बिहार का बदलता मौसम कैसे मक्के की खेती को तबाह कर रहा है

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- Author, सीटू तिवारी
- पदनाम, पूर्णिया से, बीबीसी हिंदी के लिए
बिहार के पूर्णिया ज़िले को मिनी दार्जिलिंग कहा जाता है, लेकिन इन दिनों यहां मौसम कुछ ज़्यादा ही बेईमान दिख रहा है और इससे किसान बेहाल हैं. सीमांचल के दूसरे ज़िलों की तरह ही असमान और बेमौसम बारिश और आंधी तूफ़ान किसानों के साथ-साथ आम लोगों के जीवन को भी तबाह कर रहे हैं. शहर की सड़कों से लेकर गांव में खेतों तक पानी जमा है.
कैलाश यादव अपने बड़े से मकान के बरामदे में लकड़ी की चौकी पर बैठकर सड़क के दूसरी तरफ़ पड़ने वाले अपने खेत निहार रहे हैं. उनकी आंखों में आजकल नमी बनी रहती है तो होठों पर पहले से और भविष्य में लिए जाने वाले कर्ज़-सूद का जोड़-घटाव चलता रहता है.
कैलाश पूर्णिया के रूपौली प्रखंड के मेहंदी गांव के रहने वाले हैं. अक्टूबर माह के तीसरे हफ़्ते में हुई बारिश में उनके धान के खेत बर्बाद हो गए हैं.

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वो बताते हैं, "आधा धान तो अगस्त में आयी बाढ़ ने बर्बाद किया बाक़ी बचे हुए को अक्टूबर वाली बारिश ले गई. बारिश से मिट्टी ऐसी हो गई है कि खेत आलू, मक्का कुछ भी बोने लायक नहीं रहा."
नौ बीघा खेत के मालिक कैलाश को हाइब्रिड मक्के की फ़सल ने आर्थिक तौर पर समृद्धि दी. लेकिन बीते कुछ सालों में हालात बदल गए. वो बताते हैं, "मक्का कटने के समय बारिश, आंधी, बीमारी से फस़ल बर्बाद हो जाती है."

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'कोई ऐसे ही गोली नहीं खा लेता है'
मेहंदी से कुछ दूरी पर ही बैरिया गांव है. यहां का मक्का अपनी क्वालिटी के लिए बहुत मशहूर है. लेकिन यहां के किसानों की कहानी भी कैलाश यादव जैसी ही है.
70 साल की रंभा देवी के घर के सारे 'मर्द' रोज़ी-रोटी कमाने पंजाब गए हैं. तीन बेटे और तीन पोते, जिसमें से एक बेटे की मौत पंजाब में इलाज नहीं मिलने की वजह से हो गई थी. लेकिन ये पीड़ा भी परिवार में लगातार होते पलायन को नहीं रोक पाई.
क़र्ज़ में डूबी रंभा अब अपने घर की मुखिया हैं. उन पर अपनी बहुओं, उनके छोटे बच्चों और अपनी एक बीघा खेती की ज़िम्मेदारी है. वो बेचैन होकर बार-बार दोहराती हैं, " खेत परती (कोई फ़सल नहीं लगी) पड़ा है, पानी भरा है. बीच में मक्का ने कुछ पैसा दिया था लेकिन अब तो धान-मकई सब बर्बाद है. कोई किसान ऐसे ही गोली थोड़े ना खा लेता है."

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इलाके के वॉर्ड सदस्य बबूजन कुमार कहते हैं, "मक्का से पैसा आया था तो लोग दूसरे राज्यों से वापस लौटे. लेकिन इधर तीन-चार साल में खेती में लगातार नुक़सान हो रहा है तो लोग पंजाब दिल्ली फिर जाने को मजबूर हैं."
जलवायु परिवर्तन: बिहार देश में छठे पायदान पर
जलवायु परिवर्तन से दुनिया का कोई भी हिस्सा अछूता नहीं रह गया है. बिहार में इसका सबसे ज़्यादा प्रभाव उत्तर बिहार में दिख रहा है.
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा जारी 'क्लाइमेट वल्नेरिबिलिटी एसेसमेंट फ़ॉर एडॉप्टेशन प्लानिंग इन इंडिया' रिपोर्ट के मुताबिक बिहार का वल्नेरिबिलिटी इंडेक्स 0.614 के साथ 29 राज्यों में छठे नंबर पर है.
बिहार को 'हाई वल्नेरिबिलिटी' श्रेणी में रखा गया है. राज्य के अंदर ज़िलों के लिहाज से बात करें तो किशनगंज, कटिहार, सीतामढ़ी, पूर्णिया, पूर्वी चंपारण, दरभंगा, अररिया ज़िले 'हाई वल्नेरिबिलिटी इंडेक्स' वाले हैं.

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हाई वल्नेरिबिलिटी इंडेक्स, इस बात का माप है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में इलाके में ख़तरा कितना है?
नीति आयोग द्वारा सतत विकास सूचकांक पर जारी रिपोर्ट में जलवायु संकट से निबटने के मामले में बिहार सबसे फिसड्डी राज्य साबित हुआ है. राज्य को महज़ 16 अंक मिले हैं जबकि सबसे प्रभावी तरीके से काम कर रहे ओडिशा को 70 अंक.
कभी ज़्यादा तो कभी कम बारिश
पूर्णिया ज़िले में सामान्य तौर पर 1470.4 मिलीमीटर बारिश होती है और एक औसत वर्ष में 73 दिन बारिश होती है. लेकिन साल 2015-16 से 2017-18 में ये बारिश घटकर 1000 मिलीमीटर से भी कम हो गई. वहीं 2018-19 से 2020-अक्टूबर 2021 में ये बढ़कर 2000 मिलीमीटर से ज़्यादा हो गई.
इसके अलावा साल 2018 से 2020 में सिर्फ़ 15 सितंबर से 30 सितंबर के बीच तक़रीबन 250 मिलीमीटर बारिश हुई. साल 2021 की बात करें तो 11 अक्टूबर से 20 अक्टूबर के बीच ही 60 मिलीमीटर बारिश हो गई. यानी बारिश का समान रूप जो खेती के लिए बहुत ज़रूरी चीज़ है, वो बीते हुए कल की बात बन गई है.
भोला पासवान शास्त्री कृषि कॉलेज के प्राचार्य पारस नाथ कहते हैं, "मौसम अनियमित हो गया है. जब 2015 में बारिश कम हुई तो किसानों ने मध्यम अवधि (100-120 दिन) का धान लगाना शुरू किया. लेकिन इधर फ़सल कटने को तैयार होती है, उधर बारिश हो जाती है. इससे मक्के की बुआई देर से होती है. 25 मार्च के बाद जब मक्के की फ़सल कटाई के लिए तैयार होती है तो उस वक्त फिर आंधी-बारिश से किसान को जूझना पड़ता है. जलवायु परिवर्तन का पूरा असर खेती पर पड़ रहा है."

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भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी), पुणे के मुताबिक बिहार के कटिहार, पूर्णिया, सिवान, गोपालगंज, भोजपुर और सीतामढ़ी में वार्षिक वर्षा घट रही है.
एक साल में चार बार बाढ़
बिहार में इस साल मानसून के दौरान चार बार बाढ़ आई. 31 ज़िलों के कुल 294 प्रखंड इससे प्रभावित हुए.
किसान ललन कुमार मंडल बताते हैं, " पहले बाढ़ हफ्ता भर रहकर चली जाती थी. अब तो महीने भर से ज़्यादा खेत में पानी जमा रहता है. बाढ़ अब फ़सल बर्बाद कर देती है, पहले ऐसा नहीं होता था."

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हालांकि इंडियन मटीरियोलॉजिकल सोसाइटी बिहार चैप्टर के अध्यक्ष और केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफ़ेसर प्रधान पार्थसारथी कहते हैं, "बिहार में आई इस बाढ़ का संबंध जलवायु परिवर्तन से नहीं है."
रूपौली कै टीकापट्टी बाज़ार की गीता देवी बताती हैं, " पहले ऐसे ही बीज छींट देते थे तो फ़सल हो जाती थी. अब तो हर घर में मशीन है. लेकिन बाढ़, आंधी और बारिश से पूरी खेती बर्बाद हो गई."
उनके पास बैठा उनका 21 साल का बेटा शंकर कुमार कहता है, "श्रीकर 1818 बीज हमने 2000 रुपये में चार किलो खरीदा है और हमारी फ़सल 2000 रुपये क्विंटल भी नहीं बिकेगी. सरकार भी मुआवज़े के तौर पर हर साल 6000 रुपये दे रही है. इससे क्या होगा? "
पूर्णिया और मक्का

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1770 में बने पूर्णिया ज़िले में ' मक्का क्रांति' साल 2000 के बाद आई. किसानों ने देसी मकई को छोड़कर हाइब्रिड मक्के की खेती शुरू की. पूर्णिया सहित पूरे सीमांचल में उपजाए जाने वाले मक्के की क्वालिटी इतनी अच्छी थी कि उसका बड़ा बाज़ार बन गया.
कृषि कॉलेज के प्राचार्य पारस नाथ बताते है, "यहां प्रति हेक्टेयर मक्का 100 से 120 क्विंटल पैदा होता है जो देश में सबसे ज़्यादा है. मार्केट वैल्यू की वजह से ये यहां का कमर्शियल क्रॉप बन गया है. अभी जलवायु परिवर्तन का असर उत्पादन पर पड़ा है, लेकिन अभी भी मक्का उत्पादन करके किसान फ़ायदे में है."
बिहार में मक्के के कुल उत्पादन का 80 फ़ीसदी सीमांचल में होता है. साल 2019-20 में बिहार में उत्पादन 35 लाख मैट्रिक टन था जो 2020-21 में घटकर 30 लाख मैट्रिक टन हो गया. पूर्णिया की गुलाबबाग मंडी को एशिया की सबसे बड़ी मक्का मंडी माना जाता है. अप्रैल से अगस्त तक यहां रोज़ाना 8 से 10 हज़ार मैट्रिक टन मक्का आता है. तमिलनाडु, कोलकाता, उत्तराखंड, दिल्ली, राजस्थान में इस मक्के की भारी मांग है तो विदेशों में यूक्रेन, वियतनाम, म्यांमार, भूटान, नेपाल, बांग्लादेश तक मक्का जाता है.
मंडी में अनाज व्यवसायी संघ के अध्यक्ष पप्पू यादव बताते हैं, "मक्के के प्रोडक्शन से ज़्यादा बड़ा सवाल गुणवत्ता का है. मौसम के बदलाव के चलते गुणवत्ता घटी है क्योंकि यहां से मक्का एक्सपोर्ट होता है और एक्सपोर्टर को अपना प्रोडक्ट बनाने के लिए अच्छी क्वालिटी वाला मक्का चाहिए. अगर गुणवत्ता नहीं सुधरी तो मक्के का बाज़ार ख़त्म हो जाएगा."

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सरकार की कोशिशें
इन सारी चुनौतियों से निपटने के लिए फ़िलहाल राज्य सरकार काग़ज़ पर तो काम करती दिख रही है.
कृषि विश्वविद्यालय, सबौर के निदेशक (प्रचार) आरके सोहाने बताते हैं, " सरकार ने साल 2019 में ही जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हर ज़िले के पांच गांव का चुनाव किया जहां मौसम अनुकूल खेती करवाई जा रही है."
इसी कार्यक्रम के अंतर्गत ही पूर्णिया में बाजरे की खेती का प्रयोग किया जा रहा है. साथ ही राज्य सरकार ने अपने 'वन एवं पर्यावरण विभाग' का नाम बदलकर 'वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन' कर दिया गया है.

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लेकिन क्या ये प्रभावी है?
जवाब में पूर्णिया में मक्के के लिए मशहूर धमदाहा प्रखंड के ऋषिकेश ठाकुर कहते हैं, " हम लोगों ने अबकी बार मक्का नहीं गेहूं बोया है. अब कितनी बार फ़सल बर्बाद करेंगे."
वहीं ज़िले के श्रीनगर प्रखंड के किसान चिन्मयानंद जो तकनीक का इस्तेमाल करके खेती कर रहे हैं, वो कहते हैं, "सरकार को अभी सबसे पहले मौसम के वॉर्निंग सिस्टम पर काम करना होगा. समय पर ये एलर्ट ही किसानों को जलवायु परिवर्तन की मार से बचा सकता है."
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