समलैंगिकों के हक़ में धारा 377 पर फ़ैसले का एक साल पूरा, अब आगे क्या?

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- Author, अंजलि गोपालन
- पदनाम, समाजसेवी
सोचिए...आपके साथी की तबियत ख़राब हो और उसकी ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों में आप उसके साथ न रह सकें. उसका परिवार आपको उससे मिलने की इजाज़त न दे.
यही नहीं, उसकी मृत्यु होने पर आपको आख़िरी बार उसे देखने भी न दे. श्मशान घाट जाकर आप अपने पार्टनर की अंतिम क्रिया में शामिल भी न हो सकें.
इसी लोकतांत्रिक देश में एक समलैंगिक जोड़े के साथ ऐसा बर्ताव किया गया.
ये जोड़ा बीस साल के एक-दूसरे के साथ रह रहा था. उन्होंने जीवन के कई मोड़ एक साथ तय किए थे लेकिन आख़िरी वक़्त में उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया गया.
लेकिन अगर यही कोई हेट्रोसेक्सुअल (विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षित होने वाले लोग) जोड़ा होता तो....
और पति की तबियत ख़राब होने पर उसकी बीवी को उससे मिलने नहीं दिया जाता तो क्या हंगामा खड़ा नहीं होता...!
लेकिन इस मामले में क्या हुआ?
अब से एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को निरस्त करके समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटाया था.
तब देशभर में सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले का स्वागत किया गया था.
लेकिन इस फ़ैसले से क्या हुआ?
इससे सिर्फ़ इतना हुआ कि इस समुदाय के लोगों को अपराधी की श्रेणी से बाहर कर दिया गया. लेकिन जब बात आती है अधिकारों की तो इस समुदाय को कौन से अधिकार मिले हुए हैं ये जानना ज़रूरी हो जाता है.
हिंदुस्तान में शादी करने और अपने साथी की देखभाल करने की बात लोगों को स्वाभाविक लगती है.

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कोई ये नहीं सोचता कि ये अधिकारों से जुड़ा मामला है.
लेकिन एलजीबीटीक्यू समुदाय के लोगों को ये अधिकार नहीं मिला है.
आगे की राह क्या होगी?
सवाल ये है कि आप किस-किस अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे.
क्योंकि अपने अलग-अलग अधिकारों के लिए कानूनी संघर्ष करना काफ़ी चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया होती है.
ऐसे में एक ऐसे कानून की ज़रूरत है जो भारत के हर समुदाय को हर तरह के भेदभाव से बचाने वाला हो.

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इसके बाद इस समुदाय को विवाह करने और अपने साथी की देखभाल करने जैसे हक़ ख़ुद ही मिल जाएंगे.
ऐसे में यह स्पष्ट है कि धारा 377 पर सिर्फ़ सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से आगे बढ़कर कुछ किए जाने की ज़रूरत है.

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इस समुदाय को स्वीकार्यता तो मिली है लेकिन ये स्वीकार्यता तब तक अधूरी है जब तक इन्हें अपने तरीके से जीवन जीने का अधिकार नहीं मिल जाता.
ये लोकतंत्र के लिए भी एक सवाल है.
इससमुदाय से सिर्फ़ इतना कहा है कि वे अपराधी नहीं हैं.
आज के ज़माने में युवा एक-दूसरे के साथ रहते हैं और शादी नहीं करते हैं. ऐसे में उनके अधिकार क्या हैं?
अगर हम ऐसा क़ानून बनाने में सफल हो जाएं जिसमें देश के हर समुदाय को उसके अधिकार मिलना सुनिश्चित हो तो उससे एलजीबीटीक्यू समुदाय के अधिकार भी सुरक्षित होंगे.
समावेशी क़ानून की ज़रूरत
इस तरह के क़ानून को लाने के लिए देश के सभी समुदायों को एक मंच पर आने की ज़रूरत है.
एलजीबीटीक्यू समुदाय को दूसरे सभी समुदायों जैसे दलित और वनवासी समुदाय से संपर्क करने की आवश्यकता है.
क्योंकि अगर सभी लोग साथ आएंगे तब इस तरह के क़ानून को लाना संभव होगा जो कि सभी लोगों को हर तरह के भेदभाव से बचाने में सफल होगा.
सामाजिक स्तर पर स्वीकार्यता कैसे बढ़ेगी
जब हम इस समुदाय के लोगों से मिलते हैं तो पता चलता है कि पुलिस से लेकर दूसरे विभागों में काम करने वालों से इन्हें अब पहले जितनी समस्या नहीं होती है.
लेकिन लोगों को इनके बारे में समझाने के लिए हमें पाठ्यक्रमों में इसे शामिल करना होगा.

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ये सिर्फ एक फ़ैसला आ जाने भर से नहीं होगा.
अगर आप धारा 377 के फ़ैसले से जुड़े इतिहास पर नज़र डालें तो आपको पता चलेगा कि ये इतना आसान नहीं था.
लोगों को इसे समझने में भी वक़्त लगा.
अभी भी लोगों के लिए खुलकर सबके सामने आना आसान नहीं है.
उन्हें ये नहीं पता होता है कि उनका परिवार ये स्वीकार करेगा या नहीं. उनके दोस्त, रिश्तेदार और समाज उन्हें पहले जितनी स्वीकार्यता देगा या नहीं.
हां, ये ज़रूर हुआ है कि पहले जो कहा जाता था कि समलैंगिकता हमारे देश में नहीं है या हमारी संस्कृति में नहीं है. अब लोग ये नहीं कह पाते हैं.
ये बदलाव ज़रूर आया है. अब कोई ये नहीं कहता कि ये पश्चिमी देशों में होता है.
ये देखकर खुश होती है कि अब कॉरपोरेट कंपनियां अपने स्टाफ़ में समावेश और विविधता लेकर आ रही है.
अब कई लोग सामाजिक दबाव के आगे नहीं झुककर, अपनी पहचान के साथ जीने का साहस कर रहे हैं.
ये बात उम्मीद देती है कि देर-सबेर इस समुदाय के लोगों को उनके मूल अधिकार मिलेंगे और समाज में स्वीकार्यता भी मिलेगी.
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