जगजीत सिंह जिन्होंने ग़ज़ल को लोगों के दिलों तक पहुँचाया

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- Author, रेहान फ़ज़ल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
बहुत कम लोग जानते हैं कि मशहूर निर्देशक सुभाष घई कालेज के ज़माने से ही जगजीत सिंह के अच्छे दोस्त थे. एक बार वो अपने विश्वविद्यालयों की ओर से एक युवा महोत्सव में भाग लेने बंगलुरु गए थे. रात 11 बजे जगजीत सिंह का नंबर आया था. माइक पर जब ये घोषणा हुई कि पंजाब विश्वविद्यालय का एक छात्र शास्त्रीय संगीत गाएगा तो वहाँ मौजूद लड़कों ने ज़ोर का ठहाका लगाया.
उनकी नज़र में पंजाब तो भांगड़ा के लिए जाना जाता था. जैसे ही वो स्टेज पर आए लोग सीटी बजाने लगे. सुभाष ने सोचा कि जगजीत बुरी तरह से फ़्लॉप होने वाले हैं. उन्होंने बहरा कर देने वाले शोर के बीच आँख बंद कर आलाप लेना शुरू किया. तीस सेकेंड के बाद उन्होंने गाना शुरू कर दिया. वहाँ मौजूद श्रोता शास्त्रीय संगीत की समझ रखते थे. जल्दी ही वो तालियाँ बजाने लगे.
पहले थम थम कर और बाद में हर पाँच मिनट पर पूरे जोश के साथ. जब उन्होंने अपना गायन ख़त्म किया तो इतनी ज़ोर से तालियाँ बज़ीं कि सुभाष घई की आँखों में आँसू आ गए.
वहाँ जगजीत को पहला पुरस्कार मिला.

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निजी महफ़िलों में गाकर करियर की शुरुआत की

वर्ष 1965 में जगजीत सिंह जब बंबई आए तो उन्होंने पहले पहले बेरीज़ रेस्तराँ में गाना शुरू किया. फिर वो लोगों की निजी महफ़िलों में गाने लगे. कहीं कुछ पैसे मिल जाते तो कहीं मुफ़्त खाना तो कहीं मुफ़्त शराब.
एक ऐसी ही महफ़िल में 'इलेस्ट्रेटेड वीकली' के संपादक खुशवंत सिंह ने उन्हें सुना और उनके बारे में चंद पंक्तियाँ अपनी पत्रिका में लिख डालीं.
जगजीत सिंह पर हाल ही में प्रकाशित किताब 'कहाँ तुम चले गए दास्तान ए जगजीत' के लेखक राजेश बादल लिखते हैं, 'उस ज़माने में जगजीत सिंह 'वीकली' की वो कतरन हमेशा अपने पास रखते थे और सामने वाले को बताते थे कि खुशवंत सिंह ने उनके बारे में लिखा है. उस ज़माने में उन्होंने एक थ्री पीस सूट सिलवाया था जिसे वो रोज़ अपने हाथ से प्रेस करके पहनते थे. वो एक दिलचस्प नज़ारा होता कि थ्री पीस सूट में एक सरदार गले में हारमोनियम टाँगे गाना गा रहा है.'

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एचएमवी के कहने पर सिख वेश त्यागा

जब एचएमवी ने उनका पहला रिकॉर्ड निकाला तो कंपनी वालों ने रिकॉर्ड के कवर पर छापने के लिए जगजीत सिंह की तस्वीर माँगी. उनसे कहा गया कि एक सिख को ग़ज़ल गाते हुए संगीत प्रेमी स्वीकार नहीं करेंगे, भले ही उसने कितना ही अच्छा गाया हो.
राजेश बादल बतलाते हैं, 'कंपनी ने उनसे अनुरोध किया कि वो बिना पगड़ी और दाढ़ी के एक तस्वीर खिंचवाएं. जगजीत को ये सुन कर बहुत धक्का लगा. लेकिन अपने करियर की ख़ातिर उन्होंने सिख वेश त्यागने का फ़ैसला ले लिया.'
उसी शाम एक दिलचस्प वाक़या हुआ.
राजेश बादल लिखते हैं, 'जब वो अपने बाल कटाने के बाद एक शादी के रिसेप्शन में गाने पहुंचे तो आयोजकों ने उन्हें गाना गाने देने से इंकार कर दिया. उन्होंने कहा हमारी तो एक सिख युवक से बात हुई थी. आप क्यों आ गए? वो कहाँ है? जगजीत ने लाख समझाने की कोशिश की कि मैं ही वो सिख हूँ लेकिन उन्होंने उनकी एक नहीं सुनी.
उन्होंने कहा आप ये क्यों नहीं कहते कि सरदारजी को किसी दूसरे प्रोग्राम में ज़्यादा पैसे मिल रहे थे, इसलिए उन लोगों ने आपको यहाँ भेज दिया. जगजीत ने कहा आप मेरा गाना सुन लें. मैं वहीं जगजीत सिंह हूँ. अगर मेरी आवाज़ वही हुई तो पैसे दीजिए वरना एक पैसा भी मत दीजिए. उन्होंने कहा ठीक है आप गाइए. लेकिन अगर किसी मेहमान ने शिकायत की तो हम आपको गाने के बीच से उठा कर बाहर कर देंगें. जैसे ही जगजीत ने गाना शुरू किया, सारे मेहमान वाह वाह कर उठे.'

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'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी'

जब जगजीत सिंह का पहला रिकॉर्ड 'द अनफ़ॉरगेटेबल्स' आया तो उसने उन्हें रातों रात स्टार बना दिया.
इस एलपी की पहली नज़्म थी, 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.' इस एल्बम से लोगों को पहली बार पता चला कि ग़ज़लें इस अंदाज़ में भी गाई जा सकती हैं.
दरअसल ये नज़्म एक उर्दू पत्रिका 'शमा' में छपी थी जिसे जगजीत सिंह ने उतार लिया था. जब उन्होंने एक एल्बम में संगीत दिया तो उन्होंने ये नज़्म भूपेंदर से गवाई. इसके बाद एक फ़िल्म 'शाशा' के लिए इस ग़ज़ल को रिकॉर्ड किया गया. लेकिन किन्हीं कारणों से ये फ़िल्म पूरी नहीं हो पाई.
लेकिन जब एचएमवी ने उन्हें एलपी रिकॉर्ड करने और उसके लिए रचनाएं चुनने की छूट दी तो जगजीत ने सबसे पहले इसी नज़्म को रिकॉर्ड किया.
बाद में जावेद अख़्तर ने एक इंटरव्यू में कहा, 'मुझे याद है, एक संडे मैं अमिताभ बच्चन के यहाँ गया. उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपको एक एल्बम सुनवाना चाहता हूँ. उस एल्बम की पहली ही ग़ज़ल थी 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी.' मैंने पहली बार वो आवाज़ सुनी थी. मैंने पूछा कि ये किसकी आवाज़ है तो अमिताभ ने बताया कि ये जगजीत सिंह की आवाज़ है.'

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चित्रा गाँगुली से मुलाक़ात

इस बीच जगजीत सिंह की मुलाकात चित्रा गाँगुली से हुई.
चित्रा याद करती हैं, 'जब पहली बार मैंने जगजीत को अपनी बालकनी से देखा तो वो इतनी टाइट पैंट पहने हुए थे कि उन्हें चलने में दिक्कत हो रही थी. वो मेरे पड़ोस में गाने के लिए आए थे. मेरे पड़ोसी ने मुझसे पूछा कि संगीत सुनोगी? क्या गाता है! क्या आवाज़ पाई है! लेकिन जब मैंने उन्हें पहली बार सुना तो वो मुझे कतई अच्छे नहीं लगे. मैंने एक मिनट बाद ही अपने पड़ोसी को टेप बंद कर देने के लिए कहा.'
दो साल बाद जगजीत और चित्रा संयोग से एक ही स्टूडियो में गाना रिकॉर्ड कर रहे थे.
चित्रा याद करती है, 'रिकॉर्डिंग के बाद मैंने सिर्फ़ कर्टसी के नाते जगजीत को अपनी कार में लिफ़्ट देने की पेशकश की. मैंने कहा कि मैं करमाइकल रोड पर उतर जाउंगी और फिर मेरा ड्राइवर आपको आपके घर छोड़ देगा. जब वो मेरे घर पहुंचे तो मैंने उन्हें शालीनतावश ऊपर अपने फ़्लैट में चाय पीने बुलाया. मैं रसोई में चाय बनाने चली गई. तभी मैंने ड्राइंग रूम से हारमोनियम की आवाज़ सुनी. जगजीत सिंह गा रहे थे, 'धुआँ उठा था...' उस दिन से मैं उनके संगीत की कायल हो गई. धीरे धीरे उनकी दोस्ती बढ़ी और दोनों ने एक साथ गाना शुरू कर दिया.

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जगजीत ने चित्रा को संगीत सिखाया

जगजीत सिंह ने ही चित्रा को सुर साधने, उच्चारण और आरोह अवरोह की कला सिखाई. चित्रा के साथ वो एक सख़्त टीचर थे.
चित्रा याद करती हैं, 'अगर मैं डुएट के दौरान कोई ग़लती करती थी तो उनका मुँह बन जाता था. मेरी आवाज़ बाँसुरी जैसी थी, महीन और ऊँचे सुर वाली, जबकि उनकी आवाज़ भारी थी. उन्होंने संगीत का गहरा प्रशिक्षण लिया था. वो ज़रूरत पड़ने पर किसी गाने को चालीस पैंतालीस मिनट तक खींच सकते थे. लेकिन मैं ऐसा नहीं कर पाती थी.
मैं जानती थी कि डुएट गाने में उनकी आवाज़ बाधित होती थी, ख़ासतौर से स्टेज पर. उनका मुख्य स्वभाव था स्वर को ऊँचा उठाना. उनको बंधन से नफ़रत थी. जगजीत ने मुझे एकल गाने के लिए प्रेरित किया. उसके दो फ़ायदे हुए. एक तो मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया कि मैं ग़ज़ल जैसी कठिन विधा भी गा सकती हूँ. दूसरे उन्हें सुविधा भी हो जाती थी. किसी कार्यक्रम में मैं जब गाती थी तो उतनी देर उन्हें सुविधा हो जाती थी.'

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ग़ज़ल में पहली बार पश्चिमी वाद्यों का प्रयोग

जगजीत सिंह ने अपनी ग़ज़लों में पहली बार पश्चिमी वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जो उस ज़माने में बिल्कुल नई चीज़ थी.
राजेश बादल बताते हैं, 'उन दिनों ग़ज़ल गायन में परंपरागत वाद्य यंत्र यानी हारमोनियम, सारंगी और तबला ही इस्तेमाल किए जाते थे. लेकिन जगजीत ने 'अनफॉरगेटेबल्स' में खुलकर पाश्चात्य संगीत उपकरणों का इस्तेमाल किया. शुरू में ग़ज़ल के परंपरागत शौकीनों ने इस बात को लेकर उनकी आलोचना भी की.'
'लेकिन जगजीत ने तर्क दिया कि वो भले ही पाश्चात्य यंत्रों का इस्तेमाल कर रहे हैं लेकिन उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत की रागदारी का परित्याग नहीं किया है. इसके बाद उनके आलोचकों की बोलती बंद हो गई.'

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फ़िल्मों में गायन

इस बीच जगजीत सिंह ने फ़िल्मों में गाना शुरू कर दिया. वर्ष 1973 में उन्होंने बासु भट्टाचार्य की फ़िल्म 'आविष्कार' में वाजिद अली शाह की ठुमरी 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए' गाया.
राजेश बादल बताते हैं, 'जिस दिन उन्हें इसकी रिकॉर्डिंग करनी थी उस दिन बासु ने इनसे कहा कि रात में घर नहीं जाएंगे. उन्होंने स्टूडियो में ही उनके रहने का बंदोबस्त किया. उन्होंने उस रात उन्हें दो बजे उठाया और ठुमरी की रिकॉर्डिंग की. उनका कहना था कि उन्हें नींद के बाद की भारी आवाज़ चाहिए. इसलिए उन्होंने उसकी रिकॉर्डिंग तड़के करवाई.'
वर्ष 1981 में उनकी एक और फ़िल्म आई 'प्रेम गीत' जिसके गाने 'होठों से छू लो तुम मेरा गीत अमर कर दो' ने सबका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा.
इसी फ़िल्म में एक और गीत था, 'आओ मिल जाएं हम सुगंध और सुमन की तरह' जिसे जगजीत के निर्देशन में सुरेश वाडेकर और अनुराधा पौडवाल ने गाया था. इसमें शिवरंजनी और पहाड़ी रागों का अद्भुत इस्तेमाल किया गया था.

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गुलज़ार के सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रसिद्धि पाई

जगजीत और चित्रा सिंह के करियर का पीक था 'मिर्ज़ा गालिब' सीरियल में उनका गायन.
जगजीत सिंह की गुलज़ार से मुलाकात गुलज़ार के छोटे भाई त्रिलोचन सिंह के ज़रिए हुई थी जो उस ज़माने में दिल्ली के ऑल इंडिया रेडियो में उर्दू और अंग्रेज़ी के समाचार वाचक थे.

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जगजीत सिंह की एक और जीवनी 'बात निकलेगी तो फिर..' लिखने वाली सत्या सरन बताती हैं, 'गुलज़ार और जगजीत सिंह दोनों ब्राइट क्रिएटिव और जीनियस हैं. उन दोनों के बीच थोड़ा सा कंपटीशन भी था. साथ ही उनमें एक सिनर्जी भी थी.'
'गुलज़ार के जगजीत से इस बात पर गहरे मतभेद थे कि वो उन्हें ऐसा कोई साज़ इस्तेमाल नहीं करने देना चाहते थे जो ग़ालिब के दौर में नहीं थे. जगजीत का कहना था कि अगर मैंने आपकी बात मान ली तो संगीत नंगा लगेगा. वास्तव में उन्होंने यह शब्द इस्तेमाल किया. लेकिन गुलज़ार ने इस पर कोई समझौता नहीं किया और अंतत: उनकी ही चली.'
'दूसरी बात गुलज़ार ने जगजीत से कही कि उन्हें ध्यान रखना होगा कि मिर्ज़ा ग़ालिब शास्त्रीय संगीत के गायक और जानकार नहीं थे. हाँ ये ज़रूर था कि वो अन्य शायरों की तरह तरन्नुम में गाते थे.'

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भारत के अलावा 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को पाकिस्तान में भी बहुत पसंद किया गया.
राजेश बादल बताते हैं, 'पाकिस्तान में इस धारावाहिक की लोकप्रियता का आलम ये था कि उन दिनों लोगों ने अपने घरों की छतों पर प्रसारण छतरियाँ ख़रीद कर लगानी शुरू कर दी थीं. उस दौरान एक छतरी के लिए पाकिस्तान में बीस से पच्चीस हज़ार रुपए ख़र्च करने पड़ते थे.
दिलचस्प तो ये था कि कोई भी खुले तौर पर नहीं कहता था कि उसने 'मिर्ज़ा ग़ालिब' देखने के लिए छतरी लगवाई है. जब वर्ष 2004 में जगजीत सिंह पाकिस्तान गए तो उनके चाहने वाले कई लोगों ने उनको ये किस्सा सुनाया.'
ख़ुद परवेज़ मुशर्रफ़ ने जगजीत सिंह से मिर्ज़ा ग़ालिब में उनके संगीत और गायन की तारीफ़ की थी.

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घोड़ों से प्यार

इससे पहले जब जगजीत 1999 में पाकिस्तान गए थे तो वो पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्ऱफ़ के घर पर भी गए थे.
वहाँ दोनों ने साथ साथ पंजाबी गीत गाए और मुशर्ऱफ़ ने उनके साथ तबला भी बजाया. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी जगजीत सिंह के बहुत बड़े प्रशंसक थे.

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जगजीत सिंह को घोड़ों से बहुत प्यार था. उनके पास छह सात घोड़े थे वो कहा करते थे, 'इनके पास आकर मैं थोड़े समय के लिए संगीत से ब्रेक का अनुभव करता हूँ.'
राजेश बादल एक किस्सा सुनाते हैं, 'एक बार एक रेस के दौरान उनका घोड़ा जीत गया. जीतने से जगजीत इतने जोश में आ गए कि चिल्लाने लगे. जब वो घर पहुंचे तो उनकी आवाज़ ही चली गई थी. उन्होंने कितने ही उपाय कर लिए लेकिन उनके गले से आवाज़ ही नहीं निकली. वो घबरा गए. तीन महीने तक उनका कोई शो नहीं हुआ. उन्हें लगा कि उनका करियर अब ख़त्म हो गया.
इस बीच लता मंगेशकर को मालूम पड़ गया कि जगजीत की आवाज़ चली गई है. उन्होंने उन्हें कहलवा भेजा कि वो उनसे संपर्क करें. मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है. जगजीत लता के पास गए. उन्होंने उन्हें एक नुस्ख़ा दिया जिससे उनकी आवाज़ एक बार फिर वापस आ गई.'

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ग़ज़ल को आम आदमी तक पहुंचाया

जगजीत जब अपना करियर बना रहे थे तो मेंहदी हसन और बेगम अख़्तर इस क्षेत्र में ख़ासा नाम कमा चुके थे.
लेकिन उनके गायन से ये धारणा सी बन गई थी कि ग़ज़ल शायद आम आदमी के लिए नहीं है. वो लोग बड़े बड़े शायरों के कलाम गाते थे जो अक्सर आम आदमी के सिर के ऊपर से निकल जाते थे.
जगजीत ने आसान भाषा के कलाम गाना शुरू किए. उन्होंने ये सुनिश्चित किया कि उनकी गाई ग़ज़ल का एक एक शब्द श्रोताओं की समझ में आए.
जगजीत सिंह ने एक इंटरव्यू में माना, 'मैंने कभी शायर या गीतकार के नाम को नहीं देखा. वो कितना बड़ा या मशहूर है ये भी नहीं देखा. मैंने ये ज़रूर समझा कि उसकी रचना मेरे दिल के तार को झनझनाती है या नहीं. उसकी रचनाओं पर मेरे दर से वाह वाह निकलती है यै नहीं. मेरे लिए कन्टेंट हमेशा महत्वपूर्ण रहता है. मैंने एक प्रयोग और किया. मैंने हर ऑडियो कैसेट के साथ सारी ग़ज़लें हिंदी में प्रिंट करा कर कवर के अंदर रखवानी शुरू कर दी. नतीजा ये हुआ कि लोग लिखी हुई ग़ज़लें पढ़ पढ़ कर उन्हें याद रखने लगे.'

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गुलज़ार ने जगजीत पर एक बेहद भावुक कविता लिखी है -
एक बौछार सा था
वो शख़्स
बिना बरसे किसी अब्र की
सहमी सी नमी से जो भिगो देता था
एक बौछार ही था, जो किसी धूप की अफ़शाँ भर के
दूर तक सुनते हुए चेहरों पर छिड़क देता था
सिर हिलाता था कभी घूम के टहनी की तरह
लगता था झोंका हवा का कोई छेड़ गया
गुनगुनाता था खुले हुए बादल की तरह
मुस्कराहट में कई तरबों की झंकार छिपी थी
गली क़ासिम की तरह चली ग़ज़ल की एक झंकार था वो
एक आवाज़ की बौछार था वो...

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