यूपी चुनाव 2022: क्यों लखनऊ से होकर जाता है दिल्ली की गद्दी का रास्ता?

उत्तर प्रदेश विधान सभा

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    • Author, रेहान फ़ज़ल
    • पदनाम, बीबीसी संवाददाता

कहा जाता है कि बड़े उद्योग और रोज़गार के अभाव में राजनीति उत्तर प्रदेश का शायद सबसे बड़ा उद्योग है.

ये उत्तर प्रदेश ही है जहाँ विधान सभा में विधायकों ने माइक को पत्थर की तरह इस्तेमाल किया है, जहाँ आधी रात को एक मुख्यमंत्री को शपथ दिलाई गई है जो सिर्फ़ एक दिन सत्ता में रहा.

उत्तर प्रदेश के धरातल पर ही राष्ट्रीय दल क़रीब क़रीब दो दशक तक हाशिए पर चले गए.

भारत में गठबंधन राजनीति का पहला प्रयोग भी उत्तर प्रदेश की ज़मीन पर किया गया.

एक पुरानी राजनीतिक कहावत है कि रायसीना हिल्स का रास्ता लखनऊ से होकर जाता है. साउथ ब्लॉक में जिन 14 पुरुषों और एक महिला ने प्रधानमंत्री के तौर पर काम किया है उनमें से 8 उत्तर प्रदेश से आते हैं.

अगर आप इसमें नरेंद्र मोदी को भी जोड़ दें तो ये संख्या 9 हो जाती है. इस सूची में नरेंद्र मोदी को भी शामिल करने के पीछे तर्क ये है कि वह वाराणसी से चुन कर लोकसभा में पहुंचे हैं.

वह आसानी से गुजरात से चुन कर लोकसभा में पहुंच सकते थे लेकिन उनको भी अंदाज़ा था कि भारत की राजनीति में उत्तर प्रदेश का जितना सांकेतिक महत्व है उतना शायद किसी और राज्य का नहीं.

आबादी

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देश की सबसे बड़ी विधानसभा और लोकसभा में 80 सांसद भेजने वाला प्रदेश

न सिर्फ़ भारत की जनसंख्या का सातवां हिस्सा यहाँ रहता है बल्कि अगर यह एक स्वतंत्र देश होता तो आबादी के हिसाब से चीन, भारत, अमेरिका, इंडोनेशिया और ब्राज़ील के बाद उसका दुनिया में छठा नंबर होता.

लेकिन बात सिर्फ़ आबादी की ही नहीं है.

सईद नकवी के साथ रेहान फ़ज़ल
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जानेमाने स्तंभकार और इंडियन एक्सप्रेस के पूर्व संपादक सईद नकवी कहते हैं, "त्रिवेणी उत्तरप्रदेश में, काशी उत्तर प्रदेश में, मथुरा, अयोध्या और गंगा और यमुना उत्तर प्रदेश में. एक तरह से प्री इस्लामिक संस्कृति का जो गढ़ उत्तर प्रदेश की सरज़मीं रही है. इसको एक तरह से भारत की सियासत का मेल्टिंग पॉट या सैलेड बोल (सलाद की कटोरी) कह सकते हैं. अहम यह नहीं है कि यहाँ से 80 सदस्य संसद में जाते हैं. अहम ये है कि 5000 साल पुराने देश को ये भूमि एक 'सिविलाइज़ेशनल डेप्थ' यानि सभ्यतागत गहराई प्रदान करती है."

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पड़ोसी राज्यों की राजनीति को भी प्रभावित करती है उत्तर प्रदेश की राजनीति

हिंदी हार्टलैंड का केंद्रबिंदु होने के कारण उसके चुनाव परिणाम उससे सटे हुए इलाकों को भी प्रभावित करते हैं.

गोविंदबल्लभ पंत सामाजिक संस्थान के प्रोफ़ेसर बदरी नारायण उत्तर प्रदेश के प्रतीकात्मक महत्व की तरफ़ इशारा करते हुए कहते हैं, "एक तो जनतंत्र में संख्या का बहुत महत्व होता है. दूसरे इसका प्रतीकात्मक महत्व भी है क्योंकि यहाँ से लगातार प्रधानमंत्री होते रहे हैं. हिंदी क्षेत्र होने के कारण न सिर्फ़ 80 सीट बल्कि आसपास के इलाके जैसे बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान की राजनीति को भी प्रभावित करता है. दूसरे यूपी में जो क्षेत्रीय दलों की राजनीति है, उसके बड़े पुरोधाओं मुलायम सिंह यादव और मायावती का भी ये क्षेत्र है जिसकी वजह से विपक्ष की राजनीति में भी उत्तर प्रदेश का दख़ल साफ़ दिखाई देता है."

20 नवंबर 1990 को अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर बैठे तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी.

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उत्तर प्रदेश से मिली बीजेपी को सबसे बड़ी ताकत

1989 तक जिस जिस दल ने उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक सीटें जीती, उसने केंद्र में सरकार बनाई. इस ट्रेंड को बदला 1991 में नरसिम्हा राव ने जो उत्तर प्रदेश में 84 में से सिर्फ़ 5 सीटें जीत पाए लेकिन इसके बावजूद देश के प्रधानमंत्री बने.

भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में उत्तर प्रदेश हमेशा एक धुरी की तरह रहा.

पूरे राम मंदिर आंदोलन के दौरान इसका उत्तर प्रदेश की राजनीति में पूरा दबदबा रहा. 1991, 1996 और 1998 लगातार तीन लोकसभा चुनावों में पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 50 से अधिक सीटें जीतीं.

नतीजा ये रहा कि 1996 और 1998 में इसे केंद्र में सरकार बनाने का मौका मिला. 1998 के चुनाव में बीजेपी उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ 29 सीटें जीत पाई लेकिन अपने सहयोगी दलों के बेहतर प्रदर्शन की बदौलत उसने केंद्र में सरकार बनाई जिसने अपना पूरा कार्यकाल पूरा किया.

2004 और 2009 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी के मामूली प्रदर्शन का नतीजा ये रहा कि वो सत्ता की दौड़ में कांग्रेस से काफ़ी पिछड़ गई. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की ज़बरदस्त जीत की इबारत उत्तर प्रदेश में एक बार फिर उसके शानदार प्रदर्शन की वजह से लिखी गई.

मायावती अखिलेश

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2007 से सत्ताधारी दल को उत्तर प्रदेश विधानसभा में मिल रहा है पूर्ण बहुमत

उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 403 सदस्य हैं और ये देश की सबसे बड़ी विधानसभा है. करीब दो दशकों तक त्रिशंकु विधानसभा देने के बाद ये चलन 2007 में बदला जब प्रदेश की जनता ने पहले बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत दिया.

फिर 2012 के विधानसभा चुनाव में उसने सत्ता की बागडोर समाजवादी पार्टी के हाथ में सौंपी जबकि 2017 में प्रदेश में हाशिए पर चली गई भारतीय जनता पार्टी ने तीन चौथाई बहुमत प्राप्त किया.

बीजेपी की इस जीत का परिणाम ये रहा कि बरसों से एक दूसरे का घोर विरोध करती रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने 2019 का लोकसभा चुनाव गठबंधन में लड़ने का फ़ैसला किया. ये अलग बात है कि उन्हें इस मुहिम में सफलता नहीं मिली.

अखिलेश

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उत्तर प्रदेश से निकले हैं कई दिलचस्प चुनावी नारे

उत्तर प्रदेश की धरती से कई चुनावी नारों ने जन्म लिया है.

90 के दशक में उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में तीन शब्द के नारे 'रोटी कपड़ा और मकान' का बहुत बोलबाला था. 21वीं सदी के पहले दशक में ये नारा बदल कर 'बिजली सड़क, पानी' हो गया.

अगले दशक का नारा था 'शिक्षा, विज्ञान, विकास.'

जब नरेंद्र मोदी ने 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव प्रचार सँभाला तो उन्होंने नया नारा ईजाद किया, 'पढ़ाई, कमाई, दवाई.'

मायावती

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नारों की बात चली है तो बहुजन समाज पार्टी का गढ़ा वो नारा बहुत दिलचस्प था- 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है.' ये उस ज़माने की बात है जब मायावती ब्राह्मणों को अपनी तरफ़ करने की कोशिश कर रही थीं.

उसके पाँच साल बाद समाजवादी पार्टी ने भी काफ़ी कैची नारा दिया था, 'अखिलेश का जलवा कायम है, उसका बाप मुलायम है.'

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1967 में बनी पहली विपक्ष की सरकार

1951 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश विधानसभा में कुल 347 सीटें थी. इनमें 83 वो सीटें शामिल थीं जिन पर दो विधायक चुन कर आते थे.

उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत थे. उसके बाद संपूर्णानंद, चंद्रभानु गुप्ता और सुचेता कृपलानी ने राज्य की बागडोर सँभाली.

1967 का चुनाव पहला चुनाव था जब कांग्रेस पहली बार पूर्ण बहुमत नहीं प्राप्त कर सकी और उसे सिर्फ़ 199 सीटें ही मिलीं.

चरण सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे नई पार्टी भारतीय क्राँति दल बनाया और समाजवादियों और भारतीय जनसंघ के सहयोग से उत्तर प्रदेश के पहले ग़ैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बन गए.

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कांग्रेसी नेताओं के बीच मुख्यमंत्री पद की 'म्यूज़िकल चेयर'

इसके बाद प्रदेश में राजनीतिक अनिश्चितता का दौर आया.

पहले सी बी गुप्ता मुख्यमंत्री बने. उसके बाद चरण सिंह की फिर वापसी हुई. कांग्रेस विभाजन के बाद कमलापति त्रिपाठी के पास सत्ता आई लेकिन प्रदेश में पीएसी के विद्रोह के कारण उन्हें भी इस्तीफ़ा देना पड़ा.

1974 में कांग्रेस मुश्किल से विधानसभा चुनाव जीती और हेमवतीनंदन बहुगुणा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने लेकिन इंदिरा गांधी से अनबन के कारण उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा और नारायणदत्त तिवारी प्रदेश के अगले मुख्यमंत्री बने.

1977 में जनता पार्टी के सत्ता में आते ही प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने कांग्रेस सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया. पहले रामनरेश यादव और फिर बनारसी दास उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

इंदिरा गांधी

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1984 के बाद कांग्रेस ने प्रदेश में कोई चुनाव नहीं जीता

1978 में हुए आज़मगढ़ लोकसभा उप चुनाव ने पहले चिकमंगलूर से और फिर 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी का रास्ता साफ़ किया.

1980 में विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. जब डाकुओं ने उनके भाई न्यायमूर्ति चंद्रशेखर प्रताप सिंह की हत्या कर दी तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. उसके बाद विधानसभा अध्यक्ष श्रीपति मिश्रा और फिर नारायणदत्त तिवारी प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

उनके चुनाव जीतने के बावजूद 1985 में राजीव गाँधी ने वीर बहादुर सिंह को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया. इसके बाद करीब 33 सालों से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की राजनीति में लगातार हाशिए पर जाती रही है.

आख़िरी बार उन्होंने 1984 में उत्तर प्रदेश में चुनाव जीता था. मंडल और मंदिर के दो समानान्तर आंदोलनों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की ईंट से ईंट बजा कर रख दी.

कांशी राम

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मुलायम सिंह यादव ने काँशी राम से हाथ मिलाया

1989 से मुलायम सिंह यादव का समय शुरू हुआ जब जनता दल ने मुख्यमंत्री पद के लिए उनको अजीत सिंह पर तरजीह दी.

उन्होंने बीजेपी के बाहरी सहयोग से सरकार बनाई लेकिन जब लालू यादव ने रथ यात्रा के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार किया जो बीजेपी ने केंद्र की वी पी सिंह सरकार और मुलायम सिंह सरकार दोनों से अपना समर्थन वापस ले लिया.

उन्होंने किसी तरह कांग्रेस के सहयोग से अपनी सरकार बचाई लेकिन जब कांग्रेस की सरकार ने केंद्र की चंद्रशेखर सरकार से अपना समर्थन वापस लिया तो उनकी सरकार भी गिर गई.

बीजेपी

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राम मंदिर आंदोलन शुरू होने के बाद बीजेपी के कल्याण सिंह ने 221 सीटें जीत कर सरकार बनाई लेकिन जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ तो उनकी सरकार बर्ख़ास्त कर दी गई. उसके बाद हुए चुनाव में मुलायम सिंह ने बहुजन समाज पार्टी से हाथ मिला कर बीजेपी को सत्ता से दूर रखा.

इसके बाद बीजेपी ने मायावती को समर्थन दे कर उनके मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ किया.

वर्ष 1996 में बीजेपी एक बार फिर पूर्ण बहुमत पाने में असफल रही. उसने मायावती से समझौता किया जिसके तहत पहले ढाई साल मायावती मुख्यमंत्री बनीं लेकिन जब भारतीय जनता पार्टी की बारी आई तो बहुजन समाज पार्टी ने समर्थन वापस ले लिया.

नरेंद्र मोदी

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2017 में भारतीय जनता पार्टी की वापसी

2007 में मायावती और 2012 में समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला. 2017 के चुनाव में एक बार फिर बीजेपी की वापसी हुई और उसने 312 सीटें जीतीं. इस जीत ने ही 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत का रास्ता प्रशस्त किया.

अगले महीने सात चरणों में होने वाले विधानसभा चुनाव ये तय करेंगे कि उत्तर प्रदेश में किस पार्टी का राज होगा बल्कि इस चुनाव से पूरे संकेत आएंगे कि 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सत्ता पर नरेंद्र मोदी का फिर से कब्ज़ा आसान होगा या नहीं.

यही नहीं ये चुनाव ये भी तय करेगा कि अगले कुछ दिनों में राज्यसभा का स्वरूप क्या होगा और जुलाई, 2022 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव में नरेंद्र मोदी अपनी पसंद का उम्मीदवार राष्ट्रपति भवन में भेज पाएंगे या नहीं.

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