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कोरोना: "मैंने उनसे बेड मांगा, उन्होंने मुझे लाशें दिखा दीं"
- Author, दिव्या आर्य
- पदनाम, संवाददाता
इस वक़्त देश में जितने ऑक्सीजन सिलेंडर और अस्पताल में आईसीयू और वेंटिलेटर हैं, उनकी मांग, उपलब्धता से कहीं ज़्यादा है. चाहे शहर हो या गांव हर जगह हालत ख़राब है.
कोरोना वायरस की दूसरी लहर के दौरान इससे मरने वालों का आंकड़ा रोज़ नए रिकॉर्ड बना रहा है. इनमें से कई लोग स्वास्थ्य सुविधाओं की भारी कमी की वजह से चल बसे.
उन हज़ारों बेनाम लोगों में से दो की आपबीती, देश की भयावह हालात बयां करती है.
निशि शर्मा, दिल्ली
हम उन्हें नहीं बचा सके. सारा पैसा और पहचान बेकार चला गया. एक नेता ने तो फ़ोन पर कहा, ''वे नेता हैं. उनका काम बेड दिलाना नहीं है. दोबारा ऐसे मुंह उठाकर फ़ोन मत करना.''
सुबह का वक़्त था. मेरी सास, बीना शर्मा की सांस उखड़ने लगी और ऑक्सीजन का स्तर नीचे गिरने लगा.
हमें लगा प्राइवेट अस्पताल ले जाना चाहिए. लेकिन जब आसपास के प्राइवेट अस्पतालों में पूछताछ की तब वहां ऑक्सीजन वाला बेड नहीं मिला.
फिर हम उन्हें सरकारी अस्पताल, गुरु गोबिंद सिंह अस्पताल ले गए. वहां ऑक्सीजन लगाई गई पर दस मिनट बाद ही अस्पताल ने दो टूक कहा कि इनके फेफड़े 60 प्रतिशत ख़राब हो चुके हैं. इन्हें आईसीयू चाहिए, इन्हें ले जाओ यहां से.
फिर फ़ोन कॉल का सिलसिला शुरू हुआ. अफ़रा-तफ़री में किसी तरह से हमने ऑक्सीजन वाली एंबुलेंस का इंतज़ाम किया और दूसरे अस्पताल के लिए निकले.
जब तक वहां पहुँचे मम्मी को जो बेड मिलना था, वो किसी और मरीज़ को दे दिया गया. बहुत गिड़गिड़ाने पर एमरजेंसी में दाख़िल कर उन्हें ऑक्सीजन देना शुरू की गई.
पर फिर हमें बताया कि अब हालत और बिगड़ गई है और वेन्टिलेटर चाहिए. इन्हें ले जाओ, ये बचेंगी नहीं.
मम्मी सिर्फ़ 55 साल की थीं. उनके मुंह पर ये कहना ज़रूरी था क्या? उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि बेटी तुम सब कुछ संभाल लेना.
शायद उन्होंने हिम्मत छोड़ दी हो. पर हमें हौसला क़ायम रखना था. अब वेंटिलेटर और डॉक्टर वाली एंबुलेंस की ज़रूरत थी.
'वो ख़ौफ़नाक मंज़र अब भी मुझे रात में सोने नहीं देता'
ज़्यादा पैसे दिए, एंबुलेंस मंगवाई और सरकारी अस्पताल, जीटीबी अस्पताल ले गए. रास्ते भर हेल्पलाइन पर फ़ोन कर पूछते रहे कि वहां बेड उपलब्ध है या नहीं.
बार-बार हमें बताया गया कि 23 बेड हैं. पर जब हम वहां पहुँचे तो मम्मी को एंबुलेंस से उतारने तक नहीं दिया. कहा गया कि हेल्पलाइन के पास ग़लत जानकारी है.
मैंने हाथ जोड़कर रोते हुए कहा कि वो एक घंटे से एंबुलेंस में सफ़र कर के सिर्फ़ इसलिए आई हैं, क्योंकि यहां बेड का आश्वासन था.
लेकिन उस डॉक्टर ने कहा, यहां बेड नहीं है. मुझे अस्पताल के पीछे की तरफ़ ले गए और कमरे का दरवाज़ा खोलकर कहा, यहां सिर्फ़ लाशें हैं.
मैंने अपनी ज़िंदगी में कभी इतनी लाशें एक साथ नहीं देखी थीं. वो ख़ौफ़नाक मंज़र अब भी मुझे रात में सोने नहीं देता. बार-बार ज़ेहन में आ जाता है.
उस तीसरे अस्पताल से मायूस होकर हमें अपने जान-पहचान की मदद से आख़िर एक अस्पताल में वेंटिलेटर वाला बेड मिल गया, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
हम उन्हें नहीं बचा सके. अब दोनों बेटियों और एक बेटे समेत, हमारे घर में सब कोविड पॉज़िटिव हैं.
अब मुझे फ़ोन आने लगे हैं. लोग जानना चाहते हैं कि ऑक्सीजन कहां मिलेगी, रेमडेसिविर दवा के लिए कौन से क्लीनिक जाएं, एंबुलेंस के लिए किसे फ़ोन करें.
मुझसे जितना बन पड़ रहा है, मैं उन्हें बताती हूं. हम मम्मी के लिए कुछ नहीं कर पाए, उन्हें अच्छा लगेगा कि किसी और के काम आ पाएं.
सचिन सैनी, पलड़ी गांव, मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश
मेरी पत्नी अंजलि छह माह से गर्भवती थी. हमारे दो बच्चे हैं, तीन साल का बेटा और पाँच साल की बेटी. ये बच्चा वो अपनी ननद को देने वाली थी. लेकिन ये सिस्टम उसे खा गया.
कुछ दिन पहले मुझे कोरोना हुआ था. तो अंजलि का टेस्ट भी करवाया. एंटीजन टेस्ट की रिपोर्ट नेगेटिव आई. आरटी-पीसीआर की रिपोर्ट का इंतज़ार था.
इसी बीच उसे खांसी हुई और ऑक्सीजन का स्तर गिरकर 85 आ गया. हम गांव के प्राइवेट क्लीनिक लेकर गए तो उन्होंने कहा- इसे ज़रूर कोरोना हो गया है, बड़े अस्पताल लेकर जाएं.
हम एंबुलेंस से बड़े अस्पताल लेकर गए तो उन्होंने कहा- रिपोर्ट नेगेटिव है, हम भर्ती नहीं कर सकते, ज़िला अस्पताल ले जाओ.
बहुत मिन्नत करने पर, दो-ढाई घंटे बाद इमरजेंसी में दाख़िल किया और ऑक्सीजन दी. फिर एंटिजन टेस्ट किया जो फिर नेगेटिव निकला. अब उन्होंने चलता कर दिया.
हम फिर एंबुलेंस लेकर निकले और मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िला अस्पताल पहुँचे. वहां उसे दाख़िल करके फिर टेस्ट किया. इस बार रिपोर्ट पॉज़िटिव आई.
'वायरस घातक है, पर उससे घातक है ये सिस्टम'
अब ज़िला अस्पताल ने कहा वो नहीं रख सकते, वापस बेगराजपुर मेडिकल कॉलेज ले जाओ.
उस पॉज़िटिव रिपोर्ट के साथ मैं फिर उसे लेकर निकला. इस बार उसे उसी अस्पताल ने दाख़िला तो दे दिया पर कुछ ही घंटों में कहा- उसकी हालत बिगड़ने लगी है और अब वेंटिलेटर पर डालना पड़ेगा.
फिर फ़ोन आया कि हमारा बच्चा कोख में ही मर गया है. और दिल की धड़कन नहीं सुनाई दे रही.
और फिर फ़ोन आया कि उसकी धड़कन भी बंद हो गई है. मेरी अंजलि अपने दोनों बच्चों को छोड़कर चली गई.
मैं तीन दिन तक उसे दो अस्पतालों के बीच घुमाता रहा. टेस्ट रिपोर्ट बदलती रही और उसकी तबीयत बिगड़ती रही.
अगर ये तीन दिन उसका इलाज हो जाता तो शायद वह बच जाती.
ये वायरस घातक है, पर उससे भी घातक है ये सिस्टम, जिसने हमें हरा दिया.
अब मैं अपने बच्चों को देखता हूं और सोचता हूं कि शायद ये कुछ बेहतर कर पाएं. मैं इन्हें आईपीएस और आईएएस बनाऊंगा. शायद मिलकर हम सिस्टम को ठीक कर सकें.
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