मायावती की अधूरी राजनीतिक हसरतों को झटका: नज़रिया

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    • Author, अनिल जैन
    • पदनाम, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नतीजों से बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की सुप्रीमो मायावती की हसरतों को गहरा झटका लगा है.

इन तीनों में से दो राज्यों मध्य प्रदेश और राजस्थान में बसपा चुनावी गठबंधन की कांग्रेस की पेशकश को ठुकरा कर अपने अकेले के बूते चुनाव मैदान में उतरी थी, जबकि छत्तीसगढ़ में उसने पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की नवगठित पार्टी 'जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़' के साथ गठबंधन किया था.

लेकिन तीनों ही राज्यों में उसे उम्मीद के मुताबिक़ कामयाबी नहीं मिल सकी.

यही नहीं, तीनों राज्यों में वह न तो सीटों के लिहाज से और न ही प्राप्त वोटों के प्रतिशत के लिहाज से पिछले चुनावों के अपने प्रदर्शन को दोहरा सकीं.

राजस्थान में उसे 3.0 फ़ीसदी वोटों के साथ छह सीटें, छत्तीसगढ़ में 4.4 फ़ीसदी के साथ चार सीटें और मध्य प्रदेश में 0.9 फ़ीसदी वोटों के साथ दो सीटें हासिल हुई हैं.

राजस्थान और मध्य प्रदेश में यह उसका अब तक का सबसे कमज़ोर प्रदर्शन है, जबकि छत्तीसगढ़ में चार सीटें मिलना उसकी अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी है.

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चुनाव पूर्व गठबंधन शर्तें

वैसे तो बसपा का मुख्य जनाधार उत्तर प्रदेश में ही है, लेकिन वह वोट प्रतिशत के लिहाज से अन्य हिंदी भाषी राज्यों खासकर मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश में भी अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराती रही है. इसके अलावा पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक जैसे खासी दलित आबादी वाले सूबों में भी उसका ठीक-ठाक जनाधार है.

बसपा के बारे में यह जगजाहिर है कि गठबंधन की राजनीति में दूसरी पार्टियों से अपनी शर्तें मनवाने, भरपूर मोलभाव करने और साझेदार दलों से अपने जनाधार के समर्थन की भरपूर कीमत वसूलने में इसका कोई सानी नहीं है.

इस बार भी उसने विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर हुई बातचीत में ऐसा ही किया.

बसपा से जुड़े सूत्रों के मुताबिक़ मायावती को लग रहा था कि चुनावी राजनीति के लिहाज से कांग्रेस इस समय अपने इतिहास के सबसे नाज़ुक दौर से गुज़र रही है.

संख्या के लिहाज से वह लोकसभा में तो दयनीय स्थिति में है ही, साथ ही देश के अधिकांश राज्यों में भी एक-एक करके वह सत्ता से बेदखल हो चुकी है.

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कांग्रेस के साथ गठबंधन क्यों नहीं की?

मायावती इस हकीकत को भी जान रही थीं कि पिछले चार वर्षों के दौरान हर तरफ से लुटी-पिटी कांग्रेस के लिए अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले इन तीनों राज्यों के चुनाव जीवन-मरण से जुड़े हैं.

वो यह जान रही थीं कि अगर इन राज्यों में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद भाजपा फिर सत्ता में लौट आती है तो लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की सारी संभावनाएं लगभग खत्म हो जाएंगी.

इसी हकीकत को समझते-बूझते हुए मायावती ने विधानसभा चुनाव के लिए अपनी रणनीति बुनी.

उन्हें लग रहा था कि यही मौका है जब वह कांग्रेस को ज़्यादा से ज़्यादा झुका कर उससे तालमेल या गठबंधन की स्थिति में अपनी पार्टी के लिए अधिकतम सीटें छुड़वा सकती हैं.

यही सब सोचकर मायावती ने मध्य प्रदेश की 230 में से 50, राजस्थान की 200 में से 45 तथा छत्तीसगढ़ की 90 में 25 सीटें बसपा के लिए मांगी.

मायावती की यह मांग कांग्रेस के लिए न तो दलीय हितों और न ही व्यावहारिक राजनीतिक के तकाजों के अनुरूप थी, लिहाजा गठबंधन नहीं हो सका.

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जीत के बड़े दावे

बसपा ने मध्य प्रदेश में 2013 के विधानसभा चुनाव में भी 230 में से 227 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. लेकिन उस चुनाव में उसके महज़ चार उम्मीदवार ही जीत सके थे और उसे कुल 06.42 फ़ीसदी वोट मिले थे.

इस बार भी बसपा ने सभी 230 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए. सूबे के रीवा, सतना, दमोह, भिंड, मुरैना आदि ज़िलों में उसका खासा प्रभाव रहा है.

इस बार भी भाजपा के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर और दलित समुदाय में भाजपा के ख़िलाफ़ देशव्यापी आक्रोश के चलते अपने मजबूत जनाधार वाले इन ज़िलों में बेहतर नतीजे मिलने की उम्मीद थी.

बसपा की मध्य प्रदेश इकाई के अध्यक्ष प्रदीप अहिरवार ने चुनाव से कांग्रेस से गठबंधन संबंधी बातचीत टूट जाने के बाद दावा भी किया था मध्य प्रदेश में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिलेगा और बसपा 34 वर्ष के इतिहास में अब तक बेहतर प्रदर्शन करते हुए अपने बूते 30 से 35 सीटें जीत कर सत्ता की चाबी अपने पास रखेगी. लेकिन उनके इस दावे की चुनाव नतीजों ने हवा निकाल दी.

उसके प्रभाव वाले सभी ज़िलों खासकर विंध्य इलाके में रीवा, सतना और दमोह ज़िले में न सिर्फ़ उसका सफाया हो गया, बल्कि कांग्रेस को भी भाजपा के मुक़ाबले करारी हार का सामना करना पड़ा.

कहा जा सकता है कि अगर कांग्रेस और बसपा का गठबंधन हो गया होता इस इलाके में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ता.

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अकेले दम पर उतरने की वजह

बसपा ने मध्य प्रदेश वाली कहानी राजस्थान में भी दोहराई और सभी 200 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे.

बीते कुछ चुनावों में उसका राज्य के धौलपुर, भरतपुर, दौसा और गंगानगर ज़िले की कुछ विधानसभा सीटों पर काफ़ी अच्छा प्रदर्शन रहता आया है.

जिन सीटों पर वह जीत दर्ज नहीं कर सकी वहां उसने परिणाम तय करने में अहम भूमिका निभाई.

2013 के विधानसभा चुनाव में भी उसने सीटें तो महज तीन ही जीते लेकिन सात सीटों पर कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेल दिया था.

राज्य में उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन 2008 के विधानसभा चुनाव में रहा था जब उसने 7.60 फ़ीसदी वोटों के साथ छह सीटों पर जीत दर्ज की थी.

अपने इसी पुराने प्रदर्शन के बूते उसे उम्मीद थी कि इस बार भी वह सत्ता विरोधी लहर और दलित आक्रोश के बूते बेहतर प्रदर्शन कर इतनी सीटें जीत लेगी कि सत्ता की चाबी उसके पास रहे. लेकिन उसका यह मंसूबा पूरा नहीं हो सका.

सीटों के लिहाज से वह अपने 2008 के प्रदर्शन से आगे नहीं जा सकी और उसे महज छह सीटों से ही संतोष करना पड़ा. उसके वोट प्रतिशत में भी भारी गिरावट आई और वह महज़ 03 फ़ीसदी वोट ही हासिल कर सकी.

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मायावती की राजनीतिक हसरत

कांग्रेस और बसपा में गठबंधन न हो पाने की एक वजह यह भी थी कि मायावती चुनावी राजनीति में अपनी पार्टी के जनाधार की ताक़त और अहमियत का अहसास इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश में तीन संसदीय सीटों गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के उपचुनाव में करा चुकी थीं.

गोरखपुर और फूलपुर में बसपा ने समाजवादी पार्टी को और कैराना में राष्ट्रीय लोकदल को समर्थन दिया था. तीनों ही जगह भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा.

उपचुनाव के इन नतीजों ने भी मायावती की मोलभाव करने की क्षमता में इज़ाफ़ा किया था और वह कांग्रेस से अपनी शर्तें मनवाना चाहती थीं.

दरअसल, मायावती का लक्ष्य सिर्फ़ विधानसभा चुनावों में अधिक से अधिक सीटें लड़ना और जीतना ही नहीं था, उनकी निगाहें 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी थीं.

वे विधानसभा की ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतकर लोकसभा चुनाव में बनने वाले संभावित व्यापक गठबंधन में भी अपनी पार्टी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा सीटों पर दावेदारी करने की स्थिति में आना चाहती थीं, ताकि चुनाव के बाद अगर त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बने तो वे प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी ठोक सकें.

देश की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं की तरह मायावती की भी यह राजनीतिक हसरत किसी से छुपी नहीं हैं. लेकिन तीन राज्यों में उन्हें मिले निराशाजनक नतीजों ने उनकी अधूरी हसरतों का अंत कर दिया.

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