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कोरोना के क़हर में जीवन और मौत के बीच का पुल बना सोशल मीडिया
- Author, जॉर्जिना रैनार्ड
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
कोरोना की दूसरी लहर के रूप में भारत में मची तबाही से हर रोज़ देश में तीन लाख से अधिक मामले दर्ज किए जा रहे हैं. अपने परिजनों तक मदद पहुँचाने के लिए लोग बड़ी बेचैनी से सोशल मीडिया की सहायता ले रहे हैं.
अपने बीमार परिजन को अस्पताल में बेड, ऑक्सीजन, रेमेडिसविर और प्लाज़्मा दिलाने के लिए लोग सोशल मीडिया का जमकर उपयोग कर रहे हैं. ऐसे वक़्त में ये माध्यम ही शायद उनकी अकेली उम्मीद हैं.
इसके लिए लोग सुबह से देर रात तक अपने इंस्टाग्राम अकाउंट को स्कैन कर रहे हैं. व्हाट्सएप के विभिन्न समूहों में मैसेज छोड़ रहे हैं. और लोगों को कॉल करके आस लगा रहे हैं कि कहीं से कोई मदद उन्हें मिल जाए.
पूरा माहौल अराजक और बोझिल बना हुआ है. एक व्हाट्सएप मैसेज फ्लैश होना शुरू होता है कि 'आईसीयू के दो बेड ख़ाली.' कुछ मिनट बाद पता चलता है कि वह भर गया. इस बीच एक और मैसेज आता है, ''ऑक्सीजन कॉन्संट्रेटर की ज़रूरत है. कृपया मदद करें.''
स्वास्थ्य प्रणाली के चरमरा जाने के बाद सोशल मीडिया, लोगों की मदद और भाग्य, अब ये चीज़ें ही लोगों के जीवन और मौत को तय कर रही हैं.
इन ज़रूरी उत्पादों की माँग इस समय सप्लाई से कहीं ज़्यादा हो गई है.
वहीं दूसरी ओर मरीज़ों के पास इंतज़ार के लिए वक़्त नहीं है.
मैंने शुक्रवार को जब यह स्टोरी लिखना शुरू किया तब मेरी बात उत्तर प्रदेश के एक आदमी से हुई. अपने 30 वर्षीय भाई के लिए वे व्हाट्सएप पर ऑक्सीजन की तलाश में जुटे थे. लेकिन रविवार को इस आलेख के पूरा होते समय, उनके भाई की मौत हो गई थी.
लोग अपने बीमार परिजनों की जान बचाने के तमाम रास्ते कई दिनों से खोज-खोज कर परेशान और दुखी हो चुके हैं. ऐसे ही लोगों में अवनी सिंह भी हैं.
सोशल मीडिया से दादा को बचाने की कोशिश
अवनी सिंह कहती हैं, ''भारत में अभी सुबह के छह बजे हैं. हम अभी से लोगों को कॉल करने में जुट जाते हैं. हम दादा जी की ऑक्सीजन या इंजेक्शन की ज़रूरतों का पता लगाकर व्हाट्सएप पर उसे खोजने में जुट जाते हैं. हम सभी जानने वालों को कॉल करते हैं.''
94 साल के उनके दादा दिल्ली में कोविड-19 से गंभीर रूप से बीमार हैं. अमेरिका में अपने घर से, अवनी और उनकी मां अमृता ने बताया कि कैसे भारत के उनके जानने वालों ने बीमार पड़ने पर उन बुज़ुर्ग की कई बार मदद की.
अवनी ने बताया, ''हमने हर उस इंसान से संपर्क किया, जिन्हें मैं जानती हूं. मैंने सोशल मीडिया पर उन पेजों को फ़ॉलो और कंफ़र्म किया, जो आईसीयू बेड और ऑक्सीजन की जानकारी दे रहे थे. हमने इस बीच लगभग 200 लोगों से संपर्क किया.''
आख़िरकार स्कूल के एक मित्र के माध्यम से अवनी को अपने दादा के लिए एक अस्पताल में एक बेड मिल गया. लेकिन पता चला कि वहां ऑक्सीजन नहीं थी.
अवनी के दादा तब बेहोश थे. अवनी ने बताया कि तब उन्होंने फ़ेसबुक पर एक अपील पोस्ट की और तब उनके एक दोस्त ने ऑक्सीजन की सप्लाई वाले एक इमरजेंसी रूम का इंतज़ाम किया. अवनी के दोस्त की कोशिश से उनके दादा उस रात बच गए.
जब हमने शनिवार को बात की तो उनके दादा की सेहत में सुधार हो रहा था, लेकिन अब अवनी और अमृता को रेमेडिसविर इंजेक्शन का जुगाड़ करना था. वे दोनों लोगों को कॉल कर रही थीं. वहीं दिल्ली में रहने वाले अवनी के मामा उनके लिए रोज़ 160 किमी गाड़ी चलाकर दौड़ रहे थे.
अवनी कहती हैं, ''मेरे दादाजी मेरे सबसे अच्छे दोस्त हैं. मैं इंस्टाग्राम पेज चलाने वालों को, जिन्होंने उनके लिए इतना कुछ किया, महज़ शुक्रिया अदा नहीं करना चाहतीं.''
पुरानी सूचनाएं और फ़ज़ीर्वाड़ों से हो रही परेशानी
हालांकि ज़रूरी सूचनाएं जल्दी पुरानी हो जाती हैं. उन्होंने ज़रूरी सामानों की कालाबाज़ारी को लेकर अपनी चिंताएं बताईं.
अमृता ने बताया, ''हमने एक फ़ार्मेसी के बारे में सुना, लेकिन जब तक मेरे भाई वहां पहुँचते, तब तक वहां से सभी लोग जा चुके थे. यह फ़ार्मेसी सुबह 8.30 बजे खुलती थी और इंजेक्शन के लिए लोग आधी रात से क़तार में खड़े थे. पहले आने वाले केवल 100 लोगों को ही यह इंजेक्शन मिल सका.''
अमृता ने कहा कि अब ब्लैक मार्केट में रेमेडिसविर को बेचा जा रहा है. इसकी असल क़ीमत 1,200 रुपए होनी चाहिए, लेकिन इसे एक लाख तक में बेचा जा रहा है. और दिक़्क़त यह भी कि आप यह नहीं तय कर सकते कि यह असली है या नक़ली.
निजी संपर्कों पर निर्भर रहने वाले हर सिस्टम की तरह यहां भी मदद हासिल कर पाना हर किसी के बूते की चीज़ नहीं है. पैसा, पारिवारिक जान-पहचान और अच्छी सामाजिक स्थिति ये सभी सफलता के बेहतर मौक़े लेकर आते हैं. इंटरनेट और मोबाइल फ़ोन भी ऐसा ही करते हैं.
अराजक सिस्टम को व्यवस्थित करने का प्रयास
ऐसे अराजक माहौल के बीच, कई लोग सिस्टम को थोड़ा व्यवस्थित बनाने और सूचनाओं को इकट्ठा करके उसे लोगों तक पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं. इसके लिए कम्युनिटी ग्रुप बनाया जा रहा है और कॉन्टैक्ट लिस्ट को लोगों तक पहुँचाने के लिए इंस्टाग्राम का सहारा लिया जा रहा है.
20 साल की अर्पिता चौधरी और कॉलेज के उनके साथी मिलकर राजधानी दिल्ली में एक ऑनलाइन डेटाबेस चला रहे हैं. यहां पर ये लोग सूचनाओं को जुटाने के साथ उसे प्रमाणित करके डालते हैं.
वे बताती हैं, ''इसे हम हर घंटे और मिनट अपडेट कर रहे हैं. पाँच मिनट पहले, मुझे बताया गया कि किसी अस्पताल में 10 बेड ख़ाली हैं, लेकिन जब मैंने वहां फ़ोन किया तो पता चला कि वहां कोई भी बेड ख़ाली नहीं है.''
वे अपने साथियों के साथ, सोशल मीडिया पर ऑक्सीजन, बेड, प्लाज़्मा या दवा की पेशकश करने नंबरों पर कॉल करती हैं और प्रमाणित सूचनाओं को ऑनलाइन डालते हैं. उसके बाद ये लोग कोरोना मरीज़ों के परिजनों की ओर से आए मदद के अनुरोधों का जवाब देती हैं.
अर्पिता ने बताया, ''हम सबसे बेसिक लेवल पर जहां तक संभव हो, मदद कर सकते हैं.''
सोशल मीडिया का लाभ सबको नहीं
शुक्रवार को ही आदित्य गुप्ता ने मुझे बताया कि वो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में ज़बरदस्त बीमार पड़े अपने चचेरे भाई सौरभ गुप्ता के लिए ऑक्सीजन कॉन्संट्रेटर खोज कर रहे हैं.'' उत्तर प्रदेश भी इन दिनों कोरोना की गंभीर चपेट में है.
30 साल के इंजीनियर सौरभ अपने परिवार के लिए गर्व और आनंद की वजह थे. उनके पिता ने एक छोटी सी दुकान चलाकर बचत से उन्हें पढ़ाया था.
आदित्य ने बताया, ''हम गोरखपुर के लगभग सभी अस्पताल गए. सभी बड़े अस्पताल भरे हुए थे और बाक़ी अस्पतालों ने कहा कि यदि आप ऑक्सीजन का प्रबंध कर सकते हैं तो आपके मरीज़ को भर्ती करेंगे.''
व्हाट्सएप से उनके परिवार को एक ऑक्सीजन सिलेंडर मिला लेकिन उसके उपयोग के लिए उन्हें एक कॉन्संट्रेटर की ज़रूरत थी. शुक्रवार को यह 'आउट ऑफ़ स्टॉक' था. बहुत खोजने पर एक सप्लायर ने एक कॉन्संट्रेटर देने का आश्वासन दिया. लेकिन यह डिवाइस कभी नहीं मिली और सौरभ को अस्पताल में भर्ती नहीं कराया जा सका.
रविवार को आदित्य ने बताया, ''कल सुबह हमने सौरभ को खो दिया. अपने मां-बाप के सामने वह चल बसा.''
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