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कोरोना: मुश्किल वक़्त में मदद के लिए साथ आईं कई कंपनियां
- Author, विनीत खरे
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
देश के कई इलाक़ों में लोग बिना ऑक्सीजन के दम तोड़ रहे हैं. ऑक्सीजन सिलेंडर या तो मिल नहीं रहे हैं, और मिल रहे हैं तो 50,000 से एक लाख रुपए ब्लैक में. अस्पतालों में जब ऑक्सीजन गैस ख़त्म हो रही है तो रिश्तेदारों से कहा जा रहा है कि वो या तो मरीज़ को ले जाएं या ऑक्सीजन लेकर आएं जिसका इंतज़ाम करने के लिए लोग बदहाल मारे मारे फिर रहे हैं, इस डर से कि कहीं उनके माता, पिता, भाई, बहन, रिश्तेदार उनकी बांहों में ऑक्सीजन के बिना तड़पकर न मर जाएं.
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में कोविड-19 से दो लाख से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं और पिछले 24 घंटों में 3,645 लोगों की मौत हो चुकी है.
ऐसे में विभिन्न उद्योगों से जुड़े 19 लोगों का एक समूह फ़िनिक्स बिज़नेस ओनर्स ग्रुप दिल्ली-एनसीआर के अस्पतालों में ऑक्सीजन की भारी क़िल्लत से निपटने के लिए मुफ़्त सेवाएं दे रहा है.
इस गुट से जुड़े मनीष मदान ने बताया कि अगले कुछ दिनों के लिए उन्होंने बिज़नेस को किनारे पर रख दिया है और समाज के प्रति ज़िम्मेदारियों को सबसे आगे.
पिछले दिनों ऑक्सीजन की कमी से तड़पते लोगों की मौत की तस्वीरों, श्मशान घाटों में जलती चिताओं, आंखों के सामने अपनों की मौत होते देखने की कहानियों ने लोगों की आत्मा को झकझोर दिया है और लोग इस डर के साथ जी रहे हैं कि अपनों के बारे में मिलने वाला समाचार कहीं इतना ही भयावह न हो.
अस्पतालों को मुहैया कराते हैं सिलेंडर
जब सर गंगाराम अस्पताल को इस गुट की ओर से ज़रूरत के वक़्त 64 सिलेंडर उपलब्ध करवाए गए तो अस्पताल के चेयरमैन डॉक्टर डीएस राणा ने शुक्रिया अदा किया. तीन साल पहले बने फ़िनिक्स ग्रुप में 40 साल से कम उम्र के और अलग अलग उद्योगों से जुड़े 19 लोग हर हफ़्ते सुबह सात बजे मिलते थे और अलग-अलग आइडियाज़ पर बात करते थे.
दिल्ली-एनसीआर में ऑक्सीजन की भारी क़िल्लत ने इन्हें एक नया मक़सद दे दिया. जब अस्पतालों को ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं मिल पाते तो ये ग्रुप अस्पतालों को सिलेंडर उपलब्ध करवाता है.
कई बार अस्पतालों का स्टाफ़ गैस पाने की लंबी लाइन में लगा रहता है और जब तक उनका नंबर आता है तो गैस ख़त्म हो जाती है, यानि गैस की उपलब्धता कई घंटे पीछे खिसक जाती है. स्टोनेक्स कंपनी और इस गुट से जुड़े गौरव अग्रवाल बताते हैं कि ऐसे महत्वपूर्ण समय में वो अस्पतालों को अपने सिलेंडर उपलब्ध करवाते हैं ताकि उस बेहद नाज़ुक वक़्त में अस्पतालों का काम चल सके और मरीज़ों को ऑक्सीजन मिल पाए.
स्टोनेक्स कंपनी के गौरव अग्रवाल ने बताया, "हमने अपने ख़ुद के 200 सिलेंडर ख़रीद लिए हैं और हम इन सिलेंडर को भरवा रहे हैं."
इस ग्रुप के मुताबिक़ उन्होंने सर गंगाराम, वेंकटेश्वर अस्पताल, जेजे गवर्नमेंट अस्पताल, संत परमानंद अस्पताल, पेंटामेड जैसे अस्पतालों को अपनी सेवाएं दी हैं.
गौरव अग्रवाल बताते हैं कि ज़मीन पर ऑक्सीजन को पाने के लिए लगातार काम करने से उन्हें समझ आया है कि ऑक्सीजन कहां मिल सकती है. गौरव कहते हैं कि अभी फ़िलहाल वो अस्पतालों की ही मदद कर रहे हैं, न कि व्यक्तिगत तौर पर लोगों की.
वो कहते हैं, "व्यक्तिगत तौर पर लोगों की ज़रूरत बहुत ज़्यादा है. 200 सिलेंडर तो 10 मिनट में ही ख़त्म हो जाएंगे." गौरव के मुताबिक़ वक़्त के साथ दिल्ली में हालात सुधर रहे हैं और उन्हें भरोसा है कि अगले 15 दिनों में ये बहुत बेहतर हो जाएंगे.
अभी भी दिल्ली-एनसीआर में ऑक्सीजन, वेंटिलेटर के लिए मारामारी है, और अस्पतालों के बाहर भरती होने वाले लोगों की भीड़ है.
मनीष मदान कहते हैं कि ज़रूरत है कि सभी राज्य एक दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए साथ आएं और राज्यों के बीच सामान लाने-ले जाने की चुनौतियों को दूर किया जा सके.
लोगों की मदद के लिए ऐप
पिछले हफ़्ते तीन पूर्व आईआईटी इंजीनियर स्वप्निल शर्मा, मिलन रॉय, प्रनीत गनवीर ने एक ऐप कोवरिलीफ़ डिज़ाइन किया जिसे काफ़ी शेयर किया जा रहा है.
इस ऐप की मदद से विभिन्न शहरों में ज़रूरतमंद लोग पता कर सकते हैं कि कहां हॉस्पिटल बेड, ऑक्सीजन उपलब्ध हैं.
इस ऐप का पता है covidrelief.glideapp.io जिस पर क्लिक करने पर आपको ये रिसोर्स पन्ने पर ले जाता है. स्वप्निल ने बताया कि चौबीस घंटे में बनाए गए इस ऐप का मक़सद है परेशान लोगों को आसानी से भरोसेमंद मदद उपलब्ध करवाना.
यह ऐप निर्भर करता है सरकारी डेटा पर और आपको सीधे अस्पताल या मददकार लोगों से उनके नंबरों पर जोड़ता है.
स्वप्निल के मुताबिक़ पहले दिन इस ऐप पर साठ लाख तक लोग पहुँचे थे.
स्वप्निल बताते हैं कि अगर किसी का फ़ोन उपलब्ध नहीं तो मदद के लिए दिए गए एक लिंक से लोग अपनी बात ट्विटर और फ़ेसबुक पर पोस्ट कर सकते हैं जिसे मददगारों का एक गुट मॉनिटर करता है.
लेकिन ऐसे वक़्त जब प्लाज़्मा, हॉस्पिटल बेड, ऑक्सीजन की उपलब्धता लगातार बदल रही है तो सरकारी आंकड़ों पर भी कितना भरोसा किया जाए?
इस पर स्वप्निल कहते हैं, "अगर जानकारी में बहुत ज़्यादा फ़र्क़ होता तब ये ऐप इतना आगे नहीं बढ़ता."
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