूरी तरह से टूट चुका है और मैं अब अपने बच्चों के साथ किसी के घर में रात को शरण लेती हूँ." (पारुल बैरागी और धरमजयगढ़ में चल रहे इस संघर्ष की कहानी पढ़िए इस श्रंखला की अगली कड़ी में)
4 राज्यों में हाथियों का घर
पूर्वी और मध्य भारत में हाथियों का घर 23,500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैला है. यानी झारखंड से लेकर पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ तक इनकी आवाजाही का गलियारा फैला हुआ है (देखें ग्राफिक).
ये गलियारा टूट रहा है जिससे आबादी में उनकी घुसपैठ पहले से ज़्यादा हो गई है. हाथियों का गलियारा कई राज्यों से होकर गुजरता है और हर राज्य का अपना जंगल महकमा है, जिनमें समन्वय की कमी है.
राऊरकेला स्थित पर्यावरण और वन्यजीव कार्यकर्ता रबी प्रधान ने बीबीसी को बताया कि अगर ओडिशा से हाथियों को खदेड़ा जाता है, तो वे झारखंड में जाकर तबाही मचाते हैं और यहां (ओडिशा) का वन विभाग समझता है कि उनकी ड्यूटी पूरी हो गई. पर इससे कोई हल नहीं निकलता. वे फिर लौट आते हैं.

वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में तीन हज़ार से ज्यादा हाथी हैं और ये गलियारा सदियों पुराना है.
पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार इसमें सबसे ज्यादा जंगली हाथी ओडिशा में है, जहाँ उनकी तादाद क़रीब दो हज़ार है. मध्य भारत के जंगली हाथियों की 57 फ़ीसदी आबादी ओडिशा के जंगलों में पाई जाती है. झारखंड में इनकी संख्या 700 से 800 के बीच है.
88 कॉरीडोर
छत्तीसगढ़ में दो सौ के क़रीब और दक्षिण-पश्चिम बंगाल में लगभग पचास हाथियों के होने की बात सरकारी आंकड़ों में दर्ज है. मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार साल 2011 तक पूरे भारत में जंगली हाथियों के 88 गलियारे यानी 'कॉरिडोर' थे, जिनमें से 22 सिर्फ देश के पूर्वोत्तर में हैं जबकि 20 मध्य भारत और 20 दक्षिण भारत में हैं.
मध्य भारत के ये जंगल खनिज और कोयले के बड़े भंडार भी हैं और खनन की गतिविधियां पिछले सालों में तेज़ी से बढ़ी हैं.
रबि प्रधान कहते हैं, ''कहीं पर लोह अयस्क की खदानें, कहीं विद्युत् संयंत्र, कहीं इस्पात कारखाने- झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा की यही त्रासदी है कि नियमों को ताक़ पर रखकर औद्योगिकीकरण हो रहा है. ये कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि हाथियों के झुंड गाँव, कस्बों और शहरों में घुस रहे हैं.''
चाहे झारखंड से लगा छत्तीसगढ़ का उत्तरी इलाका हो, चाहे झारखंड के पलामू, सिंहभूम, गुमला, सिमडेगा का इलाक़ा हो या फिर दुमका का- इंसानों और हाथियों के बीच संघर्ष की घटनाएं बढती जा रहीं हैं. यही हाल ओडिशा के सुंदरगढ़, बारीपदा, क्योंझर और मयूरभंज का भी है.
हालांकि पूर्वोत्तर भारत में हालात इतने नहीं बिगड़े हैं. मगर मध्य और पूर्वी भारत में जंगलों में अतिक्रमण और उनके भीतर और आसपास की ओद्योगिक गतिविधियों ने इस गलियारे को प्रभावित किया है.
जंगल हुए कम
भारत में साल 2007 से 2009 तक 367 वर्ग किलोमीटर जंगल कम हुए हैं. वन विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक़ 80 फ़ीसदी जंगलों के ग़ायब होने की वजह आबादी का पास आना है जबकि 20 प्रतिशत औद्योगिकीकरण है. यहाँ तक कि आदिवासी बहुल ज़िलों में भी 679 वर्ग किलोमीटर के वनोन्मूलन की बात रिपोर्ट में कही गई है.
जंगल कम होने के कारण न सिर्फ जंगली हाथियों का गलियारा टूट रहा है, बल्कि उनके खाने के लाले भी पड़ रहे हैं. मसलन जंगलों में बांस और फलदार वृक्ष कम हो रहे हैं. उन्हें पता है कि अपना पेट भरने के लिए उन्हें किस तरफ रुख़ करना चाहिए. अक्सर वे इन्सानी बस्तियां ही होती हैं.
इस साल मई में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित वन्य जीवों की राष्ट्रीय परिषद ने मंत्री जयंती नटराजन से अनुरोध किया था कि देशभर के सभी 'कॉरीडोर' को परिषद के अधीन लाया जाए, ताकि इनका संरक्षण बेहतर ढंग से हो.
इस बैठक में मौजूद रहे परिषद के सदस्य एमडी मधुसूदन ने कहा था कि अमूमन ये होता आया है कि राज्य सरकारें नोटिफिकेशन के ज़रिए इन कॉरीडोर को अधिसूचित करती हैं और नोटिफिकेशन के ही ज़रिए उसे रद्द कर देती हैं. बैठक में मौजूद सदस्यों का कहना था 'वाइल्डलाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया' ने कई इलाकों को हाथियों के कॉरीडोर के रूप में चिह्नित किया है. मगर उनका कहना था कि राज्य सरकारें इन कॉरीडोर के संरक्षण के लिए कुछ नहीं कर रहीं हैं.
सदस्यों ने इस पर चिंता भी जताई थी कि एक-एक कर कॉरीडोर इसलिए ख़त्म हो रहे हैं क्योंकि राज्य सरकारें जान बूझकर इन्हें चिह्नित नहीं करना चाहतीं. इस अनिच्छा की वजह पहचानना मुश्किल नहीं है.
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